भाषाई पुलाव का जायका न बिगाडिय़े
महाराष्ट्र में मराठी और हिंदी भाषा को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है। पिछले कुछ हफ्तों से मराठी भाषा के नाम पर हिंदी भाषी लोगों के साथ मारपीट और गाली-गलौज की घटनाएं सामने आ रही हैं। गत 29 जून को मीरा रोड पर राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के कार्यकर्ताओं द्वारा एक गुजराती दुकानदार की पिटाई की गई क्योंकि वह मराठी में बात नहीं कर रहा था। इस घटना के विरोध में स्थानीय दुकानदारों ने प्रदर्शन किया, जिसके जवाब में एमएनएस कार्यकर्ताओं ने मीरा रोड पर हंगामा किया, जिसके बाद पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया। इस विवाद ने राजनीतिक रूप भी ले लिया है। बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने चेतावनी दी कि मराठी विवाद के समर्थक नेताओं को यूपी-बिहार में ‘पटक पटक के मारेंगे’। इसके जवाब में उद्धव ठाकरे ने ऐसे बयान देने वालों को ‘लकड़बग्घा’ कहा। अन्य नेताओं ने भी भाषा के नाम पर हो रही गुंडागर्दी की निंदा की है।
विकसित देशों में राजनीति ऐसे मुद्दों पर होती है, जिससे देश और देशवासियों का भला हो, जैसे बेरोजगारी, औद्योगिक विकास, टैक्स नीति, स्वास्थ्य सेवाएं और अवैध प्रवासी। लेकिन हमारे देश में राजनीति इन मुद्दों पर नहीं होती। हमारे यहां के नेता जनता से पूछते हैं कि आप कौन सी जाति से हैं? आप कौन सी भाषा बोलते हैं या फिर आपका धर्म क्या है? हमारे नेताओं की सारी राजनीति जाति, धर्म और भाषा के आधार पर जनता को बांटने तक ही सीमित रह गई है।
महाराष्ट्र में चल रहा भाषा विवाद इसका एक बड़ा उदाहरण है। यहां पर पिछले कुछ हफ्तों से मराठी बनाम हिंदी भाषी के बीच जंग छिड़ी हुई है। मराठी भाषा के छद्म ठेकेदार (ऐसा व्यक्ति जो किसी निर्माण कार्य में वैध ठेकेदार नहीं होता), हिंदी भाषी लोगों के साथ मारपीट और गाली-गलौज कर रहे हैं और उन पर मराठी बोलने का दबाव डाल रहे हैं। मराठी भाषा के ये नकली योद्धा, अपने नेताओं के इशारे पर गरीब हिंदी भाषियों पर अत्याचार कर रहे हैं।
एक घटना पिछले 29 जून की शाम मीरा रोड पर हुई थी, जिसमें राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कुछ कार्यकर्ताओं ने एक गुजराती दुकानदार को खूब मारा था। दुकानदार की गलती ये थी कि वह मराठी में नहीं बोल रहा था। मनसे कार्यकर्ताओं ने उस दुकानदार को मराठी न बोलने की वजह से पीटा था। क्या यह मनसे कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी नहीं है?
इस घटना के खिलाफ कुछ दिन पहले गुजराती और मारवाड़ी दुकानदारों ने जोरदार प्रदर्शन किया था। लोगों ने मराठी भाषा को जबरदस्ती थोपने के नाम पर हो रही गुंडागर्दी के खिलाफ थे। मीरा रोड पर ही प्रदर्शन हुआ, जिसमें महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के खिलाफ नारेबाजी की गई थी।
महाराष्ट्र में मराठी बनाम हिंदी भाषी की यह लड़ाई नई नहीं है। यह समय-समय पर राजनीतिक जरूरत के हिसाब से सडक़ पर उतरती रही है। मराठी बनाम हिंदी की हालिया जंग, ठाकरे बंधुओं की गठजोड़ की देन समझा जा रहा है। 2005 में बाला साहेब ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने क्षेत्रवाद के एजेंडे पर ही टिके रहने में अपनी भलाई समझी और अगले साल एक नई पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली। इस पार्टी का एजेंडा स्पष्ट था—दूसरे प्रदेशों से आने वाले लोगों का विरोध। राज ठाकरे की पार्टी मनसे शुरू से ही उत्तर प्रदेश और बिहार से आने वाले मजदूरों के खिलाफ रही है। वह दूसरे प्रदेशों से आने वाले लोगों को मराठियों के लिए खतरा बताती रही है।
पिछले कुछ चुनावों के नतीजे बताते हैं कि उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे की पार्टियों का जनाधार गिरा है। विधानसभा और लोकसभा चुनावों में लगातार गिरती सीटों की संख्या इसकी पुष्टि करती है।
मुंबई में होने वाले बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) चुनाव को दोनों नेताओं की तीसरी बड़ी परीक्षा माना जा रहा है। बीएमसी भारत का सबसे अमीर नगर निगम है और इसी वजह से मराठी बनाम हिंदी की राजनीति को बीएमसी चुनाव से जोडक़र देखा जा रहा है।
मराठी भाषियों को डर है कि हिन्दी और अंग्रेजी का दबाव उनकी भाषा की अस्मिता को क्षीण कर रहा है। मराठी भाषा सिर्फ सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जाती है। सभी प्राईवेट स्कूलों में शिक्षा का माघ्यम अंग्रेजी है। अत: मराठी कार्यकर्ताओं को यह डर सता रहा है कि कहीं अन्य कई भाषाओं की तरह मराठी भी लुप्त नहीं हो जाये। उनका भय बेबुनियाद नहीं है। लेकिन इसका गुस्सा वे गरीब बिहारियों पर क्यों निकालते हैं। कइ वर्ष पहले जब मैं एक वैवाहिक कार्यक्रम में पुणे गया था, उस समय बिहार और ओडिशा के मिस्त्री पलायन कर चुक थे। वहां जल जमाव या नल खराब हाने पर या नाली के पानी की निकासी रुकने पर उसे ठीक करनेवाला कोई नहीं था क्योंकि प्राय: प्लम्बर या मिस्त्री उडिय़ा थे या बिहारी। खैर, कुछ समय बाउ उनकी वापसी हुई और पुणे शहर पटरी पर आया।
जब शिवसेना बनी थी उसे मजबूत करने के लिये मराठी उन्माद से काम लिया गया। बिहार से निम्न मध्यम श्रेणी का बच्चा मुम्बइ, पुणे पढऩे गया तो उसे ही पीट दिया गया। कहने को वे गैर मराठियों विशेषकर मुसलमानों के विरोधी थे। किन्तु अंडरवल्र्ड के बड़े बड़ेे बाहुबलियों को कभी हाथ नहीं लगाया गा। निहत्थे व गरीब बिहारियों या उत्तर भारत के अन्य प्रांतों के आगुन्तुकों के साथ मारपीट करके पहलवानी की आजमाइश की गई।
हिन्दी समर्थकों एवं कुछ बुतद्धजीवियों को भी समझना चाहिये कि वे चाहते हैं लोग हिन्दी पढ़ें किन्तु वे स्वयं दूसरी भाषा नहीं पढऩा चाहते। हिन्दी दिवस या पखवाड़े के दौरान कई राष्ट्रीयकृत संस्थानों में मुझे जाने का अवसर मिला। कई स्थानों पर देखकर प्रसन्नता हुई कि उनके हिन्दी अधिकरी बंगाली हैं। किन्तु यह देखने को भी मिला कि हिन्दी अधिकारी को बांग्ला नहीं आती। अब सवाल यह है कि आप जब बांग्ला नहीं बोल सकते तो किस मुंह से बंगाली को कहेंगे कि वे हिन्दी सीखें।
भाषा का मामला संवेदनशील है। भाषा की तासीर प्यार और आपसी भ्रातृत्व है। उसे आंख दिखाकर या डंडे के जोर पर आप नहीं सिखा सकते। बंगाल में मेरा अनुभव यह है कि अधिकांश बंगाली हिन्दी बोल लेे हैं और भाषा सीखने से उन्हें परहेज नहीं है। प्राय: सभी हिन्दी फिल्में देखते हैं और हिन्दी गानों को अन्तर्मन से गाते हैं।
भाषा के पुलाव बनाइये पर उसका जायका कम नहीं हो। हर भाषा में मिठास और अपना बनाने का अहसास है। इनके बीच कोई दीवार नहीं होनी चाहिये। किसी शायर ने सही कहा है-
हमने हर वार सहा
जब दुश्मन की तलवार उठी
हिम्मत उस दिन टूटी, जिस दिन
आंगन में दीवार उठी।

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