भारत में ईसाइयत की विडम्बना
क्रिसमस है मौजमस्ती का त्योहार पर भारत के ईसाइयों के नसीब में कहां?
25 दिसम्बर क्रिसमस है। आमतौर पर इसे भारतवासी मौजमस्ती का त्योहार मानते हैं। कोलकाता में क्रिसमस के पहले पार्क स्ट्रीट दुधिया स्नान करती नजर आती है। चकाचौंध का आलम और रात भर नौजवान टोली बनाकर घूमते फिरते हैं। रेस्त्रां के गेट पर दरवान को अन्दर प्रवेश के लिये अनुनय विनय और कई तो उन्हें टिप्स तक आफर करते हैं। क्रिसमस ट्री लगाया जाता है और बच्चों को रिझाने लिय दरवाजे पर मोजे लटकते हैं कि रात में शांता क्लॉज आकर उनको टॉफियों से भर दें। इस तरह यह त्योहार गैर क्रिश्चिन कहीं ज्यादा उमंग और उत्साह से मनाते हैं। ईसाई चर्च में जाकर मोमबत्ती जलाते हैं और प्रेयर में भाग लेते हैं। यानि क्रिश्चियन ‘पूजा-पाठ’ तक सीमित रहते हैं जबकि गैर ईसाइ बड़ी मस्ती से इसे मनाते हैं।
एक तरफ रूमानी मौसम में गुलाबी ठंड ऊपर से स्कूल-कॉलेजों की छुट्टियां इसलिये बाजार में धूम रहती है। पार्क स्ट्रीट शाम को गाडिय़ों के लिए बंद कर दिया जाता है ताकि शैलानी स्वच्छन्द रूप से घूम सके और क्रिसमस की रौशनी में शीतऋतु का भरपूर आनन्द ले पायें।
भारत में ईसाइयत का इतिहास बहुत पुराना है। ईसा मसीह के दूत के रूप में संत (सेन्ट) थॉमस धर्म प्रचार करने केरल के समुद्र तट पर उतरे थे। लेकिन उनको आशा के अनुकूल सफलता नहीं मिली। दक्षिण के अलावा आगे नहीं बढ़ पाई इसाईयत। 14 वीं सदी में पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा के साथ आये धर्म प्रचारकों का पहला मुकाबला केरल के ईसाइयों से हुआ। बाद में उनमें समझौता हुआ कि दोनों मिलकर ईसाइयत को फैलाने में जुट जायें। 17वीं शताब्दी में चर्च ने पाश्चात्य पद्धत्ति के साथ हिन्दू उपासना पद्धतियों और प्रथाओं को अपनाने का प्रयोग शुरू किया। पोप की सहमति से बाइबिल को पांचवें वेद के रूप में प्रचारित किया गया। इससे भोली भाली हिन्दू जनता भ्रमित हो रही थी इसलिए उस प्रयोग का अवसान हो गया। उत्तर भारत या अखंड भारत में ईसाइयत का आगमन अकबर बादशाह के शासनकाल में हो गया था जब उसने सर्वधर्म सभा में गोवा से तीन पादरियों को अपने दरबार फतेहपुर सीकरी में आमंत्रित किया। आगरा में बिशप प्लेस के सामने खड़ा अकबर चर्च इसका प्रमाण है।
ब्रिटिश सरकार के समय भारत में ईसाइ मिशनियों को अपना विस्तार करने का अवसर मिला। मिशनरियों ने अपनी नीति बदलाव करते हुए उपेक्षित वर्गों के बीच अपने धर्म प्रचार को महत्व देना शुरू किया। ब्रिटिश सरकार ने शैक्षणिक और स्वास्थ्य कार्यों के लिए जमीन अनुदान देने जैसी अन्य कई सहूलियतों से मिशनरियों का उत्साहवद्र्धन किया। भारतीय समाज में हाशिये पर खड़े वंचित को समानता और भेदभाव रहित व्यवस्था उपलब्ध करवाने और उन्हें सम्मान दिलाने का भरोसा दिलाये जाने के फलस्वरूप बड़ी संख्या में लोगों ने हिन्दू धर्म छोडक़र ईसाइयत को अपनाया।
ब्रिटिश शासन की विदाई के बाद भी वे लोग चर्च के बाड़े में बने रहे। लेकिन जातिवाद से मुक्ति की आशा में धर्मपरिवर्तन का मार्ग चुनने वाले लोगों को यहां भी उससे छुटकारा नहीं मिल पाया है। दुभाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि चर्च नेतृत्व अपने ढांचे में जातिवाद के दंश को मिटा नहीं पाया है। उल्टा वह अपनी धार्मिक एवं राजनीतिक सत्ता को बनाये रखने के लिये ईसइयत में जातिवाद को और मजबूत करने में लगा हुआ है और इस मनसा से सरकार से मांग कर रहा है कि वह ईसाइयत की शरण में आये वचिंत समूहों को दलित हिन्दुओं की सूची में शामिल करते हुए उनके विकास की जिम्मेदारी उठाये।
विदेशी मिशनरियों द्वारा इकट्ठा की गई विशाल संपदा ब्रिटिश साम्राज्य के अवसान के बाद भारतीय चर्च अधिकारियों के सुपुर्द कर दी गई। विराट संसाधनों के बावजूद चर्च अधिकारी अपने अनुयायियों का सामाजिक-आर्थिक विकास करने में असमर्थ रहे। मैं अगर यह कहंू कि यह विशाल संपत्तिया उनके बीच लूट-खसोट का धंधा बन गई है। तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। स्वतंत्रता के पश्चात भी चर्च ने देश में अपना बड़ा विस्तार किया है और आज उसका शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार के बाद बड़ा हिस्सा है। इन सबके बावजूद भारतीय चर्च आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है और आज भी वह पूरी तरह से पश्चमी मिशनरियों की आधीनता में तीन शताब्दी पूर्व वाली स्थिति में ईसाइयत का विस्तार करने में लगा हुआ है। अधिकतर ईसाइ विद्वान मानते हैं कि चर्च को भारत में अपने मिशन को पुन: परिभाषित करना चाहिए क्योंकि ईसाइ समुदाय के प्रति बढ़ते तनाव की मुख्य वजह ‘धर्मांतरण’ ही है हम उसे कब तक झुठलाते रहेंगे। क्या धर्मांतरण ही ईसाइयत का मूल उद्देश्य रह गया है? यह समय है जब ईसाइ समुदाय को स्वयं का सामाजिक लेखा-परीक्षण करना चाहिये। ईसाइयत में पिछली तीन सदियों से शामिल होने वाले भारतीय दलित आज आकृति विहीन झुंड की तरह हो गये हैं जिनके पास उनके दु:खों को गानेवाला कोई गायक नहीं है।
क्रिश्चियनिटी में परिवर्तित लोगों का यह कहना है कि वे पिछड़ी जाति के लोग हैं एवं वे अपने को दलित कहलाना पसन्द करते हैं। अधिकांश परिवर्तित ईसाइ बताते हैं कि कि वे गरीब पृष्ठभूमि से आये हैं और आज भी दो समय के भोजन एवं अन्य जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। भारतीय ईसाइयों का एक बड़ा अंश उन धार्मिक मान्यताओं को मानता है जिसका ईसाइ धर्म की परम्पराओं में कोई जिक्र नहीं है। 54 प्रतिशत भारतीय ईसाइ कर्म की प्रधानता को मानते हैं जबकि ईसाइ धर्म कर्म प्रधान नहीं है।
29 प्रतिशत भारतीय ईसाइ पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं और उनका यह मानना है कि गंगा के पानी में पापियों का पाप धोने की क्षमता है। यह दोनों मान्यता हिन्दू धर्म का अभिन्न हिस्सा है। 31 प्रतिशत भारतीय क्रिश्चयन दिवाली का पर्व मनाते हैं। हिन्दू, बौद्ध या जैन धर्म कह महिलाओं की तरह 22 प्रतिशत ईसाइ औरतें अपने ललाट पर बिन्दी या टिक्की लगाना पसन्द करती हैं। ठ्ठ
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