आइए निडर साहसी सीता बनें!
आज यानी शनिवार को बनारस में हूं, पूरा शहर पानी पानी हो गया है दो दिन की लगातार वर्षा के फलस्वरूप। कल अयोध्या जाना है जहां भगवान राम का भव्य मंदिर बनाया गया है बिना सीता के। कुछ दिन पहले सुसंस्कृति परिहार जी का आया एक आलेख मिला था जिसे मैं हू बहू पाठकों के सामने परोस रहा हंू। यह समझने की बात है पाठक ध्यान देंगे। - संपादक
आजकल नवरात्रि पर्व चल रहा है। नौ देवियों की पूजा का सिलसिला। फिर विजयादशमी होगी। राम का जय जय कार होगा रावण परास्त होगा। पर सीता मां की चर्चा कहीं नहीं होगी। आईए हम सीता जी को अच्छे से समझने की चेष्टा करें। तथा उन्हें अपना आदर्श बनाएं।
हमारे समाज में अमूनन जिस सीता की चर्चा है या जिसका आदर्श महिलाओ के लिये प्रेरणास्पद माना जाता है वह तुलसीकृत रामचरित मानस में वर्णित सीता हैं लेकिन कपोल कल्पनाओं से हटकर हम बाल्मीकि रामायण का रूख करें तो सीता यानि जानकी एक सीधी साधी मूक, पति का आंख मूंदकर अनुकरण करने वाली पत्नि नहीं हैं बल्कि जागरूक, साहसी, दृढ़, न्याय प्रिय, निर्भीक,तर्क-वितर्क करके विरोध दर्ज कराने वाली, जबरदस्त मनोबल से भरपूर, उच्च संस्कार से संम्पन्न,मुखर, स्वभिमानी एवं शालीनता से भरपूर पति की प्रगति में सहयोगी, उस युग की महत्वपूर्ण नारी थीं।
यही वजह है कि, बाल्मीकि ने रामायण को राम का अयन नहीं बल्कि रामा यानि सीता का अयन मानते हुये अपनी पुस्तक का नाम रामायण दिया। रामायण में वे सीता को प्रमुख मानते हुए सीता: पतये नम: कहते हैं। संभव है लोकजीवन में सीता राम अभिवादन तभी से शुरू हुआ हो सकता है। लोकजीवन का विवेक भी सीता को राम से पूर्व ही स्वीकारता है। लोकजीवन का यही विवेक विभीषण को जिसका राजतिलक स्वत: राम ने किया तथा जिसे तुलसीदास रामभक्त मानते हैं उसे घर का भेदी लंका ढाये कहकर मीरजाफर और जयचंद के बगल में खड़ा कर देता है। यही विवेक लोक कथाओं और लोकगीतों में सीता को राम से बड़ी शक्ति घोषित करता है। महारावण के रक्त बीज से जब राम परास्त होते हैं तो उन्हें सीता का स्मरण करना पड़ता है वे महाकालिका के रूप में प्रकट होकर महारावण का वध कर खून को अपने खप्पर में भरकर पी जाती हैं तब कहीं जाकर महारावण का अंत संभव हो पाता है। पस्त परे रावन सें रघुवर/याद करें सीता खों रघुवर/चली करन कल्याण हो महाकालीकालिका। लोकगीतों में सीता का ज़्यादा प्रशस्तिगान भरपूर मिलता है।
कहते हैं, जनक ने सीता को बांये हाथ से शिव जी का भारी धनुष वाण उठाते देख लिया था तभी उन्होंने यह प्रतिज्ञा की थी कि जो व्यक्ति इस धनुष को उठायेगा उसी से सीता का वरण होगा ।वह धनुष साधारण नहीं था। धनुष जिसके बारे में कहा जाता है भूप सहस्त्र दस बारंबारा/लगे उठावन टरै ना टारा। ये दोनों प्रसंग निश्चित तौर पर सीता को अद्वितीय शक्तिशालिनी सिद्ध करते हैं।
बाल्मीकि रामायण में जानकी पहली बार तब बोलती हैं जब वे वन गमन के अवसर पर राम के साथ जाने की अनुमति चाहती हैं। पति के मुख पर दु:ख की छाया देखने पर वे कहती हैं, प्रभु आपको क्या हो गया! वे वनवास की खबर से जरा भी उदास नहीं होतीं और राम की देखभाल, रास्ते की बाधाओं को दूर करने तथा उन्हें सब तरह से प्रसन्न रखने के लिये राम के साथ वन जाने की उत्कंठा जाहिर करतीं हैं। जब राम वन की कठिनाईयों को उन्हें विस्तार से बताकर अपने साथ ले जाने में अनिच्छा व्यक्त करते हैं तब वह राम को सहज प्रसन्नता के साथ, सहसा यह भरोसा दिलातीं हैं कि वन में वे उन पर किसी तरह का भार नहीं बनेगी। बहुत समझाने पर भी जब राम उनकी बात नहीं मानते तब वे अकाट्य तर्क देते हुये कहतीं हैं, यदि मेरे पिता को पता होता कि राम इतने डरपोंक हैं, तो वे आपसे मेरा विवाह नहीं करते। इस बात पर राम चुप हो जाते हैं और फिर उन्हें वन ले जाने सहमत भी। स्पष्ट है ,जानकी कम बोलने पर भी, अवसर पडऩे पर विनम्रता के साथ दृढ़ता दिखाने की क्षमता रखतीं हैं।
जानकी अपने सभी कामों के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना से युक्त होने पर भी राम का अनुकरण नहीं करतीं ।उनका अपना व्यक्तित्व ही है कि राम के कामों पर शंका उत्पन्न होने पर उसे व्यक्त करने में संकोच नहीं करता उदाहरण स्वरूप जब राम दंडकारण्य से सभी दानवों को नष्ट करने की प्रतिज्ञा करते हैं तो वे बड़ी विनम्रता और शिष्टता से पूछतीं हैं कि ऐसे निरीह प्राणियों को जो उन्हें हानि नहीं पहुंचा रहे हैं नष्ट करना कहाँ तक न्याय संगत है? सीता वनवास के समय अपनी सुरक्षा के विषय में नहीं वरन् अपने पति राम तथा उनके भाई लखन के लिये चितित रहती हैं क्योंकि उन्हें उनके कारण कष्ट उठाना पड़ रहा है। दंडक वन में सबसे पहले उनको विराध नामक राक्षस का सामना करना पड़ता है। यह राक्षस पहले जानकी को उठाकर ले जाता है फिर राम लखन को विरोधी पाकर जानकी को तो छोड़ देता है पर दोनों राजकुमारों को ले जाने की कोशिश करता है। इस संकट के समय सीता उस राक्षस से अनुरोध करतीं हैं कि वह दोनों राजकुमारों को छोडक़र स्वयं उन्हें ले जाये। असामान्य मनोबल वाली सीता के सिवाय कोई महिला इस प्रकार की बात नहीं कह सकती है।
जानकी स्वभावत: निर्भीक है। जब रावण बुरे उद्देश्य से भेष बदलकर उनके पास आता है तो वे उसे सचमुच साधु मानकर उसके साथ उसी प्रकार का व्यवहार करती हैं। उसे आदर सहित कंदमूल भेंट करके अपने पति के लौट आने का कहतीं हैं ।जब रावण अपने को राम से श्रेष्ठ दिखाकर उन्हें प्रभावित करने की चेष्टा करता है तब भी वे उसे उचित उत्तर देने में संकोच नहीं करतीं तथा उस दुव्र्यवहार के परिणाम से सावधान करतीं हैं। वह बराबर उसे साधु शब्द से सम्बोधित करतीं हैं यह उनके उच्च संस्कार से सम्पन्न होना दर्शाता है।
अशोक वाटिका में हनुमान जब जानकी को देखते हैं तब जानकी की दृष्टि हनुमान पर नहीं पड़ती। जानकी की दृष्टि को अपनी ओर आकृष्ट करने में हनुमान को पन्द्रह सर्गों के अन्तराल की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इस अवधि में हनुमान की मानसिक दशा कैसी रही होगी। जब जानकी हनुमान को देख लेती हैं तब हनुमान सावधानीपूर्वक अपना परिचय देते हैं। विश्वास अर्जित कर लेने तथा यही जानकी है, जान लेने के बाद हनुमान उन्हें कंधे पर बैठाकर राम के पास ले जाने का प्रस्ताव रखते हैं। जानकी इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देतीं हैं और कहतीं हैं कि रावण जिस ढंग से उन्हें उठाकर ले आया है उसी तरह उनका यहाँ से भागना अनुचित है।उचित यही है कि राम, रावण का सामना करें। उन्हें सामथ्र्य और शालीनता से प्राप्त करें।
जानकी का सबसे सबसे बड़ा गुण यह है कि वे दूसरों का बुरा नहीं सोचतीं चाहे वह कितने ही बुरे विचारों वाला ही क्यों न हो? वे मानवीय अधिकारों की पैरवी करतीं हैं। राम के विषय में चिंतित होने पर लक्ष्मन के प्रति बोले गये, कठोर शब्दों के लिए बारबार प्राश्चित भी करती हैं। कभी वे अनुनय भी करतीं हैं कि यह दु:खद स्थिति उनके दुर्भाग्य और बुरे बर्ताव के कारण बनी है।दूसरे की गलतियों को भुलाकर उन्हें क्षमा करने वे सदैव तत्पर रहती हैं। राम जब सीता से ये कहते हैं कि चाहे जो कुछ भी हुआ हो लंका में एक वर्ष रहने के बाद मैं तुम्हें अपनाने और अयोध्या ले जाने तैयार नहीं हूं । मैने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। अब अपनी इच्छानुसार कहीं भी जाने के लिये तुम स्वतंत्र हो अपने पति की निर्मम और कठोर टिप्पणी की प्रतिक्रियास्वरूप राम के विलक्षण व्यवहार पर वह आश्चर्य प्रकट करतीं है और कहतीं है कि यदि आपको वास्तव में मेरी पवित्रता और चरित्र पर संदेह है तो हनुमान के माध्यम से यही क्यों नहीं कहला दिया इससे आप और मेरे लिए लडऩे वाले ये सारे लोग शारीरिक और मानसिक यातना से बच जाते। युद्ध पीडि़तों की वेदना का एहसास उनकी मानवीयता और सहृदयता का परिचायक है। वे राम से स्पष्ट रूप से कहतीं है कि आश्चर्य है, आप मुझमें केवल दुर्बलता,चंचलता तथा अवगुणों से पूर्ण एक साधारण स्त्री को ही देख पाये। वे उनकी दया के लिये प्रार्थना नहीं करतीं। वे इस धरती के सबसे पावन तत्व अग्नि से शरण मांगतीं हैं वे सोचतीं हैं कि जो कठोर वचन उनसे कहे गये,उससे अग्नि ज्यादा भयंकर नहीं हो सकती है।
वनवास के दौरान बाल्मीकि आश्रम में रहकर पुत्रों को जन्म देकर पालन करतीं हैं। जब राम के दरबार में पुत्रों सहित जातीं हैं तब भी दया की भीख नहीं मांगतीं ना ही राजाराम की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने देतीं हैं सिर्फ पृथ्वी मां से निर्भीक होकर अनुरोध करती हैं कि वह अपनी बेटी को शाश्वत शरण और शांति प्रदान करें और देखते ही देखते पृथ्वी में समा जाती हैं ।
कहना ना होगा, कि रामचरित मानस को यदि छोड़ दें तो मूल रामायण एवं लोकमानस में सीता का स्थान राम से कहीं ज्यादा ऊंचा है। यही वजह है कि वे अहिल्या, द्रौपदी, तारा, मंदोदरी के साथ हैं जो कि मानव संस्कृति के इतिहास की पांच महाकन्याओं में स्थान प्राप्त कर सकीं। इसीलिएबाल्मीकि ने स्वयं कहा है-सीताश्चरितम् महत्।

सीता की निडरता और साहस की अधिकारिणी आज की 'सीतायें' कैसे हों? यह एक जरूरी सवाल है और इस पर विचार होना चाहिए।
ReplyDeleteइसे इस तरह समझा जा सकता है।आज का समाज ना तो राम की कल्पना कर सकता है और ना राम राज्य की। इसीलिए सीता का संदर्भगत उपस्थित नकारात्मक है। वर्तमान के राम अपनी वास्तविक स्थिति से दूर होते चले गए हैं।अगर हम राम को एक सामान्य पुरुष के रूप में देखें तो इस दृष्टि से भी राम अवश्य ही मानव सभ्यता के एक महत्वपूर्ण दृष्टांत हैं जिन्होंने समस्त प्रकार के मोह का त्याग कर वन का जीवन ग्रहण किया परंतु वहीं दूसरी ओर सीता को अशोक वाटिका से ले आने के बाद उनकी अग्नि परीक्षा कराये और पुनः उनको छोड़ दिए जाने पर एक बड़ा विवाद भारतीय समाज में मौजूद है। यद्यपि हमारा लोकजीवन केवल उन्हीं भूमिकाओं और चरित्रों को याद रख पाता है जिसे वह सहजता से ग्रहण कर पता हैं और जहाँ उसके मानस को अतिरिक्त बोझ लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती। लोकजीवन का विराट समूहगत चेतन उसे राम की अवस्थिति पर अवश्य सोचने के लिए विवश करती है। इसीलिए तुलसीकृत राम भारतीय समाज के आदर्श बन पाए लेकिन सीता के संदर्भ में हम जितनी भी बातें लोकजीवन में पाते हैं उसमें कहीं ना कहीं दर्द और करुणा का भाव छिपा हुआ है। सीता के चरित्रगत निडरता, सहस और विलक्षण प्रतिभा को भारतीय समाज व्यवस्था में प्रमुखता के साथ दिखाने का कोई अवसर ही नहीं है क्योंकि वह स्त्री है और आज के बाजारीकरण और उदारीकरण के व्यामोह में फंसे समाज में 'सीता' अर्थात स्त्री, एक प्रकार से भारतीय समाज व्यवस्था के विरुद्ध है। आज स्त्री अपनी चेतना,अपनी बौद्धिकता, कार्य कुशलता और दक्षता से जितनी भी ऊंचाई पर पहुंच जाए उसे पुरुषों के समक्ष छोटा होकर ही रहना पड़ता है।अगर हम पारिवारिक जीवन की बात करें तो सीता जैसी निडर स्त्री या पुत्रवधू कितनों को स्वीकृत होगी यह एक जायज सा सवाल है जो भारतीय समाज व्यवस्था से पूछा जाना चाहिए सीता की निडरता केवल उसके अस्मिता की रक्षा का प्रश्न नहीं है बल्कि सीता की निरंतर अपने पति को सही रास्ते दिखाने का भी प्रश्न है। इसे हमारा सामाजिक जीवन व्यवस्था कितना स्वीकार पायेगा, यह प्रश्न भी उठता रहेगा।
ज्ञानवर्धक आलेख, इसे युवा पीढ़ी को पढ़ने और जानने की अत्यंत आवश्यकता
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