जुलूसों का शहर कलकत्ता
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कलकत्ता को जुलूसों का शहर बताया था। उनके इस कथन की बहुत चर्चा हुई थी। उनके इस कथन को उनके आलोचकों ने भी खूब ‘वायरल’ किया। प्रशंसकों ने भी नेहरू जी के इस कथन को कलकत्ता महानगर की जिन्दादिली के रूप में बताया। खैर जो हो, कलकत्ता शहर को जुलूसों का शहर बताना इस शहर के चरित्र के अभिन्न अंग को उजागर करता है। प. बंगाल में स्वतंत्रता के पश्चात कांग्रेस की सरकार बनी। पहले मुख्यमंत्री हुए प्रफुल्ल चन्द्र घोष। गांधीवादी एवं सरलता की प्रतिमूर्ति। इसके बाद डॉ. विधानचन्द्र राय ने राज्य की कमान सम्हाली। वे बंगाल के अब तक बने मुख्यमंत्रियों में सबसे अधिक प्रतिष्ठित थे। देश के मशहूर डॉक्टर विधानचन्द्र राय का पं. नेहरू भी सम्मान करते थे। डॉ. राय एकमात्र सर्वमान्य नेता थे। प. बंगाल की सर्वांगीण प्रगति एवं विकास में डा. राय की अग्रणी भूमिका रही। उनके समय में भी लेकिन विभिन्न मुद्दों पर जुलूस निकलते रहे। उनके कार्यकाल में ट्राम का भाड़ा एक पैसा बढ़ाया गया जिसके परिणामस्वरूप कई ट्रामों को स्वाहा कर दिया गया था। खास बात यह है कि इस तरह का हिंसक आंदोलन में कांग्रेस की ही नेता, विधायक शामिल थे। नेपाल राय जोड़ाबागान से दो बार विधायक चुने गये। ट्राम को जलाने के अभियान में नेपाल राय सबसे अधिक सक्रिय थे। डॉ. राय के समय ही पं. नेहरू ने कई बार कलकत्ता का दौरा किया। उसी समय एक सभा में नेहरू जी ने कलकत्ता को जुलूसों का शहर बताया था। यह सही आकलन था क्योंकि इस शहर में बात-बात पर जुलूस निकाले जाते थे। उनके ही कार्यकाल में कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु ने कई बार जुलूसों का नेतृत्व किया। उस समय ‘‘दीते होबे-दीते होबे’’ एक जुमला बन गया था। वे विपक्ष के नेता थे।
आरजी कर कांड के विरुद्ध विशाल रैली
डा. विधानचन्द्र राय की प्रतिष्ठा थी तो ज्योति बसु भी उस समय एक लोकप्रिय नेता बन गये थे। डा. राय के बारे में यह बात मशहूर थी कि विधानसभा में ज्योति बाबू के तीव्र विरोध के बाद वे ज्योति बसु के साथ अपने चेम्बर में बैठकर चाय की चुस्की भी लेते थे। डा. राय उन्हें ‘ज्योति’ कह कर ही पुकारते थे। परस्पर विरोधी होने के बावजूद ज्योति बसु विधान बाबू के प्रिय थे। डा. राय ने विधानसभा में या उसके बाहर कभी भी ज्योति बसु की आलोचना नहीं की। कई कार्यक्रमों में विधान बाबू ज्योति बसु को अपने साथ रखते थे।
डा. विधानचन्द्र राय के निधन के बाद कांग्रेस ने प्रफुल्ल चन्द्र सेन को मुख्यमंत्री बनाया। विधान बाबू के समय में प्रफुल्ल बाबू खाद्य मंत्री थे। उनके कार्यकाल में ज्योति बसु के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर खाद्य आंदोलन हुआ था। राशन में चावल के मूल्य बढ़ाये जाने पर कलकत्ता में भारी आंदोलन हुआ। डा. राय ने उस वक्त भी अपनी भूमिका को अभिभावक की तरह निभाया। वर्ष 1959 में 1 सितम्बर को खाद्य आंदोलन में कलकत्ता को अचल कर दिया गया था। प्रफुल्ल चन्द्र सेन ने उस आंदोलन को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ज्योति बसु एक विप्लवी नेता के रूप में उभरे। जुलूसों से कलकत्ता शहर को पाट दिया गया। खाद्य आंदोलन में गोली भी चली और लोग मारे गये थे। जुलूसों में प्रखरता की शुरुआत उस समय से ही शुरू हो गयी थी। 1 जुलाई को अपने जन्म दिन ही डा. विधानचन्द्र राय की मृत्यु के पश्चात प्रफुल्ल चन्द्र सेन मुख्यमंत्री बने। ज्योति बसु उस वक्त तक बंगाल के तेज तर्रार कम्युनिस्ट नेता बन चुके थे। विधान बाबू के न रहने पर ज्योति बसु ने प्रफुल्ल चन्द्र सेन की आंदोलन कर नींद हराम कर दी। प्रफुल्ल सेन एक गांधीवादी नेता थे। विधान बाबू एवं उसके पहले प्रफुल्ल चन्द्र घोष की तरह प्रफुल्ल चन्द्र सेन भी अविवाहित (बेचलर) थे। और कलकत्ता तथा बंगाल के अन्य हिस्सों में कई राजनीतिक मुद्दों पर आंदोलन का सिलसिला होता रहा। जुलूसों के इस शहर को बामपंथी राज्य माने जाने लगा क्योंकि आये दिन कम्युनिस्ट सडक़ पर उतर कर जुलूस निकालते थे। कलकत्ता शहर का अचल होना रोजमर्रा का काम हो गया था।
प्रफुल्ल बाबू के बाद बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन हुआ। यहां बंगला कांग्रेस के नेतृत्व में अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री बने और ज्योति बसु उप मुख्यमंत्री। अजय बाबू विशुद्ध गांधीवादी नेता थे। अपनी धोती-कुर्ता खुद ही धोते थे। अपने हाथों से सिलाई भी करते। लेकिन ज्योति बसु ने अपने आक्रामक रवैये से उन्हें हमेशा परेशान रखा। ऊंट ने राजनीतिक करवट ली और विधानसभा चुनाव के बाद बाममोर्चा की सरकार बनी। तब तक कम्युनिस्ट पार्टी दो भागों में बंट चुकी थी। सीपीआई और सीपीएण। दो अलग दल होने के बावजूद दोनों धड़ों ने एक दूसरे का साथ दिया। सरकार भी बामपिंथियों की ओर सडक़ पर आंदोलन भी बामपंथियों का। यानि चित भी पट भी दोनों बामपंथियों की। कांग्रेस की शक्ति क्षीण होती गयी। फिर भी जुलूसों का शहर बना रहा कलकत्ता। इस बीच बंगाल में नक्सलवाद पनपा। और नक्सलवाद ने बंगाल में आफत मचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कलकत्ता में आये दिन नक्सलियों का तांडव देखने को मिलता था। वैचारिक रूप से नक्सलवाद जो भी हो लेकिन उन्होंने आमलोगों का कई स्थानों पर जीवन दुभर कर दिया। निहत्थे लोगों की हत्यायें हुई। बाद में कम्युनिस्ट दलों के साथ कांग्रेस ने मिलकर नक्सल के सभी समूहों का सफाया किया।
34 वर्ष शासन के बाद बाममोर्चा सरकार का सूर्यास्त हो गया। ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस बंगाल की सत्ता पर काबिज हुई। ममता ने बंद को बंद कर दिया एवं जुलूस आदि पर कोई औपचारिक बैन लगाये बिना ही उससे बंगाल की जनता को निजात दिलाया। बंद का अवसान एवम् जुलूसों से मुक्ति बंगाल के लिए अकल्पनीय था। लेकिन ममता सरकार की यह उपलब्धि कही जायेगी कि आये दिन बंद और जुलूस इतिहास के पन्नों में सिमट गया। तृणमूल सरकार का यह तीसरा कार्यकाल है। आरजी कर का नृशंस हत्याकांड ने ममता के लगभग बारह साल के अनवरत शासन के खिलाफ जन आक्रोश प्रस्फुटित हुआ। और 9 अगस्त जब आरजी कर के सरकारी अस्पताल में एक इंटर्न लेडी डॉक्टर का कथित गैंग रेप और हत्या ने फिर से कलकत्ता की सडक़ों पर जुलूस का सिलसिला शुरू हो गया। लगभग दस वर्ष तक जुलूस के ²श्य से वंचित कलकत्ता पुन: अपने पुराने स्वरूप में लौट आया। मात्र दो सप्ताह के अन्तराल में इतने जुलूस निकले हैं कि लगता है कई वर्षों के अभाव की भरपाई हो गयी। ममता बनर्जी के पदत्याग से लेकर दोषी को फांसी देने की मांग पर कई पार्टियों, छात्रों एवं गैर राजनीतिक दलों ने जुलूस निकाले हैं। यहां तक कि खुद मुख्यमंत्री ममता भी सडक़ पर उतर गयी हैं और उन्होंने भी अपराधी को फांसी देने की मांग को लेकर जुलूस निकाला। ‘‘पृथ्वी गोल है’’ की तरह हम पुन: उसी जगह पहुंच गये जहां से चले थे। अब देखिये आगे होता है क्या?
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