सनातनी संस्कृति को वीआईपी कल्चर से बचाइये
इन कुछ वर्षों में धर्म राष्ट्रीय एजेंडा में सबसे ऊपर पहुंच गया है। पहले इस बात पर बहस होती थी कि राजनीति को धर्म से राजनीति को अलग रखना चाहिए। इस बहस की जरूरत भी थी क्योंकि अतीत में धर्म गुरुओं ने शासकों को धर्म का रास्ता बताया। सही और गलत का फर्क समझाया। इस बहस का यही निष्कर्ष निकाला गया की धार्मिक मूल्यों के आधार पर राजनीति अपना रास्ता तय करे। धर्म विहीन राजनीतिक कभी भी लोगों का भला नहीं कर सकती यानि राजनीति को धार्मिक मूल्यों का सम्मान करना चाहिए। देश में यह बहुत समचीन भी है क्योंकि हमारा देश कृषि प्रधान है तो धर्म प्रधान भी है। रामचरितमानस के राजा राम या वनवासी राम ने लोगों का चरित्र ढालने में बड़ी भूमिका अदा की है। लेकिन पिछले कुछ समय से राजनीति ने धार्मिक मूल्यों को गढऩा शुरू कर दिया है यानी राजनीति धार्मिक मूल्यों को सुनिश्चित करती दिख रही है। ठीक है इस बार ऐसा महाकुंभ 144 वर्षों बाद आया है किंतु महाकुंभ, कुंभ और अद्र्र्ध कुंभ भारत भूमि में पहले भी हुए हैं और आने वाले कालखंड में भी होंगे। आस्था की डुबकी लगाने के लिए करोड़ों आस्थावान कुंभ में स्नान करने प्रयागराज पहुंचे हैं। अतीत में इलाहाबाद के अलावा उज्जैन, नासिक और हरिद्वार में कुंभ के लिए प्रशासन व्यवस्था भी की थी। पहले भी कई खामियां रही हैं। सन् 2013 में हरिद्वार में हुए कुंभ में भी भगदड़ में बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे जिनके लिए तत्कालीन सरकार के प्रशासन की बड़ी कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा था।
संगम में स्नान करता योगी कैबिनेट।
देश में विपक्षी दलों द्वारा सरकार को कठघरे में रखना खड़ा किया गया। मुझे याद है हरिद्वार में कुंभ या और भगदड़ में मारे गए लोगों के लिए सरकारी व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया गया था। सरकार ने दायित्व लेते हुए यह निर्णय लिया कि भविष्य में ऐसे तीर्थ स्थलों एवं कुंभ मेले जैसे महाआयोजनों में कोई वीआईपी नहीं जाएगा और ना ही किसी व्यक्ति के लिए चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों ना हो, अलग से कोई व्यवस्था नहीं की जाएगी। दरअसल यह बहुत आवश्यक है कि धर्म में कोई विशिष्ट ना हो। भगवान के दर पर सभी को बराबर का दर्जा मिलना चाहिए। सामान्य कल में हम आए दिन वीआईपी यानि अति महत्वपूर्ण व्यक्ति के लिए व्यवस्था को कालीन बिछाते देखा गया है। किंतु धर्म स्थलों पर यानि भगवान के दर पर कोई बड़ा या छोटा नहीं होना चाहिए। किंतु दुर्भाग्य है कि हिंदू धर्म ही ऐसा धर्म है जहां के तीर्थ स्थलों पर बड़ा चंदा या शुल्क देने पर उसे प्राथमिकता मिलती है। दर्शन में उनको आगे की पंक्ति में शामिल किया जाता है।
कुम्भ स्नान में साधारण लोगों की स्थिति।
बड़े-बड़े मंदिरों में भी वीआईपी चाहे वह मंत्री हो या पूंजीपति उसके लिए विशेष व्यवस्था की जाती है और साधारण लोगों को लंबी लाइन या भीड़ का हिस्सा बना दिया जाता है जिसमें 80 साल का बूढ़ा भी होता है और शारीरिक रूप से अक्षम या विकलांग भी। प्रश्न है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले ही कार्यकाल के दौरान वीआईपी कल्चर को खत्म करते हुए लाल बत्ती एवं इसी तरह की सुविधाओं को समाप्त कर दिया था तो मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों या धार्मिक आयोजनों की वीआईपी की संस्कृति को क्यों नहीं समाप्त किया? क्यों महाकुंभ में वीआईपी स्नान के लिए सरकार ने अलग से व्यवस्थाएं की? क्यों एक विधायक अपने पद का रौब दिखाते हुए महाकुंभ में कारों के काफिले के साथ घूमते एवं स्नान करते हुए पुलिस सुविधा का बेजा इस्तेमाल करते हुए एवं सेल्फी लेते हुए करोड़ों लोगों की भीड़ का मजाक बनाते रहे? यह सवाल पूछा जाना बिल्कुल वाजिब है कि हिंदुओं के धार्मिक स्थलों में क्यों भक्तों के बीच धन और राजनीतिक ओहदे के आधार पर भेदभाव किया जाता है। वीआईपी दर्शन अथवा स्नान की अवधारणा भक्ति एवं आस्था के खिलाफ है। क्या यह सनातन धर्म का अपमान नहीं है कि कुछ लोग धन और पद के बल पर करोड़ों की आस्था को अंगूठा दिखाएं।
सवाल उठ रहा है कि जब गुरुद्वारे में वीआईपी दर्शन नहीं या मस्जिद में वीआईपी नमाज नहीं, चर्च में वीआईपी प्रेयर नहीं है ना ही जैन मंदिरों या बौद्ध मठों में कोई भेदभाव है तो सिर्फ हिंदू मंदिरों में कुछ लोगों को विशेष सुविधा क्यों दी जाती ह?ै क्या इस पद्धति को खत्म नहीं किया जाना चाहिए जो हिंदुओं को बांटता है। क्या इन पर योगी जी का बंटोगे तो कटोगे फार्मूले लागू नहीं होना चाहिए?
यह वीआईपी कल्चर साधु-संतों पर भी लागू है। जिन संन्यासियों का राजनीति के बड़े खिलाडिय़ों के साथ संबंध है या फिर जो इन नेताओं को उच्च पदों का वरदान देते हैं या तरबूज बांटते हैं उनकी पौ बारह होती है। इसी के परिणामस्वरुप भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां साधु संतों के पास मर्सिडीज, रेंज रोवर, हेलीकॉप्टर तक मिल सकता है क्योंकि खाने को वह मोह माया से दूर रहते हैं।
इस बार महाकुंभ का राजनीतिकरण भी जबर्दस्त हुआ। हालांकि मैं मानता हूं इस लाभ का दोहन करना शायद संभव ना हो पर इसी उम्मीद से महाकुंभ का राजनीतिक ‘डिविडेंड’ लेने का पूरा प्रयास होगा। राम मंदिर बनने पर भी यह सोचा गया था किंतु जब चुनाव आया तो ‘जो राम को लाए हैं’ वाला जुमला नहीं चला। अयोध्या, इलाहाबाद, नासिक एवं अन्य धार्मिक या पवित्र स्थलों पर वह पार्टी हार गई जिसने धर्म को राजनीति की यात्रा में विजय रथ के रूप में इस्तेमाल किया। यानी आम जनता को राम मंदिर पर की गई पावर पॉलिटिक्स रास नहीं आई।
समाज ने धर्म को बड़े व्यापक रूप में लिया है। संकीर्णता का हिंदू धर्म की संस्कृति में कोई स्थान नहीं है। हम भाषणों एवं उपदेशों में धर्म की और परिभाषा देते हैं किंतु जीवन में धर्म को कट्टर वाली धार पैना बनाते रहे हैं। कहा गया है कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ किंतु हमारे धर्म गुरुओं एवं राजनीति में बाहुबलियों ने ऐसा माहौल तैयार किया कि जो महाकुंभ जाएंगे वह अक्षय पुण्य के भागी बनेंगे एवं उनके किए हुए सारे पाप धुल जाएंगे। उनका अगला जन्म भी तर जाएगा और जो ऐसा नहीं करते पाप के प्रायश्चित में जिंदगी भर सुलगते रहेंगे। एक पहुंचे हुए साधु ने यहां तक कह डाला कि भगदड़ में जो मारे गए हैं उनको मोक्ष प्राप्त होगा।
ईश्वर ने अपने बनाए इंसान को जीवन सुख सुविधाओं को कई नियमतों से नवाजा है। कहा भी गया है कि धर्मम रक्षति रक्षत: यानी जो धर्म की रक्षा करते हैं, धर्म भी उन्हीं की रक्षा करता है। पर यह भी सच है खुदा को मानती है सारी दुनिया पर खुद की मानता कोई नहीं।
इसलिए सुप्रसिद्ध शायर जोश मलीहाबादी ने लिखा है -
ए आसमां! तेरे खुदा का नहीं है खौफ
डरते हैं ए जमीन! तेरे आदमी से हम
विचार स्वागत योग्य हैं पत्रकार केवल जनता की व अपनी महसूस की गई समस्या को राय की तरह सरकार के सामने पेश कर सकता है , उसे मानना तो सरकार का काम है , जो लेखक ने महसूस कर शब्दों के माध्यम से कलम से उकेरा उसकी कोटि कोटि बधाई
ReplyDelete