पहले उद्योगपति बनने की प्रतिस्पर्धा थी
अब पूंजीपति बनने की होड़
देश जब स्वतंत्र हुआ उसके बाद से योजनाबद्ध विकास का क्रम शुरू हुआ। जमींदारी प्रथा से उठकर उद्मशीलता का दौर का श्रीगेणश। जमींदारी में मु_ी भर लोगों के पास जमीन का मालिकाना हक था। हजारों गांव पर उनका मालिकाना कब्जा था। इस स्थिति से निकलने के लिये देश में जमींदारी प्रथा का अवसान हुआ। जमींदारोंं से कानूनी रूप से जमीनों का हक लिया गया। ऐसा इसलिए भी किया गया क्योंकि उद्योग लगाने थे जो आसमान में तो नहीं लग सकते। उसके लिए जमीन चाहिये थे और जमिंदार जमीनों पर सर्प कुंडली मार कर बैठक थे। जमिंदारी प्रथा के उन्मूलन ने उद्यमियों को छोटे बड़े उद्योग लगाने का मौका दिया। पूंजी भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध नहीं थी अत: निजी उद्योगों का जाल बिछा किन्तु एक दो घरानों को छोड़ बड़े या हेवी इंडस्टी लगाकर चलाने की ताकत उस समय के उद्योगपतियों में नहीं थी। टाटा का बड़ा इस्पात कारखाना था और देश के इस्पात, एल्यूमिनियम, इंजीनियरिंग क्षेत्र में भारी भरकम उद्योग के लिये जितनी बड़ी पंूजी की जरूरत थी वह उस समय के उद्योगपतियों के पास उपलब्ध नहीं थी। इसलिये ‘सेल’ के अन्र्गत इस्पात उद्योगों को केन्द्रीय सरकार ने स्थापित किया। दुर्गापुर, राउरकेला, भिलाई, बोकारो आदि शहरों में सरकार ने हेवी इंडस्ट्री के रूप में बड़े-बड़े इस्पात कारखानों का ताना बुना। निजी उद्योगपतियों के पास किसी के पास इतनी पूंजी नहीं थी कि वे सफलतापूर्वक इस्पात के बड़े कारखाने शुरू करें। बिड़ला ने हिन्दुस्तान एल्यूमिनियम का कारखाना मिर्जापुर (यूपी) के पास रेणुकूट में लगाया और बड़े पैमाने पर एल्यूमिनियम का उत्पादन शुरू हुआ। लेकिन लोहे का कारखाना भारत सरकार के प्रतिष्ठान ‘सेल’ (स्टील ऑथोरिटी ऑफ इंडिया) ने आरंभ किया। इसके लिये दुर्गापुर (पं. बंगाल) में यूके, राउरकेला में जर्मनी एवं भिलाई में सोवियत रूस की मदद से देश के विकास हेतु स्टील के बड़े कारखाने शुरू हुए। बिड़ला समूह को बोकारो में कारखाना लगाने हेतु तैया किया गया पर उन्हें भी पीछे हटना पड़ा। फिर अमेरिका के सहयोग से बोकारो में बड़े इस्पात उद्योग की बात पक्की हुई। किन्तु अमेरिका ने भी अंतिम समय अपना हाथ खींच लिया। फिर केन्द्रीय सरकार ने सोवियत रूस को बोकारो (धनबाद के पास) में कारखाना इस्पात उत्पादन के लिये तैयार किया। इस जगह सोवियत रूस ने दो जगह भिलाई (मध्य प्रदेश) और बोकारो (झारखंड) में लोहे का उत्पादन उद्यम शुरू किया।
स्टील उत्पादन में हम आज भी स्वावलम्बी तो नहीं हुए किन्तु काफी हद तक हम देश में लोहे या इस्पात का उत्पादन करते हैं। इसी तरह भारत में पहले पेट्रोलियम का उत्पादन शून्य था। सारा तेल अरब देशों से आयात करना पड़ता था। लेकिन ओएनजीसी (ऑयल एंड नेचुरल गैस कमीशन) की स्थापना कर केन्द्रीय सरकार ने खनिज तेलों के उत्पादन में भारत को स्वावलम्बी बनाने का बीड़ा उठाया। हम तेल उत्पादन में स्वावलम्बन से बहुत दूर हैं। आज भी तेल अन्य कई देशों से लेना पड़ता है। लेकिन एक तिहाई के लगभग तेल की खपत हम भारत में ही ढंूढ लेते हैं। इस तरह देश में उद्यम का दौर शुरू हुआ। कपड़ा, खनिज, प्लास्टिक, स्टील, खाद, चीनी, प्लास्टिक, एल्यूमिनियम, कागज आदि क्षेत्रों में बड़े कारखाने शुरू हुए। देखते देखते उद्योग खोलने में पहल शुरू हुई। कुछ कारखाने ज्वाइंट सेक्टर में भी लगे। इस प्रकार देश के औद्योगिकरण के युग का सूत्रपात हुआ।
दूसरी तरफ व्यापार का भी प्रसार प्रारंभ हुआ। 1950 से 1980 तक उद्योग और व्यापार में भारत का सवर्णिम काल था। उस समय भारत में राजनीतिक स्थिरता भी थी। विकासशील भारत ने चौमुखी विकास किया। इस दौरान भ्रष्टाचार भी पनपा जो विकासशील देशों में अवश्यम्भावी होता है।
इन कुछ वर्षों में कार्पोरेट सेक्टर ने भी छलांग लगाई। शेयर या स्टॉक मार्केट में बहुत सी कम्पनियां आई बाजार से रुपया बटोरने। जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने और उनके कार्यकाल में डा. मनमोहन सिंह की उदारीकरण् की नीति के कारण निजी क्षेत्र में भी बम बम हुआ। विदेशी पंूजी ने भी अपनी भूमिका अदा की। साथ ही औद्योगिक घरानों की दूसरी एवं तीसरी पीढ़ी ने मोर्च सम्हाला। देश के औद्योगिकरण ने उद्ममशीलता को बढ़ावा दिया एवं पंूजी के प्रवाह को सहज किया। इसके बाद ऋणम कृत्वा धृतम पीवेत का दौर आया।
उद्यमियों ने पूरी निष्ठा एवं मेहनत के साथ उद्योगों का विस्तार किया। उद्योगपतियों की पहली पसन्द प. बंगाल था इसलिये अधिकांश औद्योगिक घराने बंगाल से शुरू हुए और बाद में उन्होंने अन्य राज्यों में पांव पसारा।
आज पूंजी बाजार अपने तुंग पर है। शेयर मार्केट 75 हजार 76 हजार बिन्दु पार कर गया है। देश को पांच ट्रिलियन इकोनोमी बनाने के लिए सरकार कटिद्ध है। लेकिन दुर्भाग्य से देश में उद्यमशीलता में ह्रास भी हो रहा है। जिन औद्योगिक घरानों ने पूरी मेहनत और समय देकर देश में सम्पन्नता की अलख जगायी उनकी नयी पीढ़ी अब कार्पोरेट संस्कृति में सन गई। परिणामस्वरूप विदेशी पूंजी के किरदार जब हाथ खींचते हैं शेयर बाजार औंधे मुंह गिरने लगता है। और भारतीय पूंजी के हुक्मरान गुबार देखते रह जाते हैं।
इस संदर्भ में हाल ही सुप्रसिद्ध उद्योग समूह डनकन हाउस (गोयनका) के हर्ष गोयनका (आरपीजी ग्रुप के चेयरमैन) का इस स्थिति का सही और सामयिक आकलन करते हुए एक आलेख प्रकाशित हुआ है दी इकोनोमिक टाइम्स के 27 फरवरी के अंक में। ‘पसीना बहाने से भागते हैं अरबपति वारिस’ शीर्षक इस आलेख में गोयनका ने संदर्भ एवं उदाहरण देते हुए लिखा है एक समय उद्योगपति घरानों में पैदा होने पर विरासत में संपत्ति नहीं, जिम्मेदारियां ली जाती थीं। युवाओं को फैक्टरियों के धूल भरे कमरों में भेजा जाता था। उनसे उम्मीद की जाती थी कि वे मुनाफा कमाना सीखेंगे। जरूरी अनुभव हासिल करने के बाद उन्हें जिम्मेदारियां दी जाती थीं। नयी पीढ़ी के उद्यमी गोल्फ खेलने, शैंपेन पीने का आनंद लेने न्यू ब्रांड लैबोर्गिनी दौड़ाने में व्यस्त हैं। यह कम श्रम कर पैसा कमाने में, छुट्टियों पर जाने में और पार्टियों के दौरान नेटवर्क बनाने में यकीन करते हैं। उनके कहने का आशय है कि उद्यमियों में पूंजीपति बनना ज्यादा पसन्द करते हैं। अपने श्रम, निष्ठा और कम साधन में भी उद्योगों के लिए पापड़ बेलने से जो लाभ मिला अब बाद वाली पीढ़ी कार्पोरेट संस्कृति में सनकर पूंजी एकत्र करने में लगे हैं। उद्योग घराने की किसी उत्तराधिकारी लडक़ी से शादी कर अपना नेटवर्थ दोगुना कर जब आपको विरासत को ही आगे ले जाना है तो कंपनी को आगे ले जाने की जरूरत क्या है? पर यह सवाल बरकरार है कि उद्यमियों की अगली पीढ़ी निर्माता बनेगी या ब्रंच की आदी?
यह कटु सत्य है कि उद्यम और औद्योगिक विकास की बजाय पूंजी की अहमियत बढ़ती जा रही है। इस तरह बनी पांच ट्रिलियन की इकोनोमी में पूंजी के ढेर पर बैठकर औद्योगिक गिरावट और उत्पादन में क्षय का दौर ही इसकी परिणति होगी।

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