45वीं पुण्य तिथि - मोहम्मद रफी : जिस्म को मौत आती है लेकिन, रुह को मौत आती नहीं है

45वीं पुण्य तिथि

मोहम्मद रफी : जिस्म को मौत आती है लेकिन, रुह को मौत आती नहीं है

एक जमाना था जब हिंदी फ़िल्मों में हिट गाने का मतलब मोहम्मद रफ़ी होता था। उनके निधन के 45 साल बाद भी लोग उनकी आवाज़ और दिल जीत लेने वाले अंदाज़ के किस्से सुनाते नहीं थकते। पद्मश्री से सम्मानित इस कलाकार ने सिनेमा को सदाबहार गाने दिए हैं। मोहम्मद रफ़ी जैसा कलाकार न कोई हुआ और न कभी होगा। समय के साथ रफ़ी आज के दौर के गायकों और गीतकारों के लिए प्रेरणा बन गए। 


मोहम्मदी रफी साहब ने सिनेमा को सदबहार नगमें दिए हैं, जो आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं। उनके गीतों के एक-एक लफ्ज आज भी दिल में उतर जाते हैं। मोहम्मद रफी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को हुआ था। 31 जुलाई को उनकी पुण्यतिथि थी। 

मोहम्मद रफी का उपनाम फीको था। वे मूल रूप से अमृतसर जिले के कोटला सुल्तान सिंह गांव के रहने वाले थे और बाद में अपने परिवार के साथ लाहौर चले गए। 13 साल की उम्र में मोहम्मद रफी ने लाहौर में अपनी पहली सार्वजनिक प्रस्तुति दी, जहां उन्होंने के.एल. सहगल के साथ काम किया। 1944 में मोहम्मद रफी ने लाहौर में जीनत बेगम के साथ युगल गीत सोनिये नी, हीरिये नी गाकर प्लेबैक सिंगिंग की शुरुआत की। उन्हें ऑल इंडिया रेडियो लाहौर द्वारा भी गाने के लिए आमंत्रित किया गया था। मोहम्मद रफी ने 1945 में फिल्म गांव की गोरी से हिंदी फिल्मों में प्रवेश किया था। मोहम्मद रफी और किशोर कुमार को संगीत जगत में हमेशा कट्टर प्रतिद्वंद्वी माना जाता था, लेकिन जो लोग उन्हें जानते थे, वे हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि वे बहुत अच्छे दोस्त थे। जिस दिन मोहम्मद रफी की मृत्यु हुई, उस दिन मुंबई में भारी बारिश हो रही थी और जहां लोग अपने पसंदीदा संगीत सितारे को अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे थे, वहीं किशोर कुमार उनके पार्थिव शरीर के पास बैठे रहे और बच्चों की तरह रोते रहे।

संगीत निर्देशक आरडी बर्मन ने एक बार मोहम्मद रफी और किशोर कुमार को आधिकारिक तौर पर एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने का फैसला किया। उन्होंने दोनों से एक ही गीत गवाया जो दो नायकों- शशि कपूर और भारत भूषण पर अलग-अलग फिल्माया गया था, इसलिए जब मोहम्मद रफी ने शशि कपूर के लिए गाया तो भारत भूषण के लिए किशोर कुमार ने अपनी आवाज दी। बाद में जब फिल्म रिलीज हुई तो रफी द्वारा गाए गए गीत का संस्करण अधिक लोकप्रिय हो गया।

मोहम्मद रफी के नाम सबसे ज्यादा भारतीय पार्श्व गायक होने का रिकॉर्ड है। उन्होंने 14 भारतीय भाषाओं और चार विदेशी भाषाओं में गाने गाए हैं, जिनमें असमिया, कोंकणी, भोजपुरी, अंग्रेजी, फारसी, डच, स्पेनिश, तेलुगु, मैथिली, उर्दू, गुजराती, पंजाबी, मराठी, बंगाली आदि शामिल हैं।ऐसा माना जाता है कि मोहम्मद रफी ने अपने जीवनकाल में 7000 से अधिक गाने गाए, जिनमें से 162 गाने हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं में गाए गए थे।

मोहम्मद रफी और आशा भोसले की जोड़ी संगीत जगत में काफी सफल रही और वे हमेशा एक युगल गीत पर एक साथ काम करते थे, जिसमें महिला स्वर की आवश्यकता होती थी, जबकि जब पुरुष युगल गीत गाने की बात आती थी तो मन्ना डे अक्सर उनके साथी होते थे।

मोहम्मद रफी ने अभिनय में भी हाथ आजमाया। उन्होंने 1976 में आई लैला मजनू और 1947 की जुगनू जैसी फिल्मों में अभिनय किया। दोनों ही फिल्में सफल रहीं। मोहम्मद रफी ने वर्ष 1965 में फिल्म गुमनाम में जान पहचान हो नामक गीत गाया था। इस गीत को बाद में वर्ष 2001 में हॉलीवुड फिल्म घोस्ट वल्र्ड में इस्तेमाल किया गया था।

हम उनके जीवन से जुड़ा दो खास किस्सा साझा कर रहे हैं। मोहम्मद रफी जैसी अद्भुत प्रतिभा संगीत की दुनिया में बहुत कम ही देखने को मिलती है। महानगरी में कई गायक आए और गए, लेकिन रफी साहब की आवाज और उनका संगीत अब तक जिंदा है और सदियों तक ऐसे ही रहेगा। 

रफी साहब से जुड़ी कई दिलचस्प कहानियां हैं, लेकिन भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से जुड़े दो किस्से ऐसे हैं, जिसे कम ही लोग जानते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि साल 1948 में रफी साहब का गाना इतना ज्यादा लोकप्रिय हुआ था कि इसे सुनने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री ने रफी साहब को अपने घर पर बुला लिया था। यह गाना सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापूजी की अमर कहानी  था। यह गाना इतना ज्यादा लोकप्रिय हुआ कि उन्हें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के घर में इसे गाने का मौका मिला था।

इसके अलावा जवाहर लाल नेहरू से जुड़ा एक और किस्सा काफी मशहूर है। एक बार जब मोहम्मद रफी ने दोस्ती फिल्म का मशहूर गाना चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे एक इवेंट में गाया था तब इस कार्यक्रम में पंडित जवाहरलाल नेहरू भी उपस्थित थे। गाना सुनते हुए पंडित नेहरू अपनी भावनाओं को काबू नहीं रख सके और उनकी आंखों में आंसू आ गए थे।

यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय 100 भजनों में से 25 अकेले रफी साहब के गाए हुए हैं। शीर्षस्थ दस भजनों में रफी की गायकी का कमाल है। जय रघुनन्दन जयश्री राम, मन तड़पत हरि दर्शन को आज, ओ दुनिया के रखवाले जैसे जनजन के प्रिय भजनों के गायक मोहम्मद रफी ने कभी किसी धर्म से परहेज नहीं किया। वे सच्चे अर्थ में एक कलाकार थे। व्यक्तिगत जीवन में पांच बार नमाज पढऩे वाले रफी साहब सर्वधर्म समभाव में विश्वास करते थे। रामकृष्ण दुर्गा की स्तुति उतनी ही तनमयता से गाते थे जितने भक्त शिरोमणि गा सकते थे। वे सही मायने में भारतीय थे। एक सच्चे हिन्दुस्तानी की तरह जीये और हिन्दुस्तान की मिट्टी में दफन हो गये।

मोहम्मद रफी साहब ने अपनी पूरी जिंदगी गायकी को समर्पित कर दी थी, यहां तक कि अपनी जिंदगी के आखिरी दिन भी वे गाने की रिकॉर्डिंग में व्यस्त थे। रफी साहब के पास कलकत्ता से कुछ लोग मिलने आए थे और उनसे मां काली की पूजा के लिए गाना गाने का आग्रह किया था। रफी साहब रिकॉर्डिंग करने लगे। उनके सीने में दर्द की शिकायत थी, लेकिन रफी साहब ने इस बारे में किसी को नहीं बताया और गाने की रिकॉर्डिंग में व्यस्त रहे। इसके बाद दिल का दौरा पडऩे से उनका निधन हो गया।

31 जुलाई 1980 को मोहम्मद रफी ने दुनिया को अलविदा कह दिया था और सिनेमा जगत ने एक अनमोल हीरा खो दिया। मोहम्मद रफी का अंतिम संस्कार भारत में सबसे बड़े अंतिम संस्कारों में से एक था, क्योंकि उनके अंतिम संस्कार में दस हजार से अधिक लोग शामिल हुए थे। 

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