गैर हिन्दी भाषियों की हिन्दी सेवा स्तुत्य है

गैर हिन्दी भाषियों की हिन्दी सेवा स्तुत्य है

हिन्दी को स्वतंत्र भारत की राजभाषा बनाने में गैर हिन्दी भाषियों ने भी बड़ा अवदान किया है। इसमें पं. बंगाल के साहित्य एवं शिक्षा मनीषी सबसे आगे हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर दृष्टिापात करने पर हम पाते हैं कि मध्यकालीन साहित्य भक्ति काव्य के रूप में इतना उज्ज्वल, सशक्त, समृद्ध और विविध रूप वाला है कि वैसा अद्भुत साहित्य इतनी बड़ी संख्या में फिर कभी नहीं लिखा गया। लोकजीवन में वह कभी लोकोक्ति के रूप में, कभी कहावत बन कर तो कभी उदाहरण की तरह निरंतर प्रयोग में आता रहा है, वह साहित्य हमारे संस्कारों में घुल मिल गया। वहां हिन्दी भाषी सूर, तुलसी, कबीर, मीर को हमने जितने सम्मान और रुचि के साथ अपने जीवन में शामिल किया है  उतनी ही श्रद्धा और सम्मान के साथ रसखान, रहीम, ज्ञानेश्वर, नामदेव, गुरु नानक, चैतन्य, महाप्रभु, नरसी मेहता को भी सिर आंखों पर बैठाया।


 बाबूराव विष्णु पराडक़र

देश का आध्यात्मिक वातावरण विभिन्न भाषा-भाषियों  को निकट लाने में सहयोगी रहा। उत्तर भारत के तीर्थ यात्री जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम, श्री शलभ, द्वारका, कन्याकुमारी की यात्रा पर सदियों से जाते रहे हैं तो दक्षिण और पश्चिमी भारत के लोग काशी, मथुरा, प्रयाग, अयोध्या, गया, हरिद्वार, बदरनीनाथ, केदारनाथ, अमरनाथ, वैष्णोदेवी की यात्रा करते रहे हैं। सभी भाषा-भाषी लोग आपस में मिलते जुलते हैं और तीर्थ यात्रा के दौरान इन सबकी एक ही सम्पर्क भाषा होती है, वह है हिन्दी।

स्वतंत्रता आंदोलन के समय वैचारिक आदान प्रदान और जनता के बीच संदेश पहुंचाने के लिए जब पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया गया, पर्चे छापे गये और जब सभाओं का आयोजन किया जाने लगा तो सबके बीच एक सूत्र के रूप में हिन्दी भाषा ही थी। देश के सभी भाषा-भाषी पत्रकार समाजसेवी, राजनेता, वकील, शिक्षक , जब एक मंच पर इक्_ा होते थे तब उनके संवाद की भाषा हिन्दी ही होती थी। इन सबमें और हिन्दी भाषियों की संख्या अधिक होती थी। जब भी उन्हें अपनी बात राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचानी होती थी, तब हिन्दी का सहारा लेना पड़ता था। इसलिए उस समय वे सभी शीर्ष नेतृत्व को हिंदी सीखना पड़ता था। हिंदी सीखकर वे अपने कौशल में वृद्धि करने के साथ साथ हिन्दी की सेवा भी कर रहे थे।

हिन्दी पत्रकारिता में जिन पत्रकारों का महत्वपूर्ण योगदान उनमें बाबूराव विष्णु पराडक़र का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिया जाता है। पराडक़र जी अपने मामा की पुस्तक देशेर कथा के हिंदी में अनुवाद करके चर्चित हो गये। उन्होंने कोलकाता से ही हिंदी पत्र भारतमित्र निकाला। उसके सम्पादक  के रूप में उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। पराडक़र जी के सहयोग से वाराणसी से हिंदी का ‘आज’ प्रकाशित हुआ उसके सम्पादक के रूप में उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को भाषाई अखबार से ऊपर उठाकर राष्ट्रीय पहचान दी। मुंबई में भारतीय विद्या भवन के संस्थापक और कुलपति स्व. कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी का हिंदी प्रेम जग जाहिर है। गुजराती भाषी मुंशीजी ने महाभारत के पात्रों योगेश्वर,  श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, पितामह भीष्म इत्यादि का जीवन चरित्र लिखकर हिंदी की बड़ी सेवा की। राजनेता के रूप में और महामहिम राज्पपाल रहते हुए कन्यालाल माणिकलाल मुंशी हिन्दी भाषा में ही अधिकांश काम किया करते थे।

ऐसे भी बहुत से विद्वान हुए हैं जिन्होंने अपनी मातृभाषा के रूप में हिंदी की बड़ी लगन से सेवा  की। विनोबा भावे ने वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना की। बीजारोपण महात्मा गांधी ने इच्छानुसार विद्यालय के रूप में किया था।

बंगाल के राजा राम मोहन राय, केशवनचंद सेन ने अपने समय में देश की धडक़न हिंदी को मानते हुए इसके उत्थान में योगदान किया था। विशाखापतनम की प्रोफेसर एस शेष रलम विगत कई वर्षों से दक्षिण भारत में हिंन्दी के विकास में सहयोग कर रही हैं। चेन्नई से प्रकाशित बालोपयोगी पत्रिका ‘चंदामामा’ के हिंदी संस्करण के पूर्व संपादक डा. बालशौरी रेड्डी आजीवन हिंदी की सेवा करते रहे। तमिलनाडु में विरोध होने के बावजूद उन्होंने हिन्दी पत्रिका का न केवल सम्पादन जारी रखा बल्कि हिंदी की शुद्धता  और उत्कृष्टता का सैदव ध्यान रखा। तमिलनाडु के ही डा एन गोविंदराजन ने दक्षिण में हिंदी के प्रचार प्रसार में अहम् योगदान दिया। पंजाबी भाषी अंग्रेजी के विद्वान डा. नरेन्द्र कोहली ने साहित्य सृजन के लिए हिंदी को अपनाया। अपने व्यंग्य लेखन द्वारा उन्हेंने हिंदी हास्य-व्यंग्य लेखन को तो समृद्ध किया ही है रामकथा पर आधारित उपन्यास अभ्युदय (चार खंड) और महाभारत पर आधारित आठ खण्डों में महासागर की रचना करके हिंदी लेखन को एक नई दिशा निर्धारित  की।

हर वर्ष 10 जनवरी को ‘विश्व हिंदी दिवस’ मनाया जाता है। वस्तुत: इसी तारीख को वर्ष 1975 में मराठी पत्रकार अनंत गोपाल शेवडे के सत प्रयास से पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित किया गया था। दसवां विश्व सम्मेलन वर्ष 2016 में भोपाल में हुआ। विश्व भागीदारी की दृष्टि से यह सर्वोत्तम सम्मेलन था। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिकभाषा बनने में में अन्य देशों का समर्थन जुटाने के लिए भारतीय दूतावासों व मिशनों को और अधिक प्रयास करना चाहिये। वर्ष 2018 में ग्यारहवें विश्व हिन्दी सम्मेलन मारीशस में हुआ वहीं इसके मुख्यालय भी हो जिसके भव्य भवन का शिलान्यास 2015 में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने किया।

Comments

  1. रविवारीय चिंतन

    गैर हिन्दी भाषियों की हिन्दी सेवा स्तुत्य है
    on September 14, 2024
    हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए गैर हिंदी भाषियों का बड़ा अवदान रहा है। महात्मा गांधी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने पर बल दिया था। हिंदी विविध भाषाओं के शब्दों को अपनाने वाली भाषा रही है। संस्कृत देव भाषा इसकी जननी है। प्राकृत पाली अपभ्रंश अवहट्ट भाषाओं की लंबी यात्रा से गुजरती पुरानी हिंदी से अब तक की हिंदी का विकास क्रम बहुत ही लोकप्रिय रहा है। आजादी के बाद भी हिंदी की कहानी बहुत ही असमंजस पूर्ण रही। उसे देश की राष्ट्रभाषा बनने के लिए 15 वर्ष की मोहलत दी गई। परंतु फिर उसे दक्षिण भारत के लोगों ने और भारतीय अंग्रेजी के लोगों ने दूर कर दिया और अंग्रेजी भाषा को ही भारत के लिए उचित बताया। उसे आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया और राजभाषा का दर्जा दिया गया। यह अभी तक राजभाषा ही है अभी हिंदी को बहुत सी परीक्षाओं से गुजरना है।
    भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी ही हो सकती है यह तय है। रविवारीय चिंतन के लिए नेवर जी को धन्यवाद।डॉ वसुंधरा मिश्र, कोलकाता 🙏 🙏



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  2. अत्यंत महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक लेख। हार्दिक बधाई 🌷

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