चुनावग्रस्त बिहार का सफरनामा
आज से लगभग 75 साल पहले दो बीघा जमीन हिंदी फिल्म रिलीज हुई थी। फिल्म का कथानक था कि एक नवयुवक जिसकी बिहार के अपने गांव में दो बीघा जमीन गिरवी थी। कर्ज नहीं चुकाने के कारण जमीन पर जमींदार का कब्जा हो जाएगा, इसलिए वह गरीब नवयुवक कोलकाता आया और यहां रिक्शा चलाने लग गया ताकि पैसे को जोडक़र वह अपनी जमीन कर्ज से मुक्त करा ले। रात-दिन हाथ रिक्शा चलाकर कई साल की जी तोड़ मेहनत कर वह वापस गांव गया। जमीन तो मुक्त कर ली किंतु कोलकाता से वह साथ में टीबी की बीमारी ले गया और शेष जीवन गांव में बीमारी भोगता रहा। बिहार के भूमि पुत्रों की यही कहानी आज भी है। वह हट्टे - कट्टे गांव देहात से आते हैं, मेहनत- मजूरी करके माथे पर मनों बोझ ढोते - ढोते दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। गांव में उनके बच्चे फटी हुई गंजी, कच्छे में कडक़ सर्दी और झुलसा देने वाली गर्मी झेलते फुटपाथ के किनारे रिक्शे या ठेले पर ही रात बिता देते हैं।
सने हुए आटे के साथ मिर्च प्याज का निवाला मुश्किल से नसीब होता है। उनके बाल बच्चे पढऩे की बजाय गलियों में भीख मांगते हैं। बिहार का लेबर कोलकाता और आसपास की जूट मिलों में बड़ी संख्या में काम करते हैं। प्राय: जूट मिलें सात-आठ महीने से ज्यादा काम नहीं करती। शेष चार महीने मजुरों को धूल फांककर गुजारना पड़ता है। वैसे पाट को ‘गोल्डन फाइबर’ कहा जाता है। इस सोने के धागे से पैकेजिंग के बोरे बनाकर उनसे अन्न, चीनी, मशीनरी पार्ट्स वगैरह-वगैरह मिल से मार्केट तक पहुंचाई जाती है।
मैंने अंग्रेजी के एक बड़े अखबार में कुछ वर्ष पहले एक खबर पढ़ी थी। खबर के अनुसार जब जूट मिलें बंद होती है तो निकट की रेड लाइट एरिया में देह शोषण का कारोबार कम से कम 10 ' बढ़ जाता है।
जूट मिल एक ऐसा उद्योग है जो कभी साल भर नहीं चलता। मालिक को दो-चार महीने बंद करने ही पड़ते हैं। कच्चा जूट (पाट) को सस्ता बिकवाने के लिए जूट मिल मालिक जब कारखाना बंद करता है तो परिणामस्वरुप पाट सस्ता हो जाता है। इस उद्योग से जुड़े हुए लोग यह अच्छी तरह जानते हैं। बा-मुलायजा जूट मिल प्रबंधन, लेबर लीडर एवं सरकारी अधिकारी के बीच एक अघोषित सूझबूझ होती है कि जूट मिल कितने समय तक बंद रखी जाए। जूट मिल बंद होने के कारण कच्चे जूट का भाव गिर जाता है, जिसका सीधा नुकसान पाट उपजाने वाले काश्तगारों को भोगना पड़ता है। किसान, मजदूर दोनों की कीमत पर जूट मिलों की चांदी कटती है। यह व्यवस्था लंबे समय से चल रही है।
मैंने जूट मिलों की चर्चा इसलिए भी की है क्योंकि बिहार का मजदूर बड़ी संख्या में इन जूट मिलों में खपता है। इससे उनका जीवन भर का नाता है। मैंने पहले भी कई बार इस बात का उल्लेख किया है कि बंगाल को समृद्ध करने में बंगाली का दिमाग, मारवाड़ी की उद्यमशीलता और बिहार का श्रम तीनों का अहम् अवदान है। इसमें एक कड़ी भी खिसकी तो बंगाल बैक फुट पर चला जाएगा।
अभी बिहार में चुनाव का शोर है। सभी पार्टी के नेताओं का वादा है कि वह बिहारी का पलायन रोक देंगे लेकिन किसी भी पार्टी ने इसका सटीक रोड मैप नहीं बताया है। क्या बिहार में नए कारखाने खुलेंगे। बिहार के सभी निजी चीनी मीलें बंद है। किसी जमाने में मॉरीशस जो दक्षिण अफ्रीका का ब्रटिश कॉलोनी था बिहार से मजदूर लाकर अपने गन्ने के खेतों की फसल कटवाता था। मैं पांच वर्ष पहले मॉरीशस गया था। जहां कभी बिहार के श्रमिकों ने आंसू के घूंट पीकर श्रमदान किया और भीषण अमानवीय अत्याचार झेलकर मॉरीशस को आबाद किया। आज मॉरीशस में आदमी कम और गाडिय़ां ज्यादा है। भारत में बिहार श्रमिक को मनरेगा में कुछ राहत दी और पलायन में कुछ कमी आई तो कोलकाता शहर में घरों में काम करनेवालों की किल्लत हो गई।
बिहार अगर पुराने इतिहास को खंगालेें तो पाएंगे गांधी का सत्याग्रह बिहार के चंपारण से शुरू हुआ था और बुद्ध, महावीर की यह तपोभूमि रही है। पारसी टाटा ने यहीं पर स्टील बनाना शुरू किया। यहां मैं इस बात की चर्चा करना भी जरूरी समझता हूं कि देश में सबसे ज्यादा रेल मंत्री बिहार ने दिए हैं। लेकिन यह बात भी सत्य है कि बिहार के लोगों के लिए न्यूनतम रेल सेवा उपलब्ध नहीं है। इस राज्य में लोकल ट्रेन नहीं के बराबर है। नतीजा यह होता है कि बिहारी मजदूर ट्रेन की छत पर बैठकर जाता है। ट्रेनों में खिड़कियों से उसे डब्बे के अंदर घुसना पड़ता है। बिहार के छात्र जब पढऩे जाते हैं ट्रेनों में वह बैठ नहीं पाते हैं। बिहार का युवा ट्रेनों के कमी से बौखला कर उच्श्रृंखलता भी कर बैठता है। उनका गुस्सा निर्दोष यात्रियों पर उतरता है। पहले हम जब राजस्थान की तरफ जाते थे बिहार आते ही यात्री सहम जाते थे कि बिहार के लोगों की बेदखली बर्दाश्त करनी होगी। लेकिन इसके कारणों में लोग नहीं जाना चाहते। छठ पूजा, श्रावण मास के कांवडय़िों की बड़ी संख्या धार्मिक उपक्रमों के लिए निकलते हैं किंतु उनके दुखों एवं आभाव का पहाड़ उठाना पड़ता है। बिहारी अप्रिय हो जाता है और लोग बिहार के प्रति असहज हो जाते हैं।
चुनाव में बिहार के जातिवाद को बहुत कोसा जाता रहा है। आम धारणा है कि बिहार में वोट भी जाति के आधार पर दिए जाते हैं। बहुत हद तक यह बात सही है कि बिहार अपनी जाति को वोट देना चाहता है किंतु यह बात भी उतनी ही सही है कि बाहर के कई दिग्गज राजनीतिक नेताओं ने बिहार में ही आकर चुनाव लड़ा और वहां से जीते भी हैं। मधु लिम्ये, जॉर्ज फर्नांडिस महाराष्ट्र के होते हुए भी बिहार में चुनाव लडक़र संसद में गए। पंजाब के इंद्र कुमार गुजराल बिहार से राज्यसभा में गए। भारत का पहला राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद बिहार के ही हैं। लेकिन बिहार में अस्पताल एवं शिक्षा के साथ स्कूलों का बड़ा अभाव है। शिक्षा नहीं के बराबर है। धर्म और जाति के जाल में फंसे हुए बिहार को निकट भविष्य में कोई राहत मिलती नजर नहीं आती।
इस बार बिहार की गरीब महिलाओं को दस-दस हजार रुपए देकर नीतीश कुमार ने राजनीतिक फायदा उठाने की पूरी कोशिश भी की है किंतु नीतीश अपने दल बदल के छलावा से अपनी साख गंवा बैठे हैं। खैर, बिहार इस बार चुनाव में खुद कटघरे में खड़ा है। जंगल राज की दुहाई देकर बिहार के लोगों में भय पैदा करने की चेष्टा भी चल रही है। देखते हैं 14 नवम्बर को बिहार का ऊँट किस करवट बैठेगा?

अत्यंत विचारणीय आलेख। बिहार की सामाजिक एवं राजनीतिक दुर्दशाओं पर गहन चिंतन एवं विश्लेषण करने के लिए प्रेरित कर डालने वाला शब्द-चित्रण।
ReplyDelete