परहित सरिस धरम नहीं भाई!

परहित सरिस धरम नहीं भाई!

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी की दो पंक्तियों में धर्म की जो परिभाषा दी गई है, वह न सिर्फ बेजोड़ है बल्कि मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उससे सटीक परिभाषा किसी पुस्तक या धार्मिक ग्रंथ में नहीं है। सभी धर्मों में भिन्नता है, एवं उनमें धर्म अलग-अलग परिभाषित है। आदि युग में शास्त्रार्थ की परम्परा थी। विद्वात्जनों में धर्म के विभिन्न आयामों को लेकर बहस होती थी। इसीसे स्पष्ट है कि विद्वानों में भी विभिन्न मत थे। हर पंडित अपने को श्रेष्ठ साबित करता था। आज भी कई धर्माचार्य अपने को सही साबित करने के लिए शास्त्रों के नियम अधिनियमों का उल्लेख करते हैं। यह सनातन सत्य है कि धार्मिक मामलों में हमारे धुरंधर भी एकमत नहीं थे। मैं समझता हूं कि यह हमारे पुरातन समाज का उजला पक्ष है। भारतीय संस्कृति और संस्कार के बारे में किसी एक के मत को ब्रह्मवाक्य नहीं माना जा सकता। इन्हीं विभिन्नताओं के चलते धर्म की शाखाएं और अप शाखाएं पनपती गई एवं सभी को मानने एवं जानने वाले लोग आज भी बहस करते हैं। 


भारतीय संत परंपरा की यह खूबी रही है कि उसने किसी एक दृष्टि को नहीं अपनाया हां, उनमें समन्वय करने का प्रयास किया जाता रहा है। इसीलिए हमारे यहां कहा जाता है सबका मालिक एक एवं विभिन्न मतों को हम एक गुलदस्ते का रूप मानते हैं जहां अलग-अलग तरह के फूल होते हैं उनके रंग और कलेवर भी भिन्न है किंतु वह एक दस्ते में बंधे रहते हैं।

चार सौ साल पहले रचित रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने एक ऐसी परिभाषा की सृष्टि की जिस पर कोई भी असहमत नहीं है। किंतु व्यवहार में स्थिति बहुत अलग-अलग है। गोस्वामी जी की चौपाई श्रवण सुख प्रदान करती है एवं एक ऐसा आदर्श परोसती है जिसमें दुनिया के सभी धर्म का सार है। 

आज के भौतिक युग में राम की स्तुति तो बहुत हो रही है। राम के भक्तों का भी सैलाब है। राम मंदिर की कहानी मैं नहीं दोहराना चाहता, सभी प्रकरण से पाठक अभिज्ञ हैं। राम मंदिर न सिर्फ एक विशालकाय और भव्य मंदिर है बल्कि कारीगरी में भी वह देश के श्रेष्ठ स्थलों में एक है। राम मंदिर अभी पूरा बना नहीं है रात दिन काम चल रहा है। नक्काशी का अद्भुत नमूना है। भारत के ऐतिहासिक स्थलों एवं धर्म स्थान से ज्यादा अद्भुत नहीं तो किसी से काम भी नहीं है। मंदिर के उद्घाटन हुए 10 महीने के लगभग हो गए पर भक्तों का रेला चल रहा है। अधिकतर लोग ग्रामीण हंै जिसको यहां आकर बड़ी तृप्ति महसूस होती है। मंदिर भव्य भी है और हमारी आस्था की प्रतिमूर्ति भी है। लेकिन बाबा तुलसी की परिभाषा में कहीं भी यह बहुचर्चित बहू विवादित एवं बहु प्रचारित मंदिर पर फिट नहीं बैठती। परहित का कोई प्रतिबिंब या प्रतीक भी नहीं है। आसपास कई धर्मशाला हंै गेस्ट हाउस एवं महंगी होटलें खुल गई है जो अभी तो सिर्फ निवेश कर रही है इस उम्मीद में कि कभी ना कभी यहां धार्मिक पर्यटन से बड़ी कमाई होगी यानि कि -

यही आश अटक्यों रहे, 

अलि गुलाब के मूल

हाई है फेरि बसंत ऋतु 

इन डारन वे फूल 

उनका फलाफल भी सही है कि अयोध्या यानि राम की नगरी में सिर्फ संतों का नहीं बल्कि कुबेरों का भी डेरा बनेगा और महाजन का पैसा फलेगा फूलेगा। मेरे कुछ परिचितों ने भी वहां एक फाइव स्टार धर्मशाला बनाने का बीड़ा उठाया है जिसका निर्माण दो साल में पूरा होगा। इसी तरह वहां कई बड़े औद्योगिक घरानों के गेस्ट हाउस भी बन रहे हैं।

तुलसीदास की चौपाई की अंतर्रात्मा इस धर्म नगरी में आप खोजते रह जाएंगे। अयोध्या की बात दर किनार हमारी सार्वजनिक सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की प्रवृत्तियां क्रमश: कम होती जा रही है। पहले से धन बढ़ा है, जो धनी है, उनपर लक्ष्मी की कृपा बरस रही है। पहले से करोड़पतियों की संख्या 50 गुना बढ़ी है किंतु अभावग्रस्त गरीब या उपेक्षित लोगों की सेवा नगरण्य हो गई है। चिकित्सा एवं स्वास्थ्य क्षेत्र को ही लें। कोलकाता, मुंबई, दिल्ली व अन्य शहरों में अस्पतालों की संख्या बेशुमार बढ़़ी है किंतु रोगियों का कम पैसे में उपचार हो सके ऐसे अस्पताल या तो बंद हो गए हैं या फिर बंदी के कगार पर हैं। जो सार्वजनिक अस्पताल हैं उनके अच्छे डॉक्टर नहीं है। डॉक्टर बड़े निजी अस्पतालों में कार्य करना चाहते हैं जहां उनका मोटी कमाई होती है। कोलकाता में तो चिकित्सा का स्तर गिरा है। दक्षिण भारत में फिर भी स्थिति बेहतर है जिसकी वजह से काफी संख्या में कोलकाता से मरीज वहीं इलाज के लिए जाते हैं। गांवों की स्थिति तो राम भरोसे है। शिक्षा के क्षेत्र में भी वही स्थिति है। सरकारी स्कूलों में ना उपयुक्त शिक्षक हंै ना ही वहां पढ़ाई का स्तर है। कुछ मजबूर छात्र वहां पढ़ते हैं क्योंकि उनके अभिभावकों के पास बड़ी स्कूलों में पढ़ाने का खर्च वहन करने की हैसियत नहीं है। इस सच्चाई से सभी वाकिफ हं।ै आज से 70-80 वर्ष पहले समाज के धनी वर्ग ने शिक्षा के मंदिर खोले थे उनकी स्थिति अब दयनीय है। नामधारी स्कूलों में दाखिले के लिए या तो मोटी ररकम मांगी जाती है या किसी बड़े नेता अथवा बाहुबली की सिफारिश।

शिक्षा, चिकित्सा, आवास क्षेत्रों में अब जनहित के कार्य नगण्य हैं। महंगी शिक्षा, चिकित्सा और आवास के कारण मध्य और निम्न मध्यम श्रेणी का मेरुदंड प्राय: टूट गया है। देश में स्वतंत्रता संग्राम का लक्ष्य था आम आदमी की बेहतर जिंदगी लेकिन यह सपना आज भी सपना ही है। समाज के पास पैसा पहले से कई गुना बढ़ा है। विवाह शादियों, जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगांठ जैसे सामाजिक उपक्रमों में पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। धर्मशालाएं तो प्राय: बंद हो चुकी हैं। कुछ पांच सितारा धर्मशालाएं इतनी महंगी हैं कि आम आदमी को कोई राहत नहीं मिलती है। माध्यम श्रेणी में दिखावे की बीमारी नासूर बन गई है। पारिवारिक शांति दुर्लभ है। जहां पैसा बरसता है वहां पारिवारिक विघटन व टूटते रिश्तों की कहानी रोज सुनते हैं। अदालतें भी पारिवारिक झगड़ों की पंचायत बन गई है। आम आदमी के लिए राहत की बात विरले ही सोचते हैं। कोलकाता का ही उदाहरण लीजिए। यहां पहले एक संस्था पानी की गुमटियां चलती थी जो संस्था में अर्थाभाव के कारण बंद हो गई। दो वर्ष पहले एक प्रतिष्ठित घराने ने शीतल जल की गुमटियां शुरू कर जन सेवा का उदाहरण रखा। दुर्भाग्य से पिछली गर्मी के दिनों देखा गया कि उन गुमटियों में साहब का साइन बोर्ड चल रहा है किंतु जल सेवा बंद हो गई है। सरकार और समाज ने उनको बहुत प्रतिष्ठा दी पर उन्होंने उसका जो सिला दिया वह सबके सामने है। मजे की बात यह है कि इस पर समाज में कोई रोष या प्रतिवाद नहीं है।

खैर, सच्ची तस्वीर सामने रखना हमारा दायित्व है वह हमने निभाया है। 

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