तुमको भूला न पायेंगे - राज कपूर 100 (1924 -1988)

 तुमको भूला न पायेंगे

राज कपूर 100 (1924 -1988)

राज कपूर हिन्दी सिनेमा के शीर्ष अभिनेता व निदेशक थे। उनके व्यक्तित्व के बारे में लिखने के लिये फिल्मी दुनिया से ऊपर उठकर आजादी के बाद के भारतीय लोक जीवन को पर्दे पर उकेरने के उनके कौशल का आकलन करना होगा। नेहरूवादी समाजवाद से प्रेरित अपनी शुरुआती फिल्मों से लेकर प्रेम कहानियों को मादक अंदाज से परदे पर पेश करके राज कपूर ने हिन्दी फिल्मों को एक नया आयाम दिया। अपनी लोकप्रियता को पूरे विश्व के फलक में फैलाने वाले राज कपूर ने दुनिया को विकसित देशों रूस, चीन, इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मन में भी अपनी फिल्मों की डुगडुगी बजायी। कई देशों में राज कपूर की लोकप्रियता दंतकथा बन चुकी है। राज कपूर की फिल्मों की कहानियां आमतौर पर उनके जीवन से जुड़ी होती थी और अपनी ज्यादातर फिल्मों के मुख्य नायक वे खुद होते थे। 


राज कपूर ने औसत भारतीय के दिल को छूने वाली फिल्मों का निर्माण किया। 1951 में उनकी फिल्म आवारा हिन्दी फिल्म के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। आवारा ने फिल्म के रूप में एक दृष्टिकोण दिया, यही नहीं आवारा ने फिल्मों को सामाजिक यथार्थ के धरातल पर ला खड़ा किया। आवारा ने सत्ताइस साल के नौजवान को उस ऊँचाई पर पहुंचा दिया, जहां तक पहुंचने के बड़े से बड़ा कलाकार लालायित रहता है। यहां तक कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद राज कपूर सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तित्व बन गया। चीन के सबसे बड़े नेता माओ त्ये तुंग ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि ‘आवारा’ उनकी सर्वाधिक पसंदीदा फिल्म थी। घूमते टहलते भारत के ही नहीं विदेशी लोग भी आवारा हंू गीत गुनगुनाते नजर आते थे। 

राज कपूर द्वारा बच्चों के लिये बनायी फिल्म ‘बूट पॉलिश’ ने पूरे फिल्म उद्योग को चौंका दिया। इसमें राज स्वयं द्वारा नहीं थे और न ही उसमें नरगिस थी। दो बाल कलाकारों एवं चरित्र अभिनेता डेविड को लेकर बनी इस फिल्म में राजकपूर के नये प्रयोग का सिक्का जमा दिया। ‘श्री 420’ नये मिजाज की फिल्म थी। दर्शकों ने इसकी संवेदनशील भाषा में सामाजिक जिन्दगी का नया अर्थ पहचाना। ‘श्री 420’ में सभ्यता और प्रगति की आड़ में पनप रही खोखली नैतिकता को पहचानने की कोशिश के साथ ही उसके संभावित खतरों से आगाह किया था। राज कपूर का इसमें अभिनय बेमिसाल था। ‘जागते रहो’ को अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहली हिन्दी फिल्म को इतना बड़ा पुरस्कार मिला। जागते रहो का बांग्ला में फिल्म रूपान्तर ‘एक दिन रात्रे’ हुआ जिसे बंगालियों ने भी बेहद पसन्द किया। इसे कालजयी फिल्म कहा गया। इसके बाद राज कपूर की फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ व्यवसायिक दृष्टि से सफल नहीं हुई किन्तु राज कपूर ने अपनी प्रचलित छवि से हटकर संजीदा भूमिका की थी। राजकपूर की कई फिल्में अपनी उत्कृष्टता के बावजूद बॉक्स ऑफिस में सफल नहीं हुई जिनमें दो उस्ताद, कन्हैया, मैं नशे में हंू, चार दिल चार राहें आदि हैं। इनमें से किसी के निर्माता निर्देशक राज साहब नहीं थे।

वर्ष 1951 से 1956 के बीच राज कपूर की जितनी भी फिल्में आयी उनमें नायिका नरगिस थी। 1956 में नरगिस के अलग हो जाने के बाद 1959 में आकर ‘अनाड़ी’ ने राज को फिर अनोखे रूप में प्रस्तुत किया। उस समय डाकू समस्या को लेकर उनकी फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ ने देश के राजनीतिक कर्णधारों को इस भारी समस्या के समाधान का मानवीय संवेदना से ओत प्रोत रास्ता दिखाया और राजकपूर का एक अलग ही व्यक्तित्व सामने आया। फिल्म संगम ने राज कपूर को बड़ा शौ मैन बना दिया। नि:संदेह राज कपूर अपनी शो मैनशिप के लिये भारत ही नहीं विदेशों में भी जाने माने गये। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु की लम्बी कहानी पर केन्द्रित फिल्म ‘तीसरी कसम’ में राज कपूर ने मात्र एक रुपये में अपने साथी कवि गीतकार शैलेन्द्र के लिये काम किया। तीसरी कसम उन चन्द हिन्दी फिल्मों में से है जिन्होंने साहित्य रचना के साथ शत प्रतिशत न्याय किया हो। तीसरी कसम को राष्ट्रपति स्वर्ण पदक मिला और बांग्ला फिल्म जर्नलिस्ट एसोसियेशन द्वारा सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित की गई।

राज कपूर की जीवन-दर्शन को दर्शाती फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ अपने समय की सबसे महंगी फिल्म थी। निश्चय ही राज कपूर इसके माध्यम से (बाजार) लूटने के लिए नहीं अपने कलाकार की उद्यम आकांक्षा से उद्वेलित होकर निकले थे। एक निर्देशक और कलाकार के रूप में राज कपूर अपनी जिन्दगी का सब कुछ ‘जोकर’ को दिया। ‘मेरा नाम जोकर’ राजकपूर के सपनों का एक ऐसा तमाशा था जसे वे एक साथ कलात्मक और व्यवसायिक ऊँचाइयों तक पहुंचना चाहते थे। राज कपूर इस फिल्म से नायक की जगह महानायक बन गये।

राज कपूर ईमानदारी से दोस्ती निभाने वाले लोगों में से हैं। उन्होंने किसी का एहसान नहीं भुलाया। मुहब्बत की हमेशा कद्र की। प्यार के एक कतरे से बढक़र अजीज तो उनकी जिन्दगी में कुछ है ही नहीं। इसलिये दोस्ती और मुहब्बत की खातिर उन्होंने कई ऐसी फिल्मों में भूमिकाएं की जिनमें उन्हें कतई काम नहीं करना चाहिये था। लेकिन उनकी इस कुर्बानी ने उन्हें बड़े कलाकार से एक मसीहा बनाया और राज कपूर इस रूप में भारत के लोगों के दिलों में रचे बसे रहेंगे। राज कपूर ने स्वनिर्मित ‘बॉबी’ फिल्म से यह सिद्ध कर दिया कि यदि बॉक्स ऑफिस ही उनके ध्यान में हो तो वे बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा देने में पूरी तरह सक्षम हैं। इस फिल्म ने व्यवसायिकसफलता के सारे रिकार्ड तोड़ दिये। ‘राम तेरी गंगा मैली’ फिल्म में कोई स्टार नहीं था लेकिन फिल्म ने सफलता का नया कीर्तिमान स्थापित किया। इसके बाद बनी फिल्म ‘हीना’ के निर्माण के दौरान राज कपूर 22 जून 1988 इस दुनिया से चल बसे। उस समय उनकी आयु 63 वर्ष की थी।

राज कपूर के जीवन काल में उनके द्वारा निर्मित-निर्देशित फिल्मों ने उनके लिए जितना लाभ कमाया, उससे हजार गुना अधिक धन उनकी मृत्यु के बाद इन छत्तीस वर्षों में कमाया है।

वे भारतीय सिनेमा के एक ऐसे कलाकार थे जिनकी तुलना अन्य किसी कलाकार से नहीं की जा सकती। सिनेमा उनमें बसता था और वे खुद सिनेमा को जीते थे। उनकी कामयाबी और ऊँचाइयों तक कोई भी नहीं पहुंच पाया है। उनकी अधिकांश फिल्मों में व्यवसायिकता, कलात्मक, साहित्यिकता और सामाजिक का सम्मोहक सम्मिश्रण मिलता है। उनकी फिल्मों का हर पक्ष इतना सधा हुआ होता था कि हर दर्शक उससे मुग्ध हो जाता था। वे हिन्दी और भारतीय सिनेमा के पहलेव्यक्ति थे, जिन्होंने उसे एक विश्वमंच प्रदान किया। नायक तो सिनेमा में बहुतेरे हुए, पर राज जैसे नायक सदियों में एक ही होता है। एक लाइन में राज कपूर को भारतीय सिनेमा का लीजैंड (किंवदती) कहा जा सकता है। 

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