जाओ रानी याद करेंगे तुमको भुला न पायेंगे

 जाओ रानी याद करेंगे तुमको भुला न पायेंगे

कोलकातावासियों के दिलों पर राज करने वाली ट्राम को आखिर अलविदा करना पड़ा। बस एक पुरानी यादगार के रूप में एक छोटे से हिस्से में ट्राम सेवा चालू रहेंगी। एस्प्लेनेड से मैदान को छोडक़र महानगर की ट्राम सेवा बंद करने का फैसला किया गया है। इससे लोग बहुत अधिक निराश हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी अन्तर्वेदना प्रकट कर रहे हैं। कोलकाता की ट्राम सर्विस न सिर्फ ट्रांसपोर्ट मोड है बल्कि ये 150 साल पुरानी ऐतिहासिक धरोहर भी है। सुप्रसिद्ध उपन्यासकार बिमल मित्रा ने अपने उरपन्यास ‘‘कोड़ी दिये कीनलाम’’ (हिन्दी में खरीदी कोडिय़ों के मोल है) में लिखा है बंगाली भद्र लोग कुर्ते और धोती की चुनन की संस्कृति को बचाये रखने के लिए ट्राम के फस्र्ट क्लास के डब्बे में सफर करते थे। उस समय मारवाड़ी व्यापारी या उनके परिवार के लोग ट्रम के सेकण्ड क्लास के डब्बे में ताकि कुछ पैसे बचाये जा सके। बंगाली बाबू के अहम की तृष्टि होती थी यह देखकर कि मारवाड़ी व्यापारियों के परिवार सेकण्ड क्लास में जबकि बंगाली बाबू हाथ में चुनन वाली धोती लेकर ट्राम के फस्र्ट डब्बे में प्रवेश करते थे और मन ही मन बड़े खुश थे कि मारवाड़ी पिछले डब्बे में सफर कर रहे हैं। बिमल मित्रा लिखते हैं कि मारवाड़ी पैसा बचाते और इसी बचे हुए पैसे से उन्होंने कई बंगाली परिवारों की कोठियां खरीद ली। जो भी हो ट्राम का बंगालियों से बड़ा आत्मीय लगाव रहा है।

ट्राम की कहानी सुनिये उसीकी जुबानी


मैं ट्राम हूं... कोलकाता की ट्राम... कहीं सडक़ के बीच, कहीं किनारे, सीधी तो कहीं आड़ी-तिरछी स्टील की समानांतर रेखा पर पहियों के बल मैं कुछ ऐसे दौड़ती नजर आती, जैसे किसी मस्तमौला फकीर से यारी कर ली हो और फिर हम दोनों गलबहियां करते अपनी ही मस्ती में कुछ गुनगुनाते चले जा रहे हों। जैसे कि ये गुनगुनाना ही हमारे जिंदा होने की निशानी है। इस गुनगुनाने में कोई संगीत नहीं, लेकिन अगर हम गुनगुनाए नहीं तो ऐसा लगे कि जैसे संगीत ने शहर से तौबा कर ली हो। 

मैं दिखती हूं तो ट्रेन जैसी, लेकिन ट्रेन की छुक-छुक, धक-धक, धुक-धुक, धडक़-धडक़, पों...से बिल्कुल अलग मेरी अपनी एक अलग लय है, अपनी ही एक धुन और अपना ही एक अलग अलहदा अंदाज। सडक़ पर जमा भीड़-भाड़ के बीच हर आम और खास के अगल-बगल से मैं बड़ी ही जहनीयत के साथ गुजर गई। न रुकी न थकी, न मैंने किसी को डराया और न मुझसे कोई डरा। मैं एक ओर से आती दिखी पर सामने से जा रहे लोग न तो ठिठककर पीछे हुए और न ही उन्होंने घबराकर पटरियां पार की। किसी ने अपनी चाल में कोई बदलाव नहीं किया। 

आप ये पूरा नजारा देखेंगे तो आपको लगेगा कि जैसे कोई बिजली के एक खटके (स्विच) से इस पूरे नजारे को चला रहा है। जब खटका खुलता (स्विच ऑन) है तो नजारे चल पड़ते हैं और ये तब रुकेंगे, जब खटका बंद (स्विच ऑफ) होगा। या फिर ऐसा कहिये के कोलकाता के लोगों ने 150 साल पुरानी मुझ ट्राम के साथ अपनी आत्मा ऐसे जोड़ ली थी, कि वो जैसे इस ज्ञान के ब्रह्म ज्ञानी हो गए हों कि ट्राम कितनी देर में कितनी दूर तय कर लेगी। 

पैदल चलते हुए कितनी जल्दी इसके आगे से निकला जा सकता है और कितनी ही तेजी से चलती ट्राम से उतरा जा सकता है। मैं यानी ट्राम और कलकत्ता दोनों आपस में ऐसा घुल मिल चुके हैं कि कलकत्ता साल 2001 में जरूर कोलकाता हो गया, लेकिन मैं वैसी की वैसी रही। लोहे का डब्बा, खटारा, लकड़ी की बेंच वाली गाड़ी। मुझे छोटे बच्चे देखकर चिल्लाते ट्रेन-ट्रेन, वो देखो ट्रेन..। फिर उनकी मम्मियां बतातीं... अरे वो ट्रेन नहीं, ट्राम है। सच बताऊं, अपनी अलग नाम और पहचान सुनकर मैं खुशी से फूल जाती, फिर धीरे-धीरे खो जाती हूं अपनी उन यादों में जब मेरा दौर भी सुनहरा हुआ करता था। 

साल 1873 में मुझे सियालदह से आर्मेनियन घाट तक घोड़े खींचते हुए ले जाते थे। फिर 1880 में दौर आया मीटर गेज ट्राम सर्विस का और मेरे लिए कलकत्ता ट्रामवेज कंपनी बनाई गई। अब मैं कलकत्ता की शान बनने के सफर पर निकल पड़ी। मैंने लगभग 20 सालों तक गंगा मैया की लहरों संग कदमताल की और देखते-देखते आया साल 1902, जब घोड़ों ने मुझसे विदा ली और अब मैं बिजली से चलने वाली गाड़ी बन गई। फिर तो मैंभी फर्राटा भरने लगी, श्यामबाजार से हाई कोर्ट, फिर निमतला और सियालदह से डलहौजी स्क्वायर, फिर धर्मतला से कालीघाट, कहां से से चली मैं कहां को गई मैं, थे मुसाफिर सभी साथी मेरे। 

कहते हैं न कि हर शहर की अपनी एक छवि होती है, अपना एक चेहरा होता है। कोलकाता के हर चित्र और चलचित्र में मैं हूं। सिटी ऑफ जॉय कहलाने वाले शहर के कैनवस पर मैं उतनी ही जरूरी हूं, जैसे बनारस में गंगा घाट, जैसे राजस्थान में रेत के मैदान, जैसे महालया में सजे-धजे दुर्गा पंडाल और फिर विसर्जन में लाल-सफेद साड़ी पहन सिंदूर खेला करतीं महिलाएं। 

जब भी किसी शाह कार को कोलकाता का खाका खींचना हुआ, तो उसने पहले मुझे चुना। सत्यजित रे की 1963 में आई फिल्म महानगर देखिए। कोलकाता जैसे बड़े शहर में बसने वाली मिडिल क्लास फैमिली की उधेड़बुन को उन्होंने ट्राम के सहारे ही पर्दे पर उतारा। इस महान बंगाली फिल्म का ओपनिंग सीन ही ट्राम की केबल से उठती चिंगारी है, 

कलमबाजों ने भी मेरी तारीफ में काफी कलमें खाली की हैं। खुद गुरुदेव मेरे मोह में ऐसे बिंधे कि बिना मेरे कोलकाता की कल्पना वो भी नहीं कर सके। टैगोर ने अपनी कविता ‘स्वप्न’ में मेरा कुछ ऐसा जिक्र किया है, जिसमें जब वो इस शहर की बारीकियां गिनाते हैं तो लिखते हैं कि ‘कोलकाता की सांप जैसी सडक़ पर ट्राम का बलखाना’। ऐसे ही बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार, सुनिल गंगोपाध्याय, की एक कविता ‘नीरा’ है। इसमें पल-पल बदलते नीरा के चित्त के लिए ट्राम एक रूपक है। 

बात इतनी है कि मैं ट्राम सिर्फ आने-जाने का जरिया नहीं हूं। मैं एक समूचा अनुभव हूं। मेरी धीमी रफ्तार समय का पहिया है और मेरी खिड़कियों से झलकता रहा है हर रोज शहर का नया अंदाज। कोलकाता अगर शरीर है तो मैं इसकी धमनियों में बहता लहूं हूं। सुबह हूं, शाम हूं,  भोले-भाले लोगों जैसी आम हूं। मैं कोलकाता की ट्राम हूं। मैं विदा लेती हूं मेरे अपने कलकत्ता से और आपके कोलकाता से।

खुश रहना मेरे शहर के लोगों - मेरी धीमी चाल से थमी रफ्तार से हुयी असुविधा के लिए क्षमा चाहती हूं।


Comments