विरासत और चुनौतियों के बीच हिंदी समाचारपत्र 200 साल की दहलीज पर

विरासत और चुनौतियों के बीच हिंदी समाचारपत्र 

200 साल की दहलीज पर 

30 मई 1826 को हिंदी का पहला समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड कोलकाता शहर से ही प्रकाशित हुआ था। 200 वर्ष की पुरानी पत्रकारिता कई दौर से गुजरी है। पं.  युगल किशोर शुक्ल ने कानपुर से कोलकाता जाकर हिंदी के प्रथम पत्र का उद्घोष किया। कलकत्ता को संभवत: इसलिये चुना गया क्योंकि कलकत्ता ही ब्रिटिश भारत की उस समय राजधानी थी। व्यवसाय एवं राजनीति की दृष्टि से कलकत्ता से प्रकाशन ही उपयुक्त था। यह महज संयोग है या सुविचारित योजना कि उसी दिन भारतीय तिथि के हिसाब से नारद जयंती भी थी। यानी हिंदी के पहले संपादक ने भी नारद मुनि को अपने पुरखों के रूप में देखा। उन्होंने हमें पत्रकारिता का उद्देश्य और बीज मंत्र भी यह लिख कर दिया- हिंदुस्तानियों के हित के हते। इस नजरिए से मूल्यबोध और राष्ट्रीय हित हमारी पत्रकारिता का आधार रहा है। 


हिंदी के पहले अखबार का संपादकीय। 

इन 200 सालों की यात्रा में हमने बहुत कुछ अर्जित किया है। आज भी मीडिया की दुनिया में आदर्श और मूल्यों का विमर्श चरम पर है। हिंदी पत्रकारिता के साथ ही उर्दू पत्रकारिता का भी उद्भव हुआ। उर्दू पत्रकारिता की दृष्टि से हिंदी की बड़ी बहन है। इनमें दो वर्ष का अंतर है। 1824 में उर्दू के पहला अखबार जामे जहां नुमा कोलकाता शहर से ही उद्भव हुआ। कलकत्ता का ही गौरव कि पंजाबी का पहला अखबार का भी यही से सूत्रपात हुआ। बांग्ला पत्रकारिता की तो स्वाभाविक जन्मभूमि कोलकाता है ही। अंग्रेजी का पहला पत्र भी इसी शहर से निकला। सभी पत्रों में एक समान उद्देश्य था भारत में अंग्रेजी हुकूमत का प्रतिवाद। अंग्रेजी अखबार के प्रकाशन का भी उद्देश्य ईस्ट इंडिया कंपनी का विरोधी था।

इस दौर में उर्दू के महान शायर अकबर इलाहाबादी को यह कहना पड़ा था - 

खींचो ना कमानों को, न तलवार निकालो,

जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।। 

यानि जो काम तोप या तलवार से नहीं हो सकते उस काम को पत्र और पत्रकार अंजाम देता है। इस प्रक्रिया में हिंदी ही नहीं बल्कि दूसरी भाषाओं के लोग भी अपना सक्रिय योगदान देने में पीछे नहीं रहे थे।

 समाचारपत्र जगत ने आज काफी तकनीकी उन्नति कर ली है। पूरी प्रिंट मीडिया आधुनिकता में सांस ले रही है। पत्रों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। उनकी प्रसार संख्या भी बढ़ रही है। कलेवर बदल गए हैं। साज-सज्जा में युगांतरकारी परिवर्तन हुआ है। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में लेकिन पत्रकारिता के मूल्य दिशा में काफी ह्रास हो रहा है। पहले पत्रकारिता मिशन थी फिर इसने प्रोफेशन का रूप ले लिया और अब यह कमिशन बन गया है। जनतंत्र, सत्ता, धर्मनिरपेक्षता, ज्ञान और वैज्ञानिक सोच विचार की चेतना में मर्मांतक गिरावट आई है। हिंदी पत्र समाचारपत्र दुनिया में सर्वोपरि है। भारत में 10 सबसे अधिक प्रसार संख्या वाले दैनिक पत्रों में प्रथम चार अखबार हिंदी के हैं। इसके बाद भारतीय भाषाओं बांग्ला, तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलुगू भाषाओं के अखबार हैं। 

एक समय में मीडिया के मूल्य थे जन आकांक्षाओं को शब्द देना। जन्ममुख पत्र थे।  आज व्यावसायिक सफलता और चर्चा में बने रहना ही सबसे बड़े मूल्य हैं। कभी पत्रकारिता के आदर्श महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, विष्णु राव पराडक़र, माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी थे। ताज स्थितियों में रूपर्ट मर्डाेक और मार्क जुकरबर्ग हो गए हैं। 1991 के बाद सिर्फ मीडिया ही नहीं पूरा समाज बदला है। उसके मूल्य सिद्धांत, जीवन शैली में भी क्रांतिकारी परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं। 

अब सबसे बड़ी चुनौती सोशल मीडिया इंटरनेट बन गई है। इनकी पहुंच विश्वव्यापी है किंतु मजे की बात यह है कि इनकी कोई जवाबदेही नहीं है। आजकल इनको फेक यूनिवर्सिटी की संज्ञा दी गई है। साथ ही गोदी मीडिया की बल्ले बल्ले हो गई है। इलोक्ट्रॉनिक मीडिया सत्ता की गोदी में बैठ गए हैं। बड़े-बड़े कारपोरेट जगत की इनमें बड़ी भागीदारी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जो रात दिन उगलते हैं उसीको प्रिंट मीडिया लड्डू के भरि की तरह समेट लेता है इन सब का परिणाम है कि पाठकों का पत्रकारिता से मोह भंग हो गया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एंटरटेनमेंट चैनल लोगों की पसंद हो गए हैं। आम आदमी न्यूज़ चैनल कम देखता है और सीरियलों का भरमार वाले टीवी चैनल उनकी पहली पसंद है। यही नहीं इन सीरियल से समाज के आवाम विशेषकर महिलाएं अपना आईकॉन खोजने लगी है। 

स्थिति निराशाजनक है किंतु इसी घोर निराशा के अंदर से ही आशा की किरण निकलेगी, ऐसा हमारा विश्वास है। नई पीढ़ी ने पत्रकार शोधपरक है। अत: उम्मीद है कि वर्तमान अंधकार के बाद टनल के शेष में उजाला दिखने लगा है। हिंदी पत्रकारिता को ही नेतृत्व लेना होगा। अंग्रेजी के अखबार सरकार और प्रशासन को प्रभावित करते हैं पर हिंदी और भाषाई अखबार में आम आदमी की आत्मा बसी है। उनके अनुरूप समाचार और विचार पर उसने में उन्हें ही आगे आना होगा। अगर यह स्थिति नहीं सुधरी तो समाचार पत्र और अप्रासंगिक हो जाएंगे। सोशल मीडिया और इंटरनेट कभी जनोन्मुखी नहीं हो सकता। देर सवेर प्रिंट मीडिया को ही अपने पुराने स्वरूप को निखारना होगा।

यह दुर्भाग्य है कि अंग्रेजी के समाचारपत्र का सरकार और प्रशासन पर बड़ा दबाव है। अंग्रेजी पेपर में छपी चार लाइन ज्यादा प्रभाव करती है हिन्दी के कई कॉलमों में छपे  समाचारों के मुकाबले। किन्तु यह भी सत्य है कि चुनाव के समय हिन्दी या भाषाई पत्र की पूछ बढ़ जाती है। उनसे ही वोटर प्रभावित होते हैं। चुनाव गया और हिन्दी व भाषाई पत्र फिर उपेक्षित हो जाते हें। इस दु:खद स्थिति को समझते हुए सरकार अंग्रेजी मीडिया को पोषित करती है। 



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