उत्तरायन से दक्षिणायन की ओर
नया ठिकाना ‘राजस्थली’
मेरी उम्र 8-9 वर्ष की रही होगी। वर्ष 1951 या 52। कलकत्ता शहर में पहला कदम। किसी बड़े शहर जहां गाडिय़ां दौड़ती हों ऐसे मुकाम को पहली बार देखा। छोटे से कस्बे में बचपन बिता कर अचानक एक बड़े महानगर में आने पर बालक मन किस अचरज या अनुभव से गुजरा होगा उसकी कुछ धुंधली स्मृति आज भी मानस पटल पर है। कलकत्ता में मेरा पहला घर अपर चितपुर रोड (अब रवीन्द्र सरणी) में नूतन बाजार के पास था। तीन तल्ले के इस मकान के सबसे ऊपर के तल्ले में तीन कमरे का हमारा मध्यवर्गीय आवास। दक्षिण में खुला बड़ा हवादार। सामने छत थी जिसका हम भरपूर उपभोग करते थे। उत्तर कलकत्ता में जीवन का आरम्भ हुआ। नीचे बर्तन की दुकान सभी बंगालियों की। मकान में कोई बंगाली परिवार नहीं था किन्तु बगल वाला मकान बंगाली महाशय का था, तो कभी-कभी टूटी-फूटी बंगला में बातें हो जाती थी। बंगला आती तो नहीं थी पर हम समझ लेते थे। मकान में सभी मारवाड़ी थे। कुल मिलाकर 10-12 परिवार थे। पूरे मकान में एक टेलीफोन था, सिर्फ मकान मालिक के घर। उनके अलावा किसी के पास गाड़ी नहीं थी। पास की ही एक स्कूल में एक साल में दो क्लास की पढ़ाई की। नजदीक में एक गुरु पाठशाला में भी गया जहां शिक्षा के नाम पर कुछ पहाड़े और गणित के गुर सिखाये जाते। विधिवत् स्कूल घर से कुछ दूर श्री डीडू माहेश्वरी पंचायत विद्यालय में हुई। पड़ोस के बच्चों के साथ वहां बचपन बड़े ही मौज में बीता। इसी बीच स्कूल के सामने वाली गली के पूर्वाद्र्ध में एक बड़ी स्कूल खुली। श्री दौलतराम नोपानी विद्यालय अब इसका नाम नोपानी हाई हो गया है। आठवीं से दसवीं कक्षा हमारा पाठन इस स्कूल में हुआ। आसपास का माहौल अनुकूल था। गाड़ी ठीक ही चली। कुछ उतार-चढ़ाव के साथ जीवन का सफर आगे बढ़ता गया। तब से लेकर लगभग 70 वर्ष बचपन, किशोरावस्था, जवानी, प्रौढ़ अवस्था के सैकड़ों खट्टे-मीठे अनुभव दिल में छिपाये हुए हूं। अभी तक जीवन उत्तर कोलकाता में ही गुजरा है। बागबाजार में 1966 से 2024 के कुछ दिन पहले तक मैंने जीवन को उत्तर कोलकाता में ही बिताया। ट्राम, बस, रिक्शा और फिर अपनी गाड़ी सभी तरह के परिवहन से आवाजाही होती रही है। 68 साल का एक लम्बा अन्तराल पुराने उत्तर कलकत्ता की गली कूचे में बिताये हैं। सभी तरह की आवोहवा के थपेड़ों से जीवन गुजरा है। बंगला स्कूल में नहीं पढ़ी। बंगालियों की संगत, कॉलेज में सहपाठियों ने भाषाई घुट्टी पिलाई और हिन्दी के साथ बंगला भी बोलचाल में मुखरित होती गयी। शुरू के कुछ वर्षों बाद बागबाजार में बंगाली संस्कृति के घटाटोप में गुजरा। मेरा सौभाग्य है कि बंगालीपन की शौखियों और उसके लावण्य को जीवन में आत्मसात करता गया। एक गैर बंगाली को बंगाल की खूबियों और दुर्बलताओं ने खूब घोटा और तराशा। अपने को बंगाली कहने में बड़ा रोमांच का अनुभव होता था। घर के पास चैतन्य महाप्रभु का गौड़ीय मठ में कई बार बुलाया गया और वहां के महाराजा गोष्ठी से भी मिलने और बात करने से तृप्ति मिलती थी। चार साल नक्सलवाद के उग्र रूप को भी आंखों ने झेला। उसी दौरान कॉम्बिंग ऑपरेशन से भी सामना हुआ। दुर्गापूजा में चन्दे को लेकर पाड़े के दादा की मनमानी को झेला भी और साहस बटोर कर उसका सामना करने का अनुभव लिये हुए हंू।
जीवन का एक बड़ा हिस्सा पैदल चलने या पब्लिक ट्रांसपोर्ट में इधर-उधर आने-जाने में खप गया। राजनीति और साहित्य के कुछ ंमनीषियों से भी सम्पर्क हुआ और उन्हें नजदीक से देखने और समझने के भी मौके आये। कुल मिलाकर उत्तर कोलकाता जिसकी बुनियाद बंगाली जमींदार के वे घरौंदे हैं जो अब करीब-करीब खंडहर में तब्दील हो रहे हैं से भी रूबरू होकर बंगाली इतिहास में झांक कर मार्मिक समय बिताया हूं। मल्लिक बाड़ी से लेकर कई बनेदी परिवारों के उजड़ते हुए साम्राज्य का इतिहास को अनुभव किया है। आध्यात्म में बंगाली की गहरी पैठ और माक्र्सवादी चिन्तन में बंगालियों की स्वाभाविक आस्था के द्विपक्षीय पक्ष को समझने में माथापच्ची करनी पड़ी। सत्तर वर्ष की लम्बी इनिंग खेलकर उत्तर कलकत्ता से विदाई ली तो बड़ी मानसिक परेशानी झेलनी पड़ रही है। मैंने कभी सोचा नहीं था कि जिस दक्षिण कलकत्ता को कई बार कोसने और उसे भद्र लोगों का मायाजाल समझता रहा वहां कभी मेरा आशियाना होगा।
दो वर्ष पहले परिवार के प्रसार के परिणामस्वरूप स्थानाभाव ने कुछ समस्यायें पैदा कर दी और इसका एक ही समाधान था कि हम कहीं और बड़ी जगह में जाकर बसें। फिर भी उत्तर कलकत्ता ही मन में बसा था। किन्तु किसी उपयुक्त स्थान नहीं मिलने की परिस्थिति में मुझे अपनी दुर्बलता से समझौता करना पड़ा। दक्षिण कलकत्ता मेरी नीयति का मुकाम तय हो गया। कहते हैं किसका कहां दानापनी लिखा है कोई बता नहीं सकता। मुद्दई लाख चाहे तो क्या होता है, होता है वही जो मंजूरे खुदा होता है। दक्षिण कलकत्ता के मेफेयर रोड का उत्तराद्र्ध में पहली बायीं और गली जे के लेन (जमादार खान लेन) में घुमते ही राजस्थली कॉम्प्लेक्स में एक आसरा में हमारा नया ठिकाना है। राजस्थानी झरोखे और स्थापत्य कला में बने हुए सौलह मकानों का यह खूबसूरत कॉम्प्लेक्स जयपुर पिंक सिटी का कलकतिया अवतार है। मैं शुरू से ही विविध संस्कृति एवं जाीवन शैली का फैन रहा हूं। मुझे संतोष है कि मेरे बगल के मकान में एक सिख परिवार है जबकि कॉम्प्लेक्स में अधिकांश मारवाड़ी भाई हैं। निकट में मुस्लिम परिवारों का मोहल्ला है जिसके पास एक मस्जिद है जहां सुबह अजान सुनाई देता है। पुराने आवास में सुदूर काशीपुर की मस्जिद से आजान की धीमी आवाज सुबह सुनाई दे जाती थी। किन्तु वहां बाबा लोकनाथ एवं बगल में कुम्हालटोली के मंदिरों में भजन-कीर्तन कर्णसात होते थे। आइस स्केटिंग रिंक नये आवास के पास है पर अब मॉडर्न हाई स्कूल ने उसका वरण कर लिया। बिड़ला जी का सुप्रसिद्ध राधाकृष्ण मंदिर जिसके नीचे जी डी बिड़ला सभागार है, कुछ दूरी पर ही है। पंजाब विरादरी का भवन में विवाह एवं सामाजिक कार्यक्रम होते हैं इस क्षेत्र का लैंड मार्क है। पार्क सर्कस क्षेत्र में कलकत्ते का बड़ा मॉल क्वेस्ट मॉल पहाड़ की तरह फैला शॉपिंग सेन्टर है।
उत्तर कलकत्ता बंगाल की धडक़न है। दक्षिण कभी शरणार्थियों की पनाह स्थली रही है। अब बड़ा मकान, बाजार बन गये हैं। शहर के कुबेरों की बड़ी बस्ती है एवं नामीग्रामी लोगों का वास स्थान है। ऐसी वादियों में हमारा राजस्थली की भव्यता और उसका लिवास मनोरम है। अब जो शेष जीवन बचा है यहां गुजारना है और इसी से कर्मस्थली का निर्वाह करना है।
उत्तर और दक्षिण कलकत्ता में लाइफ स्टाइनल बहुत भिन्न है। पर सूर्य की तपिश एवं चन्द्रमा की शीतलता दोनों पर समान रूप से बरसती है, कोई भेदभाव नहीं करती।

आदरणीय मैं आपका रविवारीय चिन्तन जल्दबाजी में न पढ़ कर,इत्मीनान से पढ़ना ही रुचिकर समझता हूँ,भले इसके लिए मुझे दो-चार दिनों का इंतजार ही क्यों न करना पड़े। आदरणीय आपने कोलकाता को किसी कोलकाता जन्मा व्यक्ति से कहीं बढ़ कर जिया है,यह पहले के आपके कई आलेखों में भी मैं देखता आया हूँ। आप उत्तर कोलकाता से मानसिक शारीरिक औऱ वैचारिक रूप से अन्तसपूर्ण ढंग से जुड़े रहे हैं, आपका उत्तर कोलकाता प्रेम भावुकता को स्पर्श करता है। आप दक्षिण कोलकाता से कभी जुड़ाव नहीं रख पाए,यह आपके आलेख में परिलक्षित है।..किन्तु आदरणीय जैसा कि मैं आपको जानता हूँ, आप पत्रकार से किसी मायने में कम साहित्यकार भी नहीं हैं!!...अपनी अंतिम पंक्ति में आपने सब कुछ कह दिया कि "सूर्य की तपिश एवं चंद्रमा की शीतलता दोनों पर समान रूप से बरसती है"।...क्या सुन्दर अभिव्यक्ति है आदरणीय आपकी.इन पंक्तियों में... नतमस्तक हूँ,आपकी इन सहित्य से ओतप्रोत पंक्तियों की अभिव्यक्ति पर!!...हम सब आपके अनुयायी इस प्रतीक्षा में रहेंगे आदर्णीय,जब आप किसी शुभ अवसर पर अपने नए आशियाने पर हम सबको बुला कर अपना स्नेहवत्सल आशीष प्रदान करेंगे।
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