महिला उद्यमियों की अंतर्व्यथा
19 नवंबर को भारत की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का 109 वाँ जन्मदिन था। इसी दिन था अंतरराष्ट्रीय महिला उद्यमी दिवस भी। पता नहीं क्यों हमारे देश में इस दिवस की अनदेखी की गई। कोई नामलेवा जलसा नहीं हुआ, ना ही देश भर में सैकड़ों महिला संगठनों एवं व्यवसायिक मंचों में इसकी गूंज सुनी। किसी चेंबर ऑफ कॉमर्स ने यह दिवस मनाया हो ऐसा सुना नहीं। अखबारों, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी इसकी चर्चा नहीं की गई। कोलकाता में जे आई एस स्कूल आफ मैनेजमेंट ने एक कार्यक्रम रखा था जिसमें मुझे भी वक्ता के तौर पर बुलाया गया। पर इसके अलावा कुछ हुआ हो मेरी जानकारी में नहीं है। महिला उद्यमियों के बारे में विश्व पटल में स्थिति का आंकड़ा मुझे मिल पायाजिसके अनुसार विश्व में कुल उद्यमियों में 37' महिलाएं हैं।
खेतों में काम करती ग्रामीण महिलाएं।
हमारा देश कृषि प्रधान है। अगर आप किसी खेत में जाकर जायजा लें तो देख सकते हैं खेती के काम में महिला हाथ बंटाती है। शिक्षा और सामाजिक न्याय में बहुत पिछडऩे के बावजूद खेतों में महिलाओं की भागीदारी बराबर की होती है। लेकिन उद्यमियों को तलाशते समय हम खेतीहर महिलाओं को नजरअंदाज कर देते हैं। सिर्फ छोटे-बड़े शहरों में कामकाजी महिलाओं या व्यवसाय संचालकी की तरफ नजर जाती है। भारत की आबादी का लगभग 70' हिस्सा खेती पर निर्भर करता है इसके बावजूद हम कृषि से जुड़ी महिलाओं को उद्यमशीलता के दायरे में नहीं लाते यह हमारी पुरुष प्रधान मानसिकता की ही परिणति है।
यह विडंबना है कि खेतों में बीज बोने का काम महिलाएं करती रहीं है। कमर झुकाकर मिट्टी में बीजारोपण करते हुए किसी चित्र को देखें तो यह कार्य महिला करती हुई दिखाई देती है। झुककर बीजारोपनण में शारीरिक कष्ट झेलती रही हैं महिलाएं। लेकिन जब खेतों में ट्रैक्टर चलने लगे तो पुरुषों ने यह काम अपने अख्तियार में ले लिया। जब तकलीफ का काम था तब तक महिलाओं ने किया, ट्रैक्टर से जब आसान हो गया तो इस क्षेत्र को पुरुषों ने हथिया लिया। यही स्थिति अनाज पीसने की रही। हमारी दादी नानी चक्की पीसकर घर की रसोई चलाती पर जब इसकी मशीन बन गई तो यह काम पुरुषों के अधिकार में आ गया। चूल्हा चक्की का काम महिलाएं करती थी पर मशीनी युग में इसे पुरुषों ने समेट लिया। इस प्रकार ग्रामीण उद्योगों में महिलाओं को बेदखल कर दिया गया।
महिलाओं में उद्यमशीलता को हम आमतौर पर शिक्षा प्रसार की देन मानते हैं। पर अगर इतिहास और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया को खंगाले तो पाएंगे कि इसका श्रेय शिक्षा से अधिक समाज सुधारकों को है। अगर मैं प्रश्न करूं कि क्या एक अशिक्षित महिला उद्यमी नहीं हो सकती तो आप कहेंगे क्यों नहीं? हमारे देश में सदियों तक समाज ने कन्याओं को शिक्षा से वंचित रखा इसलिए महिलाएं खेतों और ग्रामीण परिदृश्य तक सीमित रहीं। लेकिन यह हमें स्वीकार करना होगा कि शहर में निर्माण कार्यों में गांव से जाकर महिलाओं ने कंधा से कंधा मिलाकर काम किया। बीड़ी पीकर मजदूरी करती महिलाएं आपको शहर या सडक़ के निर्माण कार्य में संलग्न मिलेंगी।
शिक्षा ने निश्चित रूप से महिला उद्यमियों की एक नई फौज तैयार की है। किंतु वे प्राय: सभी जॉब तलाशती नजर आएंगी। ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट कर अधिकांश लड़कियां किसी कारपोरेट प्रतिष्ठान में जॉब की लाइन में खड़ी मिलती है। इसके ऊपर के महकमे में वे सीए की कमर तोड़ पढ़ाई कर कंपनी की सेक्रेटरी या सीए बन जाती है। इसमें उन्हें अपना भविष्य नजर आता है। यही कारण है कि परीक्षाओं में लड़कियां बड़ी संख्या में है। वे एक सफल सी ए या कुशल कंपनी सेक्रेटरी बन रही हैं। लेकिन स्वरोजगार से फिर भी दूर हैं।
दरअसल हमने महिलाओं को स्वरोजगार को बढ़ावा नहीं दिया। दुर्भाग्य से जब पति की किसी दुर्घटना या बीमारी के कारण असामायिक मृत्यु हो जाती है तो उसकी पत्नी उसका कारोबार संभाल लेती है एवं देखा गया है कि वह परिवार को आर्थिक संकट से उबारती है। यही नहीं आज के समय में महंगाई और घरेलू खर्चे में बेतहाशा वृद्धि के परिणामस्वरुप महिलाएं अपने पति के काम में हाथ बंटाती है। दोयम दर्जे में रहकर भी वह परिवार को आर्थिक संकट से निकालती है। मैं ऐसे कई परिवार को जानता हूं जहां पत्नी पति के कारोबार में सक्रिय भागीदारी और समय के साथ अपने उद्यमी कौशल को उजागर करती है।
देखा गया है कि कुछ कारोबार महिलाएं स्वतंत्र रूप से चला रही हैं। हाल के दशकों में भारत में तीव्र आर्थिक वृद्धि के बावजूद अभी भी महिला उद्यमियों की संख्या काफी कम है। केवल 20' उद्यम महिलाओं के सस्वामित्व वाले हैं जो की 22 से 27 मिलियन लोगों के को प्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करते हैं। स्टार्टअप्स में केवल 6' महिलाएं भारतीय स्टार्टअप की संस्थापक हैं।
यद्यपि महिला उद्यमिता और महिलाओं का व्यापक नेटवर्क तेजी से बढ़ रहा है, फिर भी ऐसी कई महिला उद्यमी हैं जो अपने बेहतरीन व्यापार आइडिया के साथ आगे बढ़ रही हैं। कई भावी महिला उद्यमी अपने स्टार्ट-अप हेतु लिए जाने वाले ऋण से डर सकती हैं। सूचना प्रौद्योगिकी और बिजनेस स्किल्स के बारे में ज्ञान की कमी दूसरी चुनौती हो सकती है।
महिलाओं की ताकत को अब हमारे राजनेता सिर्फ चुनाव के समय ही पहचानते हैं। इधर चुनाव में महिलाओं पर वोट लेने का एक नया चक्र चला है। धन वर्षा कर बिहार का चुनाव ज्वलंत उदाहरण है जहां एक करोड़ 20 लाख महिलाओं को दस- दस हजार रुपए देकर बिहार का चुनाव भारी मतों से जीता गया। यही धन अगर सुनियोजित तरीके से महिलाओं की उत्तम कौशल को बढ़ावा देने में खर्च किया जाता तो देश की तस्वीर बदल सकती है। लेकिन दुर्भाग्य से हम कॉर्पोरेट मानसिकता से ऊपर उठकर नारी के आर्थिक पराक्रम को बढ़ावा देने की तरफ नहीं सोच रहे हैं।
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन सही थे जब उन्होंने कहा था कि -
‘भीड़ के साथ चलने वाली महिलाएं भीड़ से आगे नहीं बढ़ पाती हैं। जो महिलाएं अपनी राह पर अकेले चलती है वह उस मुकाम तक पहुंचती है जहां पहले कोई नहीं पहुंचा।’

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