रिक्शा वाला अपनी जवानी कलकत्ता को देकर,बुढ़ापे में टीबी रोग लेकर अपने गांव लौटता है

 रिक्शा वाला अपनी जवानी कलकत्ता को देकर, बुढ़ापे में टीबी रोग लेकर अपने गांव लौटता है

हमने पिछले हफ्ते ही ‘‘आओ रानी याद रखेंगे-हम तुम्हें भुला न पायेंगे’’ शीर्षक चिंतन से ट्रामों की विदाई पर कोलकातावासियों की वेदना का जिक्र किया था। कई पाठकों ने ट्राम की सवारी के संस्मरण के साथ ट्रामों के बिना कलकत्ता की मायूसी पर अपनी अन्तर्वेदना भी प्रकट की। हिन्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान वीर बहादुर सिंह कई वर्ष कलकत्ता में रहे उन्होंने लिखा - कलकत्ता को बगैर ट्राम के देखना एक पीड़ादायक अनुभव होगा। कुछ पाठकों ने लिखा कि कभी हाथ रिक्शा इस महानगर की शाही सवारी हुआ करती थी। सेठानियों का पसंदीदा वाहन होता था, स्कूल के बच्चों का पिकअप वैन और रोगी के लिए एम्बुलेंस का काम करता था। एक पाठक ने बड़ा ही दिलचस्प वाकया बताया। उबड़ खाबड़ चितपुर रोड (अब रवीन्द्र सरणी) पर प्रसव पीड़ा लिये एक महिला मैटर्निटी होम रिक्शे पर जा रही थी कि रास्ते में ही उसका प्रसव हो गया।


इसीलिये इस हफ्ते हमने ‘‘हाथ रिक्शा’’ के प्रतिवेदन को इस लोकप्रिय स्तम्भ में शामिल करने का मन बनाया और दुर्गापूजा की छुट्टी मनाते हुए रिक्शा और रिक्शेवाले की सुध ली। यह बात बिलकुल सच है कि एक समय कलकत्ता का चलता फिरता दो टांग वाले रिक्शा अब अपने अवसान पर है। कुछ संकरी गली, कूचों में ही टन-टन आवाज करता दिखाई देगा। प्राय: सभी गलियों के लिए हाथ रिक्शा अब अतीत की याद बन चुका है।

हाथ से खींचा जाने वाला रिक्शा की उत्पत्ति सुदूर पूर्व में हुई थी और माना जाता है कि इसे सबसे पहले जापान में पेश किया गया था जहां इसे ‘‘जिन रिकी शॉ (मानवचालित वाहन) वे’’ नाम से जाना जाता था। भारत में इसकी उपस्थिति का पता 19वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में ग्रीष्णकालीन राजधानी शिमला से लगाया जा सकता है। सवा सौ साल से भी लंबे अरसे से कोलकाता की पहचान का हिस्सा रहे हाथ से खींचे जाने वाले ये रिक्शे अपना वजूद बनाए रखने के लिए जूझ रहे हैं। आजादी के पहले और उसके ठीक बाद इसे शान की सवारी और स्टेट्स सिम्बल माना जाता था। उस दौर में धनी लोग तो पालकी से चलते थे। लेकिन मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग के लिए ये हाथ रिक्शा ही आवाजाही का प्रमुख साधन थे। इसे अमानवीय करार देते हुए राज्य सरकार कई बार इन पर पाबंदी लगा चुकी है। लेकिन बाद में सामाजिक संगठनों और हेरिटेज विशेषज्ञों के दबाव में पाबंदी वापस ले ली गयी। कोई 12 साल पहले सरकार ने इन रिक्शों के लाइसेंस का नवीनीकरण बंद कर दिया था। मोटे अनुमान के मुताबिक 1960-70 में कोलकाता में लगभग 20 हजार रिक्शे थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की बंगाली कहानी ‘‘दो बीघा जोमीं’’ और उसके बाद के हिंदी फिल्म रुपांतरण में एक रिक्शा चालक के संघर्ष को दर्शाया गया है जो शारीरिक तनाव और शोषण के बावजूद खुद का और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए जी तोड़ परिश्रम करता है। उन्हें पुलिस से भी उत्पीडऩ का सामना करना पड़ता था। 1940 और 50 के दशक में रिक्शा चालकों को पुलिस और निगम दोनों से लाइसेंस की आवश्यकता होती थी। बाद में ‘‘सिटी ऑफ जॉय’’ जैसी फिल्मों में हाथ रिक्शा चलाने वाले के दु:ख दर्द का बेहद सजीव चित्रण किया गया था। कलकत्ता में इन रिक्शों की शुरुआत 19वीं सदी के आखिरी दिनों में चीनी व्यापारियों ने की थी। तब इसका मकसद सामान ढुलाई था। लेकिन बदलते समय के साथ ब्रिटिश शासकों ने इसे परिवहन के सस्ते साधन के तौर पर विकसित किया। धीरे-धीरे ये रिक्शे कोलकाता की पहचान से जुड़ गए। देश के किसी दूसरे शहर और दुनिया के किसी भी देश में ऐसे रिक्शे नहीं चलते। बेतिया (बिहार) के राम प्रवेश कहते हैं, ‘‘मेरे दादा और पिता भी यहां रिक्शा चलाते थे। मैं और कोई काम नहीं जानता। रिक्शा बंद हो गया तो मेरा परिवार भूखों मर जायेगा।’’ हाल में की गई पूछताछ के मुताबिक एक रिक्शा वाला 12 घंटे रिक्शा चलाने के बाद लगभग दो सौ रुपये तक कमाता है। इनमें से पचास रुपये तो रिक्शे का मालिक ले लेता है। बाकी पैसों में खाने-पीने का खर्च काटकर एक रिक्शावाला महीने में औसतन दो से तीन हजार रुपये अपने गांव भेजता है। रिक्शावाला अपनी सवारी को ऐसी गलियों में भी ले जा सकते हैं, जहां दूसरी कोई सवारी नहीं जा सकती। बरसात में जब महानगर की सडक़ों और गलियों में सबकुछ ठप हो जाता है तब भी इन रिक्शों के जरिये जीवन मंथर गति से चलता रहता है। बारिश इनके लिये वरदान होती है क्योंकि रिक्शेवाले की कमाई भी कुछ ज्यादा हो जाती है। ऐसा माना जाता है कि बिहार के सुदूर गांव से जवानी में लडक़ा हट्टा-कट्टा शरीर लेकर कलकत्ता आता है और तीस चालीस साल बाद वापस टी.बी. का रोग लेकर अपने गांव लौटता है जहां कुछ साल बाद वह इस दुनिया को अलविदा कह देता है। यानि अपनी पूरी जवानी कलकत्ता के लोगों को ढोते-ढोते यहां से उपहार में टीबी लेकर अपने घर लौटता है।

ब्रिटिश भारत में ये रिक्शा महिलाओं की सबसे पसंदीदा सवारी थी। इन रिक्शों के महानगर की सडक़ों पर उतरने से पहले कोलकाता के कुलीन परिवारों और जमींदार घरों के लोग पालकी से चलते थे। लेकिन ये रिक्शे धीरे-धीरे पालकियों की जगह लेने लगे। पालकी ढोने के लिए चार लोगों की जरूरत होती थी जबकि रिक्शा को एक ही आदमी खींचता था।

इस पेशे को अमानवीय करार देते हुए विभिन्न मानवाधिकार संगठन अक्सर इसकी आलोचना भी करते रहे हैं। राज्य की पूर्व बाममोर्चा सरकार ने भी कई बार इसे बंद करने की कोशिश की। लेकिन हजारों लोगों की रोजी-रोटी का वैकल्पिक इंतजाम नहीं होने की वजह से मामला खटाई में पड़ गया।

दो साल पहले इन रिक्शेवालों की जिंदगी पर एक फोटो प्रदर्शनी ने सबका ध्यान इस पेशे की ओर खींचा था। इस मौके पर जानेमाने अभिनेता ओमपुरी ने इस पेशे को जारी रखने की जोरदार वकालत की थी। उल्लेखनीय है कि ओम पुरी ने भी सिटी ऑफ जॉय में एक रिक्शेवाले का किरदार निभाया था जबकि दो बीघा जमीन में यह काम सुप्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी ने किया था। कोई छ: साल पहले एक गैर सरकारी संगठन ने इन रिक्शेवालों की एक रेस का आयोजन कर विजेताओं को सम्मानित किया था। एक आम रिक्शेवाले का दिन सुबह चार बजे शुरु होता है। एशिया की सबसे बड़ी मंडी बड़ाबाजार और न्यू मार्केट इलाके में माल की ढुलाई के बाद ये लोग बच्चों को उनके स्कूलों तक छोड़ते हैं। वहां ये उनके अभिभावक भी बन जाते हैं। संकरी गली कूचे से रोगी को लेकर अस्पताल पहुंचाने की सेवा भी ये करते हैं। इतना करके भी महानगर के बाबुओं की इन पर नजर टेढ़ी ही रहती है।

सरकारी उपेक्षा के चलते ये पेशा अब लुप्तप्राय हो गया है। नये लोग इस पेशे में नहीं आ रहे हैं। पुराने लोगों पर उम्र हावी होती जा रही है। ऐसे में कोलकाता की ये पहचान भविष्य में शायद तस्वीरों या संग्रहालयों में ही नजर आएगी।

रिक्शेवाले की शान में एक पुरानी फिल्म का नगमा याद आया-

ये रिक्शा वाला, ये रिक्शा वाला

है चार के बराबर ये दो टांग वाला

कहां चलोगे बाबू, कहां चलोगे लाला

ये रिक्शा वाला....


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