एक चर्चित समाजसेवी का महाप्रस्थान
गत रविवार को आनंदलोक के संस्थापक व संचालक श्री देव कुमार सराफ का निधन हो गया। 82 वर्ष के देव कुमार जी ने अपने जीवन का एक वृहद अंश आनंदलोक के माध्यम से पीडि़त, वंचितजनों की सेवा में बिताया। पिछले चार दशकों में सामाजिक या जनसेवा के क्षेत्र में वह बहुत चर्चित हुए। कभी एक छोटी सी गैरेज में क्लीनिक के रूप में उन्होंने आनंदलोक की स्थापना की थी एवं अपने बलबूते एवं सेवा के प्रति गहरी निष्ठा के बल पर आनंदलोक एक वटवृक्ष की तरह फैल गया जिसकी छत्र-छाया में लगभग 21 सेवा केंद्र चल रहे हैं। सेवा सिर्फ चिकित्सा तक सीमित न होकर गरीबों को मुफ्त राशन, छात्र-छात्राओं को पाठ्य पुस्तक, गरीब लड़कियों का सामूहिक विवाह, निर्धन महिलाओं को सिलाई मशीन, दिवाली के समय अभावग्रस्त बच्चों में आतिशबाजी का सामान आदि आदि के जरिए दीन दुखियों की सहायता का उपक्रम न सिर्फ संचालित किया बल्कि अन्य समाजसेवियों को भी इस जन कल्याण के लिए प्रेरित किया। देव कुमार जी अपने द्वारा सेवा कार्यों का अखबारों में बड़े इश्तिहार भी देते थे जिसके लिए उनकी कई बार आलोचनाएं भी हुई पर उन्होंने उसके औचित्य पर कहा कि लोगों को जानकारी देने एवं समाज के अन्य भाई बहनों को भी सेवा हेतु प्रेरित करने के उद्देश्य से मैं यह कर रहा हूं। आलोचना की उन्होंने कभी परवाह नहीं की और अपने अभियान को जारी रखा। आनंदलोक के माध्यम से गरीबों को पक्के मकान देने का बीड़ा उठाया और कई हजार मकान बनवाकर भी दिए। यह एक बेजोड़ कार्य था जिसका कोई समानांतर उदाहरण नहीं है।
श्री देव कुमार सराफ
मैं देव कुमार जी के संपर्क में सर्वप्रथम वर्ष 1988 में आया और उनके सेवा रथ पर सवार होने का मुझे शुभ अवसर प्राप्त हुआ। पक्के मकान देने के लिए उनके महती कार्य में श्री बसंत कुमार बिरला और उनकी धर्मपत्नी सरला जी भी इन मकानों के निरीक्षण हेतु स्वयं गए। सौभाग्य से मैं भी उनके साथ था। गांवों के बीहड़ इलाकों में इस स्वनामधन्य दंपत्ति के साथ जाकर मैंने भी इस सेवा का जायजा लिया। बिरला दंपत्ति इस दौरान साधारण पत्तल पर अन्य कार्यकर्ताओं के साथ दाल भात, रोटी खाते हुए मैंने स्वयं देखा। यह देव कुमार जी का ही असाधारण व्यक्तित्व का प्रभाव था जिसने देश के चोटी के धन कुबेर को साधारण लोगों के साथ भोजन करने जैसे अद्भुत कार्य को अंजाम दिया जिसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं है।
सच पूछा जाए तो देव कुमार जी ‘वन मैन वंडर’ थे। कई बार लोगों ने उन्हें इसे एक संस्थागत रूप देने को कहा पर यह कार्य हो नहीं सका। अपनी मसीहा की तरह कार्य करे तो वह ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’ कहावत को झूठला सकता है। यह अकाट्य सत्य है कि वे वन मैन आर्मी थे जिन्होंने अपने दम पर वह कार्य किया जो आज तक कोई नहीं कर सका। एक बार श्री कृष्ण कुमार बिड़ला ने उनके बारे में यह टिप्पणी की थी कि मैं और मेरे बरिष्ठ अधिकारी भी मिलकर वह काम नहीं कर सकते जो देव कुमार सराफ ने अकेले कर दिखाया है।
पाठक यह सोचते होंगे कि जिस व्यक्ति की मैंने कड़ी आलोचना की थी अब उनकी उन्मुक्त प्रशंसा क्यों कर रहा हूं? आज जब देव कुमार सराफ इस संसार में नहीं है उनका सही मूल्यांकन करना भी मेरा ही दायित्व है। मेरी समालोचना भी ठीक थी। वैसे भी आदमी कोई देवता नहीं होता। मानव मात्र में कमजोरी होती है। दूसरा देव कुमार सराफ ने जीवन के बहुत थपेड़े झेले थे। उन्होंने बताया कि उनके भाई ने दवा के अभाव में दम तोड़ दिया था। स्वाभाविक है उनका समाज के एवं व्यवस्था के प्रति कड़वा अनुभव था। बाद में उनके स्वभाव में कड़वाहट घुल गई। देव कुमार जी अपनी विज्ञप्तियों में मारवाड़ी समाज के धनपतियों को कोसा करते। यही नहीं पत्रकार एवं बुद्धिजीवी भी उनकी कड़वाहट का शिकार हुए। यह कड़वा सच है कि आज की पत्रकारिता विशुद्ध व्यावसायिक हो गई है। उसी का परिणाम है कि बहुत बड़े मुकाम हासिल करने के बावजूद प्रेस ने उनके साथ न्याय नहीं किया। मेरा उनसे मतभेद इसीलिए भी हुआ कि सराफ जी की सामाजिक कार्यकर्ताओं, मारवाड़ी समाज और बुद्धिजीवियों के प्रति टिप्पणी मुझे कभी रास नहीं आई और और मैने इसी के चलते कभी समझौता नहीं किया। मुझसे रुष्ट होकर उन्होंने मेरे पत्र में विज्ञापन देना बंद कर दिया था। यही नहीं कुछ विज्ञापनों में मेरा नाम लिये बिना- ‘सफेद बाल वाले एक पत्रकार’ का जिक्र करते हुए मुझे घेरने की कोशिश की। फिर भी मैंने कभी पीछे मुडक़र नहीं देखा और सराफ की और मेरा नापसंदी का संबंध अंत तक बना रहा।
मेरा यह मानना है कि कुछ खामियों के बावजूद देव कुमार सराफ अपने समय में जन सेवा के भीष्म पितामह थे। उनसे मतभेद का भी मुझे फक्र है। मेरे मन में किसी प्रकार का अपराध बोध नहीं है। एक कहावत है अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता किन्तु देव कुमार सराफ ने इस कहावत को झुठला दिया। उन्होंने अकेले ही वह काम किया जो संस्थायें नहीं कर पाती। प्रचार प्रियता के बावजूद उन्होंने अपने को थोपने की कोशिश नहीं की। अकेले ही सेवा का वटवृक्ष लगाया, उसको संस्थागत रूप देना उनके लिये संभव नहीं था कि देव कुमार सराफ से लोग ‘एकला चलो’ के पथिक हैं। तेजी से चलने वाले व्यक्ति के साथ चलना हर आदमी के बूते की बात नहीं होती। इसीलिये देव कुमार सराफ ने जो भी किया वह संस्था का रूप देकर नहीं किया जा सकता। इसलिये अब उनकी विरासत को कोई अकेला व्यक्ति शायद नहीं सम्हाल सके। इसलिये आनंदलोक, संस्थान को बनाये रखने के लिए सामूहिक नेतृत्व की आवश्यकता है। यह मेरी निजी राय है।
आज जब सार्वजनिक जीवन में गिरावट आ रही है, देव कुमार का स्मरण इसलिए भी है कि उनके समय में उनसे बड़े कद का कोई समर्पित जन सेवक नहीं दिखाई देता। अब हमारी यह चिंता होनी चाहिए कि जन सेवा का पर्यायवाची बना आनंदलोक को उसकी खूबियों के साथ अक्षुण्ण कैसे रखा जाए। गरीब व अभावग्रस्त लोगों के सस्ते इलाज की देव कुमार जी की रखी परंपरा का निर्वाह कैसे किया जाए। सराफ जी एक शानदार परंपरा छोड़ गए हैं उसका ह्रास न हो। दुर्भाग्य से वन मैन शो के कारण उसको संभालने वाले कार्यकर्ता नहीं हंै किंतु उनकी दो सुपुत्रियां है जिनके लिए वह समृद्ध संपदा छोड़ गए हैं। दोनों बहनें स्मिता शा और संयुक्ता झाझडिय़ा समझदार हैं एवं सक्रिय हैं। उनको दायित्व लेना होगा। साथ ही अरुण पोद्दार आनंदलोक ट्रस्ट के चेयरमैन हैं। देव कुमार अपने सभी विज्ञापनों में अरुण जी का फोटो देना नहीं भूलते थे। उनका अपना अस्पताल भी है अत: उन्हें चिकित्सा उपक्रम के संचालन का अनुभव है। इनको समन्वय स्थापित कर ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि आनंदलोक को सेवा भावना के साथ संचालित किया जा सके। अगर सस्ते इलाज का उनका स्वप्न साकार किया जा सके तो देव कुमार सराफ के प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
Comments
Post a Comment