हे भगवान!
देवभूमि उत्तराखंड बड़ी मुसीबत में है। हिमालय पर बादल फटने के बाद हुई प्रलयंकारी बारिश से पानी के साथ पत्थरों और मलबे का ऐसा सैलाब आया की बहुमंजिला इमारतें ताश के पत्ते की तरह ढह गई। हजारों लोग इस तबाही के चपेट में आ गए। धराली तो पूरा ही मलबे के नीचे दफन हो गया। बसा बसाया इलाका इस तरह नेस्तानाबूत हुआ कि बस्ती का नामो निशान ही मिट गया। काफी संख्या में लोगों की जान गई और बहुत लोग अभी भी लापता हैं। पत्थरों की शिलाओं के नीचे कितनों के प्राण गए इसका सटीक आकलन अभी हो नहीं पाया है। यहां तक की सेना का शिविर भी इस प्राकृतिक आपदा का शिकार हो गया जिसमें जेसीओ और आठ जवान लापता हैं।
विडंबना यह है की मात्र 39 सेकंड में ही एक बड़ी प्राकृतिक तबाही का मंजर दिखा और क्या होटल क्या मकान सब धराशाई होते चले गए। उत्तराखंड के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि धारली से सात किलोमीटर ऊपर सहस्त्रताल के पास मूसलाधार बारिश हुई। एक अनुमान के अनुसार 20 होटल और होम स्टे ढह गए। उत्तराखंड के 10 जिलों में तबाही का आलम देखा गया। राहत और बचाव कार्य को भी अंजाम देने में कई दिक्कतें हो रही हैं।
उत्तराखंड में तबाही की एक झलक।
प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली आदि स्थानों पर मूसलाधार वर्षा से किसी अनहोनी की आशंका से लोग रात भर सो नहीं पाए। प्रशासन ने बादल फटने की घटना से इनकार किया और भारी बारिश को तबाही की वजह करार दिया। सवाल यह उठता है कि इसका दोष बादल, बरसात या बाढ़ को दिया जाए? या यह भी देखा जाए की पहाड़ी नदी से सटाकर निर्माण क्यों किए गए या फिर यह सरकारी रिपोर्ट चेता रही थी कि उत्तराखंड के पहाड़ों का भूस्खलन का दायरा बढ़ता जा रहा है, तब संवेदनशील इलाकों में निर्माण के लिए पहाड़ों को गिराना क्या जरूरी है? मानसून है, तो फिर दुनिया के सबसे जिंदा पहाड़ पर यह सब तो होना ही था।
उत्तराखंड को हम देवभूमि कहते हैं क्योंकि हमारे अनेक तीर्थ स्थल केदारनाथ, बद्रीनाथ, ऋषिकेश, गंगोत्री, यमुनोत्री आदि सभी इसी प्रदेश में हैं जो कभी देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का हिस्सा होता था। आज देवभूमि आपदाओं की भूमि बन गई है। बारिश, भूस्खलन, बादल फटना, नदी का रुख बदल जाना, अब यह आम हो गया है। हर मानसून एक गांव बहा ले जाता है, हर बरसात कितनों के घर उजाड़ जाती है और हर नई लाशें गिनती है। लेकिन इसके बावजूद सरकारें चुप हैं। विरोधी दल भी खामोश हंै। योजनाएं गूंगी है और जनता बेबस। जिसे हम विकास कहते हैं दरअसल यह विनाश का पर्यायवाची बन गया है। पहाड़ों पर सडक़ बनाने के लिए डायनामाइट से विस्फोट कराए जाते हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई होती है। पूरी की पूरी पर्वत श्रृंखलाएं काटी जाती हैं ताकि टनल बन सके। चौड़ी सडक़ एवं जल परियोजनाएं बने लेकिन यह सब किस कीमत पर? प्रकृति की शांति और संतुलन को तोडक़र हम क्या साबित करना चाहते हैं? जो सडक़े सुरक्षा लानी चाहिए थीं वह अब मौत की राह बन गई है। जो टनल सुगमता का वादा करती थी वह अब आपदा का द्वार बन चुकी है।
इस देवभूमि में पूरे देश से हजारों तीर्थ यात्री अपनी आस्था को साकार करने एवं देव दर्शन के लिए यहां पहुंचते हैं। अब तीर्थ यात्री धर्म पालन के नाम पर पिकनिक करते नजर आते हैं। खाकर जूठे इधर-उधर बिखेर देते हैं। उपासना के नाम पर मौज मस्ती का आलम यह देवभूमि बन गई है। यही हाल पर्यटकों का है। पर्यटन के नाम पर उत्तराखंड का जिस तरह से दोहन किया जा रहा है वह अभूतपूर्व है। सैकड़ों गाडिय़ां, हजारों पर्यटक प्लास्टिक का पहाड़ ट्रैफिक की कतारें यह सब मिलकर उत्तराखंड का पर्यावरण पर ऐसा बोझ डाल रहे हैं जिससे अब पहाड़ बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। कभी यहां गर्मियों में भी पंखा नहीं चलता था अब अक्टूबर में भी लोग एसी चला रहे हैं। यह सिर्फ जलवायु परिवर्तन नहीं बल्कि एक चेतावनी है कि हमने अपनी सीमाएं पार कर दी है।
उत्तराखंड में बाहरी लोग भारी संख्या में आकर जमीन खरीद रहे हैं। घर बना रहे हैं, कालोनियां बसा रहे हैं। स्थानीय लोगों की जमीनों औने पौने दामों में छीनी जा रही है। संस्कृति खतरे में है। भाषा गुम हो रही है और पहचान मिट रही है।
विनाश का यह सिलसिला नियमों की कमी से नहीं नियत की कमी से है। हम भूल गए कि हिमालय सिर्फ बर्फ से नहीं बना वह आस्था से बना है, संतुलन से बना है। वहां तत्काल प्रभाव से नई निर्माण परियोजनाओं को रोकना होगा। पहाड़ों की सहनशीलता को विवेक से समझना होगा। पर्यटन पर अंकुश जरूरी होगी, वाहनों की सीमा करनी होगी। आज संकट ग्रामीण क्षेत्रों में कल शहर के रिहायशी इलाकों की चौखट पर होगा। सिर्फ कहने को देवभूमि नहीं बल्कि इसे उन करोड़ों की आस्थाओं का सम्मान करते हुए लोगों के रहने लायक भी बनाना होगा। अद्भुत धैर्य धारण करने वाली इस धरती का दोहन करने की जगह उसका सम्मान करना होगा।
इस भूखंड पर प्राकृतिक आपदा जब कहर बनकर टूटती है तो सब कुछ बह जाता है। इस विनाश लीला में भी बहुत से लोग आस्थाओं का छौंक लगाना नहीं भूलते। उनका यह मानना है कि यह प्रभु की लीला है कि गांव के गांव बह जाते हैं पर मंदिर का बाल बांका नहीं होता हालांकि इस बात में सच्चाई नहीं है। बहुत से मंदिर भी ढह गए हैं।मूर्तियां बह गई हैं। कुछ मंदिर बच भी गए हैं। विशेषकर जो समतल भूमि पर बने हैं। इस मामले में धर्मांधता की सोच भी बड़ी विचित्र है। क्या कभी ईश्वर अपनी रक्षा कर अपने बंदों का विनाश करेगा? यह सोचना ही अपने आप में अनास्था की पराकाष्ठा है। हमारी मान्यता है कि भगवान हमारी रक्षा करता है फिर रक्षक भक्षक कैसे बन सकता है? इस तरह की अराजक एवं विकृत सोच रखने वालों को इतिहास कभी माफ नहीं करेगा।
ए आसमां! तेरे खुदा से नहीं है खौफ
डरते हैं ऐ जमीन! तेरे आदमी से हम।
- जोश मलीहाबादी

एक जागरूक पत्रकार और अनुभवी संपादक के रूप में श्री विशंभर नेवर द्वारा व्यक्त ये विचार मानव समाज पर मंडराते खतरे से आगाह करते हैं। वास्तव में हिमालय के वे पहाड़ी अंचल अत्यंत नाज़ुक संतुलन पर निर्भर है जिसे हम पर्यटन, तीर्थ, परिवहन,विकास और रहन-सहन की बेहतर सुविधाओं के नाम पर निरंतर ध्वस्त कर रहे हैं। आपका यह ब्लॉग स्पष्ट करता है की देवभूमि के इस भूस्खलन और तबाही को रोकना हमारे हाथ में है क्योंकि इस बर्बादी और प्राकृतिक आपदा के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। आप समाज और राजनीति को अपने विचारों के माध्यम से आइना दिखाते हुए स्पष्ट कर रहे हैं कि इस तरह के निर्माण कार्य, परिवहन व्यवस्था और बढ़ते पर्यटन की निरंकुशता को रोके बिना हम हिमालय को नहीं बचा सकते और हिमालय का टूटना, उसका ध्वस्त होना भारत की संपूर्ण प्रकृति को आघात पहुंचा रहा है।
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