लोकतंत्र के लिए इनकी कुर्बानी भी क्या याद करेंगे?

 लोकतंत्र के महापर्व का 1 जून को समापन हो गया। मतदान के लिए इस बार देश की विभिन्न सामाजिक संस्थाओं ने भी अपनी भूमिका निभायी। बड़ी संख्या में जागरुक नागरिकों ने भी वोट देने का आह्वान किया। कुछ समाचारपत्रों ने तो चुनाव के प्रारम्भ से आखिर तक एक स्तम्भ ही बना दिया था जिसमें सार्वजनिक जीवन से जुड़े लोगों ने लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए सभी को वोट देने की अपील की। हरसम्भव प्रयास किया गया कि लोग मतदान में भाग लें। लोकतंत्र के प्रति कर्तव्य निर्वाह की एक लहर देखी गयी। इन सारे प्रयासों के बावजूद वोट कम गिरे। कुछ लोग कम मतदान से भी परेशान दिखाई दिये। उनकी परेशानी यह थी कि जागरुकता का इतना बड़ा अभियान चलाया गया, फिर भी लोग कान में अंगुली घुसा कर बैठे रहे।

स्थानीय अस्पताल में चिकित्साधीन चुनावकर्मी।

18वीं लोकसभा का चुनाव भारत के राजनीतिक इतिहास में 1952 के बाद का सबसे लम्बा चुनाव था। लगभग एक सौ करोड़ मतदाताओं को मतदान के लिए 44 दिनों का लम्बा समय दिया गया। केन्द्रीय बल, अद्र्धसैनिक बल, पुलिस सहित सुरक्षा के सारे बंदोबस्त किये गये ताकि चुनाव में कोई खलल नहीं पहुंचाये। नि:सन्दोह इस बार का चुनाव मोटामोटी शांतिपूर्ण ही रहा। हर चुनाव में जिन क्षेत्रों में हिंसा कांड होते रहे, वे भी इस बार शांत थे।

कम मतदान का विश्लेषण किया गया। कई कारण निकल कर आये।  इसमें सबसे अधिक चर्चा रही देशभर में प्रचंड गर्मी की। इस बार गर्मी भी कुछ ज्यादा ही पड़ी। कई क्षेत्रों में तो लगा आग बरस रही थी। भारत ही नहीं दुनिया के अन्य देशों में भी सूर्य भगवान पूरे आक्रोश में दिखाई दिये। यूरोप और अमेरिका भी ऐतिहासिक गर्मी का सामना कर रहे थे।

ऐसे समय जब पूरा देश आग की भट्टी बना हुआ था, भारतीय लोकतंत्र का उत्सव मनाया गया। 19 अप्रैल से 1 जून यानि लगभग डेढ़ महीने तक चुनाव की प्रक्रिया चलती रही। चुनाव के इतिहास के पन्ने को उलट कर देखें तो देश में आम चुनाव मार्च-अप्रैल में ही किये गये हैं। इसका कारण जाहिर है कि देश भर में इस समय मौसम अनुकूल रहता है। चुनाव आयोग ने ऐसे समय चुनाव में देश को झोंक दिया जब गर्मी अपने पूरे आगोश में रहती है। स्कूलों में गर्मियों की छुट्टी 10-15 मई के दौरान शुरू हो जाती है जब बड़ी संख्या में छात्र अपने अभिभावकों के साथ मौसम बदलने के लिए कहीं चले जाते हैं। जाहिर है ऐसे समय में चुनाव में बहुत से मतदाता अपने घरों से बाहर रहते हैं। चुनाव का वैसे भी यह उपयुक्त समय नहीं है।

चुनाव आयोग एक स्वतंत्र व स्वायत्त संस्थान है। लेकिन यह कैसी विडम्बना है कि इस संस्था ने यह स्थितियां भापी ही नहीं। आपदाओं को आप हम सभी जानते हैं। घर में शादी-विवाह या सामाजिक आयोजनों में ये सभी चर्चाएं की जाती है। अंगुलियों से गिन लेते हैं मुसीबत के इन दिनों को। लेकिन चुनाव आयुक्त ने इस आबो हवा से आंख मंूद ली। ठीक वैसे ही जैसे कबूतर आंख बंद कर लेता है जब बिल्ली उसको झपट्टा मारने के लिए बढ़ती है। वह नादान सोचता है जैसे वह बिल्ली को नहीं देख रहा है वैसे ही बिल्ली उसे नहीं देख रही है। और फिर इसका क्या अन्जान होता है, आप जानते ही हैं। निर्वाचन आयोग ने भीषण गर्मी के बीच चुनाव कराने को गलती माना है। साथ ही यह भी स्वीकार किया कि चुनाव गर्मी के मौसम में नहीं कराये जाने चाहिए। सब कुछ लुटाने के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने प्रेस कांफ्रेन्स की। मीडिया ने उन पर सवालों की झड़ी लगा दी। राजीव कुमार ने कहा चुनाव से सबसे बड़ी सीख यही मिली है कि यह प्रक्रिया गर्मी के पहले पूरी हो जानी चाहिए। आप को मालूम होगा ही कि करीब 10 लाख अधिकारी मतगणना प्रक्रिया में शाीमिल हुए थे और कुल राजनीतिक व अन्य को जोड़ दिया जाये तो करीब 70 से 80 लाख लोग इस प्रक्रिया का हिस्सा बने। चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठने शुरू हो गये थे। राजीव कुमार ने गर्मी को भी प्रमुख विषय माना और कहा कि मतदान की प्रक्रिया को इतना आगे नहीं ले जाना चाहिए था। राजीव कुमार ने यह भी कहा कि चुनाव आयोग के निर्णयों पर इतने सवाल उठेंगे इसका उन्हें अनुमान नहीं था।

लोकतंत्र को उत्सव बनाने में सारी आपदाओं को जिन्होंने झेला उन्हें सलाम करने की जरूरत है। अधिकारियों को सारी सुविधाएं मिली, राजीव कुमार को कोई बड़ा पद मिल सकता है। चुनाव की प्रक्रिया से जुड़े लाखों लोगों को आग की दरिया में झोंकने का कुछ बड़ा ईनाम मिलने के वे अवश्य हकदार हैं। हमारी आशंका कहां तक तर्कसंगत है यह भविष्य ही बतायेगा। किन्तु हमारे उत्सव को निर्विघ्न बनाने हेतु जिन लोगों की प्राणहानि हुई उसे क्या याद किया जायेगा। ये चुनावकर्मी देश के वे सैनिक हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया यहां तक अपना प्राण तक दे दिया ताकि हमारा लोकतंत्र उत्सव निर्विघ्न सम्पन्न हो जाये।

बिहार से मतदान ड्यूटी से लौट रहे प्रतापी गांव प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक ललित प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू कॉलेज के शिक्षक समध्यान चौधरी हीटवेब की भेंट चढ़ गये। बिहार में इन मौतों को लेकर शिक्षकों में बेहद नाराजगी है। एक दूसरी सूचना के अनुसार पॉली टेक्निक से रवाना होने के दौरान मतदान स्थल पर पहुंचते-पहुंचते कई लोग बीमार हो गये जिनको उपचार हेतु अस्पताल ले जाया गया। पांच होमगार्ड, सीएमओ कार्यालय के एक लिपिक और एक सफाईकर्मी की मौत हो गयी। सब मिलाकर 30 से अधिक लोगों के प्राण चले गये। मिर्जापुर के पास पोलिंग पेटियां मतदान स्थल पर पहुंचने लगी। अस्पताल पहुंचने पर होमगार्ड राम जियावन, सत्यप्रकाश, त्रिभुवन, रामकरन, बच्चाराम, शिवपूजन श्रीवास्तव, रविप्रकाश की मौत हो गयी। भीषण गर्मी से चुनावकर्मियों को सुरक्षित रखने में बरती गयी बदइंतजामी की वजह से जिनके परिवार उजड़ गये हैं उनको भावनात्मक राहत भी नहीं पहुंचायी गयी। उत्तर भारत में पड़ी भीषण गर्मी की चपेट में आने पर कम से कम 40 चुनावकर्मियों की मौत हो गयी।

यह सब क्यों हुआ, सिर्फ गरमी में चुनाव का निर्णय और गर्मी से बचने की नाइन्तजामी इसका प्रमुख कारण है। मृत्यु के बाद हो सकता है, उनके परिवारों को कुछ रुपये मुआवजे के बतौर मिल जाये पर जीते जी उन्हें न्यूनतम सुविधा मुहैया नहीं की गयी। कुछ चुनावकर्मी जिन स्थानों पर रह रहे थे वहां पंखे का भी बंदोबस्त नहीं था। फलस्वरूप उन्हें तेज बुखार हो गया और अन्त में उन्होंने दम तोड़ दिया।

लोकतंत्र के उत्सव पर हम सबको फक्र है। फक्र है कि हम दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी हैं। पर इसके लिए कुर्बान हुए लोगों को क्या याद किया जायेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि लोकतंत्र के उत्सव में हम उन सैनिकों को भूल जाएं जो चुनाव आयोग की भूल का शिकार हो गया। अभी तक चुनाव आयुक्त ने उनके लिए संवेदना भी प्रकट नहीं की है। जिन लोगों ने वोट देने के लिए जागरुकता के अभियान में अपने सार्वजनिक जीवन को सार्थक बनाने हेतु सुर्खियां बटोरी उनका भी यह कर्तव्य है कि इन शहीद हुए चुनावकर्मियों की कुर्बानी के लिए भी दो फूल चढ़ायें।


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