नकली दवाई - महंगी दवाई
जीने भी नहीं देती मरने भी नहीं देती
देश में स्वास्थ्य के परिदृश्य की चर्चा होती रहती है फिर कभी करेंगे पर अभी तो गंभीर संकट है कि पहली अप्रैल से बिना मूर्ख बनाएं हमारी दिल्ली सरकार ने 748 शेड्यूल दवाओं और 80 नॉन शेड्यूल्ड दवाओं की कीमत बढ़ा दी है। कोलेस्ट्रॉल, हार्ट के रोगी, ब्लड प्रेशर की दवाओं की कीमत भी बढ़ाई है। यहां तक कि पैरासिटामोल को भी महंगा कर दिया गया है। स्टेंट और ऑर्थोपेडिक चिकित्सा उपकरणों की कीमतें भी बढ़ रही हैं। यह दवाएं, गरीब की तो बात छोड़िए उसका तो भगवान ही मालिक है, आम आदमी अपने इलाज के लिए खरीदता है। सस्ता इलाज मुहैया कराने के लिए किए गए बार-बार वायदे के बावजूद दवाइयां की कीमत में बेतहाशा इजाफा कर दिया गया है। दवा के मूल्य नियंत्रण करने हेतु सरकारी संस्था एनपीपीए (नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी) हाथ पैर हाथ धर कर बैठी है।
यह कहां का न्याय है कि कैंसर और कोलेस्ट्रॉल की दवाइयां के दाम अनायास बढ़ा दिए गए। जीवन रक्षक दवाइयों की कीमत में इस अत्यधिक वृद्धि ने कॉमन मैन की नींद उड़ा दी है। हर आदमी इस तकलीफ को महसूस कर रहा है। आज के वैज्ञानिक युग में मेडिकल साइंस चिकित्सा विज्ञान ने भी तरक्की की है और हर बिमारी का इलाज भी निकल गया है या उसके लिए चेष्टा चल रही है। किंतु महंगाई और अनायास कीमत बढ़ाकर आम आदमी का जीवन दुभर हो गया है। इसका कोई इलाज अभी तक नहीं निकला। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार पर कड़ा प्रहार किया है एवं चार और पांच अप्रैल को विरोध कार्यक्रम की भी घोषणा की है किंतु यह प्रतिरोध केंद्र राज्य की खींचतान में कितना असरदार होगा कहना मुश्किल है।
इधर दवाओं को आम आदमी की पहुंच के बाहर कर दिया गया है किंतु घात यहीं खत्म नहीं होता। एक ओर दवाओं की आसमान छूती कीमतें और दूसरी ओर बाजार में नकली दवाओं की भरमार। लगभग हर घर में औसत तीन से चार हजार की दवाई खरीदी जाती हैं। राज्यभर में कई जगहों पर नकली दवाएं पकड़े जाने के बाद हर उम्र के लोग चिंतित हैं। हजारों रुपए खर्च करके डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन के मुताबिक दवाई लेने के बाद भी चैन नहीं। परेशान मरीज या उनके घर वालों के फोन बार-बार डॉक्टर के पास आ रहे हैं है ‘सर, कुछ दिन पहले ही तो ब्रांड की ब्लड प्रेशर वाली दवा नकली पाई गई पर क्या मैं अभी वही ब्रांड लूं। डॉक्टर साहब, कोई दूसरी ब्रांड का दवा बता दीजिए। मैं बेचैन हूं, परेशान हूं। कोई उपाय बताइए कि मुझे पैसा खर्च कर भी सही दवा मिल जाए।’
डॉक्टर भी कुछ खास ब्रांड की दवाएं लिखते हैं। वे दवाई महंगी भी हैं और कई बार मिलती नहीं है। मिल गई तो पता लगता है कि जो कैप्सूल गले के नीचे गई है वह नकली थी। महंगी और नकली दवा मरीजों को न मरने देता है और ना जीने। भले ही यह लतीफा ही है लेकिन इसमें सच्चाई है कि जीवन से तंग आकर आदमी जहर खाकर जीवन समाप्त करना चाहे तो भी नहीं कर सकता क्योंकि उसने जो जहर खाया वह शायद नकली था।
केंद्र सरकार को चाहिए कि वह दवाओं के दाम बढ़ाने के फैसले को वापस ले ले। इसके लिए जन आंदोलन की जरूरत है जो हमारे देश में कभी कभार चुनाव के कुछ पूर्व ही संभव होता है। अभी तुरंत चुनाव नहीं है अत: राजनीतिक दल भी इस मामले को कितनी गंभीरता से लेंगे कहना मुश्किल है। हमारे देश में कई सिविल सोसाइटीज हैं पर वह यदा कदा ही इस तरह के मुद्दे उठाती हैं। कुछ बड़े दल हैं उन्हें हिंदू - मुस्लिम के मुद्दों में ज्यादा दिलचस्पी है। उनके लिए आम आदमी का जीवन दूभर हो जाए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दवा नकली हो तो हो वह भी बढ़ती कीमत के बाद भी इसमें धार्मिक उन्माद की कोई गुंजाइश नहीं है।
जहां तक मीडिया, चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक वे इस तरह के जनोन्मुखी मुद्दों को उपेक्षित भले ही ना करें किंतु कोई असरदार या जोरदार विरोध भी नहीं करते हैं। मीडिया में भी धार्मिक विभाजन की बातों एवं उससे संबंधित सवालों को ज्यादा महत्व दिया जाता है।
नकली दवाओं के पकड़े जाने के बाद एक खास ब्रांड की ब्लड प्रेशर वाली दवा की बिक्री में 30' से अधिक की गिरावट आई है। संबंधित ब्रांड की सालाना बिक्री भारत में 500 करोड़ रुपए से अधिक है। भरोसा बहाल करने के लिए उस ब्रांड की निर्माता कंपनी ने उस दवा के सभी थोक विक्रेताओं की बैठक महानगर के एक पांच सितारा होटल में आयोजित की है।
सरकार स्वास्थ्य संबंधी मूल समस्या के प्रति कितनी जागरुक है उसका पता इसी बात से चलता है कि हेल्थ इंश्योरेंस पर भी जीएसटी लगा दिया गया है।
स्वतंत्रता के पश्चात स्वास्थ्य एवं शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी किंतु सच्चाई यह है कि दोनों क्षेत्रों को व्यापार बना दिया गया है। ज्ञात रहे कि कोविड के समय सबसे अधिक लाभ दवा कंपनियों एवं अस्पतालों को हुआ जिन्होंने जनहित में सरकार से सस्ती जमीन ले रखी हैं। ठ्ठ


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