घर-घर की कहानी है सामाजिक पतन के इस दौर की!
पिछले हफ्ते ही अपने पुराने मित्र से मुलाकात हो गई। बातचीत में बचपन की यादें ताजा करते हुए मैं परिवार के कुशल छेम के बारे में पूछ बैठा। मित्र स्तब्ध था, होठ हिले पर आवाज नहीं निकली। बाद में पता लगा कि उनके दोनों पुत्र उससे अलग रहते हैं। एक मुंबई तो दूसरा लंदन में। पिछले 12 वर्षों से कोई भी अपने पिता से नहीं मिला। दोनों अपने परिवार के साथ ‘मजे मे’ं हैं । उनमें से एक कोलकाता साल भर पहले अपने साले के बेटे की शादी में आया था। चार दिन के प्रवास में किंतु माता-पिता से मिलने के लिए वक्त नहीं निकाल पाया। एक बार फोन पर ही माता-पिता का हाल-चाल पूछ लिया। दूसरा पुत्र जो लंदन में बसा है अब वहीं पर विसर्जित हो गया। उसकी बेटी ने भी लंदन में ही शादी कर ली है। हां, किसी को आर्थिक संकट नहीं है। पिता ने यही बुद्धिमानी की थी कि तीन कमरे का फ्लैट जिसमें वह रहते हैं अपनी पत्नी के नाम से लिया था। मारवाड़ी समाज का यह किस्सा है जिस पर लक्ष्मी कृपावान है। दोनों पुत्र पढ़े लिखे हैं। भाइयों में किंतु आपसी संबंध ठीक-ठाक है। मुंबई वाला बेटा बीच में सपत्नीक लंदन गया था और भाई से भी मिला।
ऐसी स्थिति मारवाड़ी समाज के कुछ परिवारों की है। दूसरा उदाहरण है एक ऐसे परिवार का जिस पर लक्ष्मी की असीम कृपा है। पुत्र की शादी 15 वर्ष पहले हुई थी। 5 साल हुये उसने अपनी पत्नी से तलाक ले लिया। पत्नी की दूसरी शादी भी हो गई। सुपुत्र जी का किसी से अफेयर था। अपनी प्रेमिका को आलीशान फ्लैट दे दिया पर रहते अलग हैं। बेटी की शादी में आसामी ने 50 करोड़ खर्च किए थे। चार्टर्ड फ्लाइट से बारात जयपुर गई थी। वैवाहिक कार्यक्रमों में देश की जानी-मानी हस्तियां मौजूद थी। सब ने भर भर के नव दंपत्ति को अपना आशीर्वाद दिया। विवाह के 6 महीने भी नहीं बीते थे कि लडक़ी पिता के घर आ गई और दो वर्ष हो गए। ससुराल की तरफ मुंह नहीं किया। समाज में भाई साहब का बड़ा रुतबा है इसलिए इसकी कोई खुलकर चर्चा नहीं करता।
कुछ वर्ष पहले तक विवाह शादी में अफलातून खर्च मुद्दा बना हुआ था। समाज के प्रवक्ताओं ने इस पर कई बार अफसोस प्रकट किया कि शादियों में खर्च की कोई सीमा नहीं रही। लेनदेन चाहे खुलकर हो या टेबल के नीचे चलता है। इसके पश्चात विवाह शादियों में बड़े लोगों के यहां शराब परोसने का दौर सामाजिक चर्चा के एजेंडा में रहा। बा मुलायजा समाज में दबी जवान से चर्चा भी होती रही, कुछ लोगों ने कहा कि क्या किया जाए अब तो यह सब चलता ही है। समय के साथ इस दौर का भी पटाक्षेप हो गया। वैसे इस बात में भी दम है कि जिसके पास धन है वह शराब की व्यवस्था करे तो कोई कर भी क्या सकता है। मैं या आप आलोचना करें तो यह नक्कार खाने में तूती की आवाज से अधिक कुछ नहीं है।
कई चिंतनशील लोग समाज में चल रही इन कुरीतियों की अपने चेंबर में मुझसे गाहे बगाहे चर्चा करते हैं। उसी शाम को किसी हाई प्रोफाइल शादी में मिलते भी हैं और हम सब स्वागत समारोह में अपनी शुभकामनाएं या बधाई देकर अपने सामाजिक कर्तव्य का निर्वाह भी करते हैं।
अब यह मुद्दा ‘आउट डेटेड’ हो गया कि विवाह शादी में कौन कितना खर्च करता है अथवा इसका मध्यम श्रेणी के परिवारों पर क्या असर पड़ता होगा। कोलकाता में पांच बड़ी फाइव स्टार होटलों पिछले एक दशक में खुली है जिसका अधिकांश राजस्व मारवाड़ी परिवारों की शादियों या दूसरे आयोजन से आता है। इन होटल के अलावा एक दर्जन से अधिक आलीशान बैंक्वेट हॉल भी इन विवाह शादियों अथवा पारिवारिक आयोजनों जैसे शादी की सालगिरह, पुत्र रत्न प्राप्ति, जन्मदिन समारोह, हाउस वार्मिंग पार्टी के निमित्त धड़ल्ले से चल रहे है। इवेंट मैनेजमेंट का व्यवसाय भी तुंग पर है। कुछ युवाओं ने इवेंट को व्यवसाय के रूप में चुना है और उनमें अधिकांश लोग अपने कारोबार से संतुष्ट हैं।
मांगलिक आयोजनों में मुक्त हस्त खर्च का कुछ औचित्य भी है क्योंकि परिवार के साथ मौज करना किसको नहीं भाता। सर्वोपरि जिसके ऊपर लक्ष्मी का वादहस्त है उसके अधिकार क्षेत्र में है कि वह अपना पैसा कैसे खर्च करें। इसी कड़ी में विवाह पूर्व या प्री वेडिंग फोटो सेशन पर साठ वर्षोत्तर गणमान्य लोग अपनी चौपाल में जरूर ‘गरियाते’ हैं पर अपनी युवा पीढ़ी को ऐसा करने से रोक नहीं पाए। यह सिलसिला भी अब आम हो गया है। मैंने इस पर कुछ किशोरों की बेबाक राय जाननी चाही तो बड़ा लाजवाब उत्तर मिला। उनका कहना था कि वैवाहिक संबंधों के उत्सव में सब कुछ तो उनके परिवार का एजेंडा होता है। रस्म, रिवाज, लेनदेन, विवाह, गीत-संगीत, स्वागत आदि आदि उनके अभिभावक अपनी प्रतिष्ठा को स्थापित करके अथवा बनाए रखने की गरज से करते हैं। फोटो सेशन ही तो है जो उनका एक्सक्लूसिव होता है। परिवार के बुजुर्गों को इस मामले में ‘टांग अड़ाने’ का हक नहीं है ऐसी राय विवाह सूत्र में बंधने वाले कई किशोरों की है।
अब यह सारे वैवाहिक रस्म रिवाज हमारी सामाजिक शान का अभिन्न अंग बन चुके हैं। हमने उसे मौन स्वीकृति प्रदान कर दी है- मौनम स्वीकारम लक्षणम।
इन सभी दौर के गुजरने के बाद अब हम जिस पादान पर पैर रख रहे हैं उसकी तो कोई जमीन ही नहीं है और अगर जमीन है तो वह खिसक चुकी है। नए दौर में पारिवारिक विघटन की शूर्पणखा हमारे नाक काटने पर तुली है। सीता बनवास में है और मन्थरा और शूर्पणखा खुली घूम रही है। सोने की लंका में कौन अपनी पंूछ से आग लगाएगा? समाज का बुद्धिजीवी वर्ग महसूस कर रहा है कि जब सभी तरह के दौर आए और चले गए समय चाहे जैसा भी है यह भी गुजर जाएगा।
यह भी विचारणीय है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन डालेगा? किस चूहे की हिम्मत है कि वह बिल्ली की नाराजगी मोल ले? यह भी एक समाधान है कि हम जब कुछ नहीं कर सकते तो उस टोली में शामिल हो जाएं जो हरि नाम का कीर्तन करते-करते अपना सफर आसान कर लेता है। मारवाड़ी समाज के जो संगठन अतीत में विधवा विवाह के लिए आंदोलन करते थे, मृतक भोज का सामाजिक बहिष्कार करके समाज के शिखर पुरुषों के कोप भाजन बने, नारी शिक्षा के लिए जीवन उत्सर्ग कर दिया, समाज मैं फैली कुरीतियों के विरुद्ध समाज में अलख जगाई आज वही संगठन अपनी बैठकों में कुछ घिसे पिटे अर्थहीन प्रस्ताव पास कर लेते हैं। विवाह शादियों के मौसम में कुछ अखबारों में विज्ञापन छपवा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं। दोष उनका भी उतना नहीं है। कड़वा सच है कि समाज में ऐसी एक नामलेवा हस्ती नहीं है जिसने अपने सामाजिक शौर्य से यह अधिकार प्राप्त किया हो कि हमारे कान ऐंठ सके। हमें प्रतीक्षा करनी होगी हालांकि तब तक शायद और गिरावट बर्दाश्त करनी पड़े।
खुदा तो रोज मेरे गुनाह गिनता है
उसे आने दो,
मेरे बेइन्साफियों का भी हिसाब होगा।

आज के सामाजिक परिपेक्ष्य में आप का ये लेख मेरे विचार से नक्कारखाने में तूती वाली कहावत को चरितार्थ करता है।जिस वर्ग में इसका सबसे ज्यादा प्रभाव देखा जा रहा है वो वर्ग इतने दलदल में फंस चुका है कि अब उसे इससे निकलने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा।अब तो यही कोशिश होनी चाहिए कि इस परिवेश की काली छाया तथाकथित मध्यम वर्ग पर न पड़े।
ReplyDeleteआज के समाज की सच्चाई को उकेरता आलेख बधाई
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