चुनाव जीतने की रामबाण दवाओं की प्रयोगशाला बन गया है बिहार
बिहार का चुनाव इससे पहले कभी इतना चर्चित नहीं हुआ। इस प्रांत में सत्ता कई बार बदली। कभी कांग्रेस के वरिष्ठ श्री बाबू और कभी कर्पूरी ठाकुर जैसा एक समाजवादी सन्तपुरुष इसका मुखिया रहा है। जयप्रकाश नारायण इसी धरती की देन है और गांधी ने भी अपना स्वतंत्रता संग्राम इसी धरती के टुकड़े चम्पारण से शुरू किया था। बिहार पर जातीय कट्टरता हावी रही और चुनाव के परिपेक्ष में जब बिहार की बात चलती है तो यही कहा जाता है कि वहां जातीय समीकरण जिसके पक्ष में होगा वही बाजी मारेगा। लेकिन बाहर के कई नेता जैसे समाजवादी मधु लिमये से लेकर जार्ज फर्नांडिस, प्रखर बुद्धिजीवी इन्द्रकुमार गुजराल इसी बिहार से संसद में गये। स्वयं नीतीश कुमार जाति से कुर्मी हैं, जिसकी जनसंख्या बिहार का कुल 3 प्रतिशत हैं और राज्य के 15 वर्ष से मुखिया हैं।
इस बार बिहार चुनाव में एसआईआर (सर) कितना प्रभावी होता है यह तो समय ही बतायेगा किन्तु इस प्रांत में इस बार कई चुनावी प्रयोग हो रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भले ही अल्पमत वाले मुख्यमंत्री हों पर उनकी राजनीति में प्रखरता से सभी वाकिफ हैं। चार बार पलटी मारकर भी नीतीश पुन: मुख्यमंत्री पद के तगड़े दावेदार हैं और उनके बारे में अब भी संशय बना हुआ है कि नीतीश बाबू अंत में कौन से रंग का गुल खिलायेंगे। भले ही वे इन दिनों अपनी बढ़ती उम्रजनित बीमारियों से डगमगा रहे हैं पर खचाखच भरी विधानसभा में सभी पार्टियों की महिला सदस्यों को यह बताकर शर्मिन्दा कर दिया कि कम बच्चे पैदा करने के लिये उन्हें किस तरह से संयम बरतना चाहिये। आमतौर पर जो परामर्श बहुत गुपचुप दिया जाता है उसको विधानसभा में सार्वजनिक रूप से कह कर लोगों को आश्चर्य में डाल दिया। यही वह राज्य है जहां मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को जब जेल जाने की नौबत आयी तो उन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि पत्नी से ज्यादा भरोसेमंद कोई नहीं होता है। राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाकर सारी दुनिया को पत्नी भरोसे की निशानी दे डाली। और यह प्रयोग बिलकुल सही साबित हुआ क्योंकि बगल के झारखंड प्रांत में मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने गलती से चम्पई सोरेन को मुख्यमंत्री बनाकर खतरा मोल लिया और बड़ी मुश्किल से उस संकट से उबरे। उस वक्त उनको सलाह दी गई थी कि वे भी अपनी पत्नी कल्पना को मुख्यमंत्री बना दें। पर वे नहीं माने और बाद में चम्पई से जब उन्होंने गद्दी वापस मांगी तो उस वरिष्ठ नेता ने अंगूठा दिखा गया।
हमारे देश में चुनाव के पहले रेवड़ी बांटना अब बॉक्स ऑफिस हिट गेम बन गया है। सभी पार्टी इस खेल के खिलाड़ी बने हैं। इस मामले में कमोबेश सभी पार्टी के लोग एक हैं कि वोटरों को रिझाने के लिए चुनाव के पहले सौगात बांटी जाये। बड़े-बड़े प्रोजेक्ट की घोषणा की जाती है। राज्य को देश का नम्बर वन राज्य बनाने के लिये ताबड़तोड़ कोशिश ठीक चुनाव के पहले गर्जन तर्जन के साथ की जाती है। हमारे यहां चुनाव में यह सर्वदलीय रूचीकृत ट्रिक बन गई है।
लेकिन बिहार के चुनाव में पांच बार मुख्यमंत्री नीतीश ने नगद रुपये बांट कर सभी चुनावी ट्रिक को पीछे छोडक़र हैट्रिक बनाई। 1 करोड़ महिलाओं को दस दस हजार रुपये पहुंचाकर नीतीश ने ऐसा चुनावी दांव मारा कि राजनीतिक बाहुबलियों को दांत तले अंगुली दबानी पड़ी। और खास बात यह कि इसमें कोई बिचौलिया नहीं था। राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्री काल में कहा था कि एक रुपये में मात्र 17 पैसा ही लाभार्थी साधारण व्यक्ति तक पहुंच पाता है। बाकी का 83 पैसा कई बिचौलिये बांट लेते हैं। किन्तु महिलाओं में लाभार्थ दस हजार रुपये में एक पैसा भी इधर उधर नहीं हुआ। पूरी रकम उनके हाथ में पहुंची है। नीतीश का यह प्रकल्प बेजोड़ था और हमारी भ्रष्ट प्रशासनिक मशीनरी ने कहीं भी इस बंटवारे में मुट्ठी गर्म नहीं की। विपक्ष के लिये तब तक देर हो चुकी थी किन्तु भागते भूत की लंगोटी भली। विपक्ष के नेता तेजस्वी ने हर परिवार के एक युवक को नौकरी देने का वादा कर किसी तरह बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश की। हां यह बात और है कि बिहार में अगले मुख्यमंत्री के लिये हुये सर्वे में कुल मिलाकर तेजस्वी अपनी बढ़त बनाये हुए हैं।
बिहार में प्रशान्त किशोर अपनी डफली बजा रहे हैं। अभी तक पंसदीदा पार्टियों को चुनाव जिताने का कॉन्ट्रैक्ट लेने वाले पी.के. इस बार खुद चुनावी मझधार में फंसे हुए दिखाई दे रहे हैं। प्रशांत किशोर के पास धन बल की कमी नहीं है अत: वे इधर उधर जो विक्षुब्ध दिखाई देता है उसको ‘चल संन्यासी मंदिर में’ की तर्ज पर अपनी टोली में लाने का प्रयास कर रहे हैं।
एसआईआर का फलादेश और नीतीश का ‘नोट फॉर वोट’ इन दोनों की प्रयोगशाला बन गया है बिहार। भगवान बुद्ध और महावीर की तपोभूमि, गांधी के स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम पड़ाव बिहार जिसने भारत को पहला राष्ट्रपति दिया, इतने ‘माइलस्टोन’, वाली पुण्य भूमि भारत को कौन सी दिशा दिखायेगा, यह इस बार का चुनाव परिणाम तय करेगा।
बहरहाल बिहार में रेवड़ी बांटने से भी चार कदम आगे नगद वितरण इस चुनाव में जदयू-भाजपा की संभावित जीत पर हावी हो गया है। किसी ने इसका विरोध नहीं किया। किसी को इससे आक्रोश नहीं हुआ। भारतीय लोकतंत्र को खरीदने की फुसफुसाहट भी नहीं हुई। बल्कि कुछ लोग यह सोचते हैं कि बिहार का यह चुनाव सारी नैतिक परिपाटियों को गर्त में मिलाकर एक नयी प्रवृत्ति को जन्म दे रहा है। भारत की नारी शक्ति भी इसके विरुद्ध होठ सीये हुए हैं। किसी शायर ने ठीक ही लिखा है-
मुफ्त की पीते थे मय
और कहते थे कि रंग लायेगी
हमारी फाकामस्ती एक दिन।

ऐतिहासिक पतिप्रेक्ष्य में जमीनी सच्चाई का विवरण.
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ReplyDelete"जहाँ पहाड़ होता है वही शिखर और खाई भी होती है" , वही हाल बिहार का है , पुर्ब में महानतम ब्यक्तियों ने वहाँ जन्म लिया और आज सत्ता लोलुप ,लोभी , अमर्यादित , पथभरष्ट लोंगो का भरमार है ,
Deleteयह चुनाव सत्य में राजनीती का प्रयोगशाला बन गया है , जनता का हित छोड़कर सभी दल अपने अपने फायदे के लिए जोर आजमाईश कर रहा है
प्रासंगिक और रोचक आलेख। इतिहास गवाह है बिहार चुनाव की राजनीति बहुत ही जटिल और बहुपक्षीय होती है। इसमें जातीय समीकरण, गठबंधन की राजनीति और विभिन्न संस्थाओं की भूमिका भी अहम् होती है।यहाँ राजनीति में जातीय समीकरण, गठबंधन की रणनीति और युवा वर्ग की भागीदारी का विशेष महत्व होता है।यह कहना अभी ठीक होगा कि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में कोई पक्ष पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता — स्थिति बढ़ती प्रतिस्पर्धा की है। wait and watch...😊
ReplyDeleteसटीक विशेषण बिहार पर!!👌🌹
ReplyDeleteबेबाक आंकलन, चुनावपूर्व सर्वे की आंधियों से महफूज संपादकीय
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