नारों का इतिहास पुराना है
अब बन गया है चुनाव जीतने का मन्त्र
राजनीतिक नारों की शुरुआत राष्ट्रीय भावना से हुई थी जो अब चुनाव जीतने का मंत्र बन गया है। आजादी के संग्राम में बहुत से नारों का उद्घोष हुआ जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को ऊर्जा ही नहीं दी बल्कि देश के लिये अपनी जान न्यौछावर करने की प्रेरणा दी। ‘‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है-देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है’’ जैसे गीत गाये गये। युवा भगत सिंह ने इनकलाब का नारा लगाया और फांसी के तख्ते पर झूल गया। ‘‘दूर हटो ए दुनिया वालो, हिन्दुस्तान हमारा है’’ जैसे राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत नारे लगाये गये थे। ऐसे नारे दिये जिनसे दुनिया में सूर्यास्त न होने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नींव हिल गयी। गोवा को पुर्तगाल शासक के चंगुल से मुक्त करने के लिये गीत लिखा गया-‘‘जब न रहा मुसोलनी जार बाकी तो कैसे रहेगा सालाजार बाकी’’ जैसे गीत और नारों के बीच गोवा को दुनिया की एक और ताकत से स्वतंत्र कराया गया।
आजादी मिलने के पश्चात् भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने नारा दिया था-‘‘आराम हराम है।’’ गांव-गांव की दीवार पर यह नारा लिखा गया और सबकी जुबान पर चढ़ गया था। बल्कि यूं कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस नारे ने एक नयी जान फूंक दी थी। लम्बे चले स्वतंत्रता संग्राम के बाद लोग आराम तलबी या निश्चिन्त न हो जायें कि ‘‘अब तो आजादी मिल गयी काम करने की क्या जरूरत है’’ की स्थिति से उबारने के लिए इस नारे ने जादुई करिश्मा कर दिखाया था।
लालबहादुर शास्त्री का नारा ‘‘जय जवान जय किसान’’ स्वतंत्र भारत में नयी स्फूर्ति लाने के काम आया। इसी नारे का असर हुआ कि शास्त्री जी के आह्वान पर लोगों ने एक समय खाना छोड़ दिया ताकि हमें अनाज का आयात न करना पड़े। क्या जबर्दस्त भावना थी आज तो हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।
कालान्तर में नारे का स्वरूप बदलता गया। उसमें राष्ट्रीय भावना या देश के लिये जज्बे की कशिश कमजोर होती गयी। नारों का इस्तेमाल गद्दी बचाने या गद्दी दिलवाने का जरिया बनता गया। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अपने प्रधानमंत्री काल में ‘‘गरीबी हटाओ’’ का नारा दिया जो कि विकासशील भारत को गरीबी से मुक्त कराने का अभियान था। श्रीमती गांधी ने नारा ही नहीं दिया बल्कि गरीबी हटाने के लिए साहसिक कदम भी उठाये जिनमें 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण सबसे बड़ा कदम था। लेकिन बाद में जब राजनीतिक संकट गहराया और चुनाव में उन्हें चुनौतियों का सामना करना पड़ा तो ‘‘आयरन लेडी’’ कही जाने वाली इन्दिरा जी ने चुनाव जीतने को प्राथमिकता दी। उस वक्त कांग्रेस ने नारा दिया- ‘‘जात पर न पात पर, इन्दिरा जी की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर’’। हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीकान्त वर्मा द्वारा रचित इस नारे ने इन्दिरा जी को चुनाव जिताने में बड़ी मदद की।
तबसे नारे राजनीतिक सत्ता हासिल करने का मंत्र बन गया। नारों की शब्दाबली बड़ी परिमार्जित और मन को छूने वाली होती थी किन्तु उसमें राष्ट्रीय भावना नदारद थी। चुनाव जीतने के लिए नारे दिये जाने लगे। इन नारों का आम लोगों पर असर तो हुआ किन्तु नारे देने वाले इसके उद्देश्य से भटक गये। 2014 में लोकसभा चुनाव के समय भाजपा के प्रधानमंत्री प्रार्थी गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का नारा-‘‘अच्छे दिन आयेंगे’’ ने लोगों को उसी तरह मंत्र मुग्ध किया जिस तरह संपेरा बीन बजाकर सांप को बिल से बाहर निकलाने पर मजबूर कर देता है।
सन् 2014 में जब श्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी प्रधानमंत्री बने उन्होंने नारों को आकर्षक और तुरन्त जुबान पर चढऩे की कुबत तो दी पर उसका एकमात्र उद्देश्य मोदी की लोकप्रियता को सातवें आसमान पर उठाना था। 2019 में लोकसभा चुनाव के समय मोदी सरकार का नारा लोक लुभावन साबित हुआ। प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र वाराणसी में ‘‘हर हर महादेव की तर्ज पर’’ ‘‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’’ ने बड़ा काम किया और मोदी जी ने पांच लाख वोटों से जबर्दस्त जीत हासिल की। 2024 यानि इसी वर्ष चुनाव में धैर्य का पलड़ा पहले से कहीं भारी था किन्तु उसी बनारस से मोदी की जीत मात्र डेढ़ लाख वोट में सिमट गयी। और इस तरह नारों का रुख मात्र सत्ता हासिल करना रह गया।
प. बंगाल में वर्ष 2021 में ममता बनर्जी को लगा कि इस बार चुनाव जीतना उतना आसान नहीं है तो उन्होंने बंगालियों के प्रथम प्रेम फुटबॉल को हथियार बनाया और ‘‘खेला होबे’’ का नारा दिाय। ममता के इस नारे को बंगाल के फुटबॉल प्रेमियों ने हृदयंगम किया और मुख्यमंत्री के पांव में चोट लगने के बाद नंदीग्राम में संशोधित कर नया नारा लगाया ‘‘भांगा पांवे खेला होबे’’ किन्तु इस नारे के बावजूद नंदीग्राम ममता के हाथ से निकल गया।
राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि भाजपा में सत्ता के दो केन्द्रबिन्दु बन गये हैं। नरेन्द्र भाई मोदी के साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विजयरथ भी समानान्तर चल रहा है। योगी आदित्यनाथ का नया नारा ‘‘बटेंगे तो कटेंगे’’ राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव छोडऩे लगा है। योगी जी ने इस नारे को बहुत उछाला। प्रधानमंत्री मोदी जी को शायद कुछ नागवार गुजरा तभी तो उन्होंने योगी के नारे के नहले पर अपना दहला फेंका-‘‘एक रहेंगे सेफ रहेंगे।’’ महाराष्ट्र चुनाव के समय अजीत पवार ने कहा कि योगी जी का ‘‘बंटेंगे तो कटेंगे’’ वाला नारा यहां नहीं चलेगा। फिर भी योगी जी ने महाराष्ट्र के कई इलाकों में अपने स्लोगन वाले होर्डिंग लगवाये। योगी जी का नारा झारखंड में भी लगाया गया। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कहना था देश के इतिहास में किसी भी राजनीतिक दल ने इससे अधिक नकारात्मक नारा नहीं दिया है।
‘‘बटेंगे तो कटेंगे और एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे’’ का नारा देकर यूपी विधानसभा उपचुनाव में भारी जीत हासिल करने के बाद यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसी लाइन पर 2027 का चुनाव भी लडऩे का मूड बना चुके हैं। ‘‘बटेंगे तो कटेंगे और एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे’’ के योगी-मोदी मंत्र को लोगों के बीच ले जाने और हिन्दू जनमानस को इस नारे से ओतप्रोत करने का मंत्र दिया है।
नारों की चुनावी रणनीति से भारतीय राजनीति का नया युग शुरू हुआ है जिसमें लोक लुभावन नारे अफीम का काम कर सके। विपक्ष भी इसी ताक में है कि किसी जादुई नारे को लपक लें। इस नयी स्थिति का दूरगामी प्रभाव तो देशहित में नहीं है किन्तु अब राजनीति का लोकतत्व काफी धूमिल हो गया है। जो चुनाव जिता दे वही श्रेष्ठ है की भावना से नारों को गढऩे का काम दोनों पक्ष कर रहे हैं।



सर, इस आलेख में आपकी ये टिप्पणी बड़ी मजेदार लगी कि "जिस तरह संपेरा बीन बजा कर सांप को बिल से बाहर निकले पर मजबूर कर देता है"।....नारों की स्टीक व्याख्या की आपने आदरणीय।...सादर नमन!🙏
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