सरकारी स्कूल राम भरोसे

सरकारी स्कूल राम भरोसे

कुछ दिन पहले राजस्थान की किसी सरकारी स्कूल की छत गिर पड़ी और सुबह की प्रार्थना करते 8 बच्चे मर गए। राज्य के शिक्षा मंत्री ने इस दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। एक-दो दिन बाद इसकी चर्चा बंद हो गई। वैसे यह दुर्घटना नहीं थी क्योंकि स्कूल की जर्जर हालत के बारे में स्कूल प्रबंधन विभाग एवं संबंधित अधिकारियों को जानकारी दे दी गई थी। यहां से सुदूर राजस्थान के गांव की घटना का जिक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि पूरे देश में सरकारी स्कूलों की लगभग यही स्थिति है। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ी आबादी वाला प्रदेश है जिसे देश की धडक़न माना जाता है और दिल्ली की सत्ता इसी प्रांत से होकर गुजरती है। इस उत्तर प्रदेश जिसे उत्तम प्रदेश करने का दावा किया गया था में पांच हजार सरकारी स्कूल बंद कर देने की घोषणा स्वयं राज्य सरकार ने की। सरकारी स्कूलों को बंद करने के फरमान से बहुत से हाशिए के समुदाय के बच्चों का भविष्य खतरे में दिख रहा है। भारत में सरकारी विद्यालयों की दशा अत्यंत सोचनीय है। 


25 जुलाई को राजस्थान के झालावाड़ जिले के पिपलोदी गांव में प्राथमिक स्कूल की इमारत गिरने से 8 बच्चों की मौत हो गई थी। 

सरकारी स्कूलों में छात्र संख्या तो बढ़ रही है लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता में ह्रास होते होते अब रसातल पर बैठ गई है। इन स्कूलों में वे बच्चे ही पढ़ते हैं जिनके मां-बाप मजदूरी करते हैं एवं अपने बच्चों का सिर्फ इसलिए प्रवेश कराते हैं कि उनको छात्रवृत्ति (स्कॉलरशिप) मिलेगी। शहरी इलाकों में तो सरकारी स्कूलों की स्थिति अपेक्षाकृत कुछ अच्छी है पर ग्रामीण इलाकों में विद्यालयों में शिक्षा के लिए मूलभूत सुविधाओं की स्थिति दयनीय है। लड़कियां स्कूल में सुरक्षित नहीं है। उनके शौचालय की व्यवस्था अव्वल तो है ही नहीं अगर कहीं-कहीं है तो बहुत खराब है इसलिए माता-पिता उन्हें स्कूलों में नहीं भेजते।

सरकारी स्कूलों में बच्चे उपस्थित नहीं रहते क्योंकि माता पिता बच्चे का नाम लिखाकर उसे स्कूल भेजने की बजाय अपने साथ मजदूरी पर ले जाते हैं। यही नहीं कई बच्चे तो गलियों में भीख मांगने और कचरे से कुछ खाने की चीज बिनते दिखते हैं। 

राजनीतिज्ञों एवं नौकरशाहों का नजरिया ग्रामीण विद्यालय के बारे में निराशाजनक है। अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर पूरी शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर रही है। शिक्षा को निजी हाथों में देना इसका हल नहीं है। निजीकरण से शिक्षा महंगी होगी एवं गरीब बच्चे शिक्षा से वंचित होंगे। 

ग्रामीण बच्चों में स्वाभाविक रूप से खेलकूद का हुनर होता है। दौड़ (धावक) स्विमिंग, फुटबॉल जैसे खेलों में उनकी जन्मजात प्रतिभा है पर उनको प्रशिक्षित करने की कोई व्यवस्था नहीं है। उनके स्वास्थ्य जांच आदि के लिए भी उचित प्रबंध का अभाव है और फिर  बची खुची कसर इन क्षेत्रों की स्थानीय राजनीति भी किसी को आगे नहीं बढऩे देती। इस अभाव की पूर्ति हो जाए एवं राज्य व केंद्र सरकारी धन मुहैया कराए तो ग्राम भारत से विश्वस्तर के खिलाड़ी निकाल सकते हैं। लेकिन सरकारी अधिकारियों में इस मामले में कोई अभिरुचि नहीं है। ग्रामीण बालायें आगे नहीं आती है उनके शोषण होने का खतरा है।

2014 की ग्लोबल एजुकेशन रिपोर्ट में विश्व के 127 देश में भारत का स्थान 106 वां है। यद्यपि भारत विश्व की 10 सबसे तेज विकास करने वाली शक्तियों में शुमार है किंतु अभी भी लगभग 40' लोग अशिक्षित या अल्प शिक्षित हैं। स्वतंत्रता के 78 वर्ष बीत जाने के बाद भी आज भारत के सामने गरीबों को शिक्षित करने की चुनौती बनी हुई है। भारत जैसे देश में विकास का एकमात्र जरिया शिक्षा है। इसको आम आदमी तक पहुंचाने के लिए 2009 में आरटीआई (आई राइट टू एजुकेशन) का प्रावधान किया गया है। इसमें 6 से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई है। इसका मुख्य उद्देश्य पूरे भारत में शत प्रतिशत साक्षरता को प्राप्त करना है।

भारत में शिक्षा पर निजी क्षेत्र द्वारा 11' निवेश किया जाता है बाकी का 89' खर्च सरकार वहन करती है। एक ताजा सर्वे के अनुसार जो कि 13 राज्यों के 780 सरकारी स्कूलों में किया गया है, सरकारी स्कूलों की दैनिक स्थिति सामने आती है। सिर्फ 5' सरकारी स्कूलों में ही आरटीआई के अनुसार वर्णित 30' सरकारी विद्यालय में लड़कियों के लिए शौचाययों की सुविधा नहीं है जिस कारण से लड़कियां बड़ी मात्रा में स्कूल छोड़ रही हैं। 

2023 में मानव विकास मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष पूरे देश में पांचवी आते-आते करीब 23 लाख छात्र छात्राएं स्कूल छोड़ देते हैं। देश में करीब 20 करोड़ बच्चे प्रथम प्रारंभिक शिक्षा हासिल कर रहे हैं। शिक्षा अधिनियम (आरटीई), लागू हुए करीब 20 वर्ष हो गए हैं लेकिन अभी भी सरकारी स्कूलों की दशा में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हो रहा है। 

इस समय देश में करीब 13. 62 लाख प्राथमिक स्कूल है जिसमें 41 लाख शिक्षक मात्र हैं। करीब 2 लाख स्कूलों में 12 लाख से ज्यादा शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। देश में अभी भी करीब 1,800 विद्यालय पेड़ के नीचे या टेंटों में लग रहे हैं 25 हजार विद्यालयों में पक्के भवन नहीं हैं। 

देश का स्वतंत्रता संग्राम का दो मुख्य लक्ष्य था। सुलभ चिकित्सा एवं हर बच्चे को शिक्षा। दोनों ही लक्ष्य से हम कोसों दूर हैं। प्राय: सभी राज्यों में शिक्षा की भिक्षा नहीं मिलती है। गरीबी और लाचारी का आलम है।

देश की प्रगति का आधार ही लाचार और कुंठित है तो देश की प्रगति का लाभ मु_ी भर लोगों को ही मिल पाएगा। सबको शिक्षा या सर्व शिक्षा अभियान नारा ही बनकर रह गया है। 


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