।। मन्दिर में नहीं, घट-घट में हैं राम।।

।। मन्दिर में नहीं, घट-घट  में हैं राम।।

राम नवमी यानि भगवान श्री राम का जन्म दिवस। भारत में यह सिर्फ एक धार्मिक पर्व के रूप में नहीं अपितु किसी नये कार्य के लिए शुभ दिन माना जाता है। यही नहीं व्यवसायी इसे नये वर्ष के रूप में मानकर, खाते-बही का नवीनीकरण करते रहे हैं। सरकार के प्रशासन के साथ एक रूपता बनाने अब यह संभव नहीं है किन्तु इस पर भी राम नवमी का महत्व कम नहीं हुआ है। कुछ वर्ष पहले तक राम नवमी उल्लास और उच्छास का पर्व था किन्तु अब आशंका और भय के साये में राम नवमी का पर्व मनता है। राम नवमी के पहले पुलिस और प्रशासन अलर्ट हो जाता है। ऐसा करना अकारण नहीं है। आस्था के इस पर्व को राजनीतिक स्वार्थ के लिये भुनाये जाने का यह क्रम शुरू हो गया है। प. बंगाल को ही लीजिए। भगवान राम के जन्मदिन राम नवमी पर उत्सव एवं झांकी निकालने की परम्परा प्राचीन है। लोक आस्था के इस त्योहार पर बड़ी पवित्रता के साथ मर्यादा पुरुषोत्तम के जीवन वैशिष्ट को महिमा मंडित किया जाता है। रामचरित मानस का पाठ होता है एवं भगवान राम के कर्ममय जीवन की प्ररेक झांकियां निकाली जाती है। वर्ष 2018 में कोयलांचल के साथ बिहार के भी कुछ हिस्सों में रामनवमी को लेकर हिंसक वारदातें हुई। वर्षों से परम्परागत झांकियां एवं जुलूस दो सम्प्रदायों के संघर्ष में परिणित हो गये। वैसे इसका अंदेशा पहले से ही था क्योंकि कुछ कथित राम उपासकों ने कहा कि वे अस्त्र-शस्त्र के साथ राम नवमी पर जुलूस निकालेंगे। प्रशासन ने उन्हें अनुमति नहीं दी फिर भी उन्होंने तलवार भंाजते हुए जुलूस निकाला। रानीगंंज के मुस्लिम बाहुल्य इलाकों से गुजरते हुए जुलूस में ‘जय श्री राम’ की जगह ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे लगे ताकि स्थानीय मुसलमान भडक़े। जुलूस में ‘मन्दिर वहीं बनायेंगे’ - के नारे लगे। पाकिस्तान का नारा लगाया गया यह मानकर कि सभी मुसलमान पाकिस्तान परस्त हैं। तनावपूर्ण वातावरण पैदा किया गया और जैसी आशंका थी, संघर्ष शुरू हुआ। जमकर पत्थरबाजी हुई और बेचारा एक पुलिस अधिकारी गंभीर रूप से घायल हो गया। पुरुलिया में भी यही हुआ-आसनसोल में भी वारदात हुई। कई दुकानें लूटी गई।

एक बात कटु सत्य है कि दंगे होते नहीं करवाये जाते हैं। धार्मिक सहिष्णुता को इतना भडक़ाया जाता है कि आदमी आपा खो दे। और फिर हिन्दू हिन्दू बन जाता है और मुसलमान कट्टर मुसलमान। एकता के लिये किये सारे प्रयास ठंडे बस्ते में चले जाते हैं।

राम का नाम सहिष्णुता एवं सौजन्यता का प्रतीक रहा है। अगर इतिहास को खंगाले तो पायेंगे कि राम किसी धर्म या धार्मिक मान्यता से कहीं ज्यादा भारत देश में भाईचारे का सम्बोधन माना गया है। जन्म से मृत्यु तक राम का नाम किसी न किसी रूप में लिया जाता रहा है। राजस्थान में मुझे स्मरण है कि मुस्लिम कुम्हार या लीलगर भी हिन्दू को राम राम कहकर सम्बोधित करता रहा है। ‘राम’ में असाधारण सदाचार व आपसी सम्मान का बोध निहित है। कहावतों, जुमलों, सुख: दुख, अवसाद सभी स्थितियों में राम शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। इस मामले में राम के आसपास भी कोई नहीं है। या कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राम का नाम सर्वव्यापी और समावेशी बन गया है। तुलसीकृत रामचरित मानस धार्मिक ग्रन्थ से ऊपर उठकर राम चरित्र पर आधारित एक महाकाव्य है जिसमें जीवन के हर बिन्दु का अहसास कराया गया है। यही नहीं सम्बन्ध चाहे वह पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई, मित्र, गुरु-शिष्य का हो, को व्याख्यित किया गया है इस लोकग्रन्थ में। गंवई प्रधान अवधि भाषा में रचित इस ग्रन्थ में धर्म को भी इन शब्दों में परिभाषित किया गया है- ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई/पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।’ यानि किसी की सहायता करने से बड़ा धर्म नहीं है और किसी को पीड़ा पहुंचाने से बड़ा अधर्म नहीं है। सनसनत का यदि कुछ है तो यही है। मैं मानता हंू दुनिया के किसी ग्रन्थ में इससे अच्छी व्याख्या धर्म की नहीं की गई है। हिन्दू धर्मावलम्बी इसी परिभाषा के कारण सदियों से अनुप्रेरित रहे हैं। समय के थपेड़ों से अपराध बढ़े हैं, किन्तु तुलसी के इस वचन को कुल मिलाकर भारतीय मानस ने हृदयंगम किया है। यही ‘गाईड लाइन’ है कोटि कोटि भारतवासियों की और इसी में ‘विश्वगुरु’ बनने का गुर भी छिपा है। भारत की न्याय प्रणाली और भारत के संविधान की यही आत्मा है।

मैंने कई राम भक्तों एवं विद्वान मित्रों से एक प्रश्न किया कि राम भारतवासियों के मन मन्दिर में रचे बसे हैं। घट-घट में राम हैं यह परम सत्य है। कुछ राजनीतिक लोग राम को भारत की अस्मिता एवं संस्कृति का प्रतीक भी मानते हैं। राम लोकाचार है, राम जैसा कोई दूसरा आराध्य नहीं है। किन्तु राम मन्दिर बनाने की परम्परा हमारे देश में नहीं रही है। इसका मतलब यह नहीं कि राम जी के मन्दिर नहीं बनाये गये पर यह अकाट्य सत्य है कि राम के मन्दिरों की संख्या नगण्य हैं। आप कोलकाता को ही लीजिये। वृहत्तर कोलकाता की जनसंख्या लगभग एक करोड़ है। इनमें 85 लाख लोग हिन्दू हैं। पर पूरे महानगर में चित्तरंजन एवेन्यू स्थित एक राम मन्दिर है। संभव है एक दो राम मन्दिर और बने होंगे जिनकेबारे में सभी को जानकारी नहीं है। इसकी तुलना में राधाकृष्ण, हनुमान जी और शिवजी के सैंकड़ों मन्दिर हैं जिनकी संख्या की सटीक जानकारी किसी को नहीं है। प्रश्न है कि राम उपासकों ने राम मन्दिर बनाने से परहेज क्यों किया? इस सवाल का संतोषजनक उत्तर मुझे नहीं मिला किन्तु इस तथ्य को सभी ने स्वीकारा कि राम स्रह्य मन्दिर अपवाद हैं। जो स्थिति कोलकाता की है वही अन्य नगर या महानगरों की है बल्कि गांव देहात एवं छोटे बड़े कस्बों में भी कहीं कहीं ही नामलेवा भगवान राम का मन्दिर है। लेकिन इस स्थिति से राम नाम की महिमा या राम का सर्वव्यापी प्रभाव क्षेत्र रत्ती कम नहीं हुआ है।

मैंने स्वयं जब इस यक्ष प्रश्न पर अपना विवेक मन्थन किया तो मुझे यही समझ में आया कि राम को लेाग अपने अन्दर पाते हैं। मन्दिरों में उन्होंने राम की मूर्ति सजाने की आवश्यकता नहीं महसूस की। किसी पूजा पद्धत्ति के माध्यम से राम की आराधना का प्रयोजन लोगों ने महसूस नहीं किया। आम लोगों की यह धारणा है कि राम घट-घट में बसे हैं। हनुमान जी ने अपना सीना चीर कर राम-सीता के दर्शन कराये थे वैसे ही एक भारतीय के सीने के अन्दर झांक कर देखें तो राम-सीता मिलेंगे। जो घट-घट में हैं- दिल दिमाग में रचे बसे हैं उन्हें उपासना या आरती से नहीं हृदयंगम करके ही अपने को राम मय बनाया है भारत के लोगों ने। यह अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि यही सच्चाई है। राम को हृदय से अलग उनकी मूर्ति बनाकर पूजा नहीं गया बल्कि अपने को राम में विसर्जित करके ही आम भारतीय ने राम की उपासना की है। इसीलिए कहा गया है कि ‘जाहि विधि राखे राम, तहं विधि रहिये।’ 

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