राजनीति के हाशिये पर तमाशाई बन गया है मारवाड़ी समाज
अपने प्रदेश से निकल कर राजस्थानी या मारवाड़ी समाज रोजगार एवं उद्यम के लिए भारत के कोने-कोने में गया। कहते भी हैं - जहां न पहुंची बैलगाड़ी वहां पहुंचा मारवाड़ी। यह कहावत बिलकुल समाज पर चरितार्थ होती है। भारत का ऐसा कोई दूरदराज का कोना भी नहीं है जहां मारवाड़ी जाकर नहीं बसा हो। अपने उद्यम और पुरुषार्थ के बल पर समाज ने अपनी पहचान बनायी। मुझे बंगाल एवं कलकत्ता का तजुर्बा है हालांकि भारत के सभी प्रदेशों में इस उद्यमी समाज ने अपने को खपाया है। उदार प्रवृत्ति, विनम्रता और सूझबूझ के कारण राजस्थान के बनिया समाज ने अपना स्थान बनाया। आज तो यह स्थिति है कि व्यापारी समाज ने सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक आदि सभी क्षेत्रों में अपना मुकाम हासिल किया है।
15 मई को राजस्थान के मुख्यमंत्री अभिनंदन समारोह में अव्यवस्था का आलम।
स्वतंत्रता के पश्चात् प. बंगाल में कांग्रेस की सरकार बनी। उस वक्त राजनीति में तपस्वी नेता थे जो आजादी के संदर्भ में अपनी आहुति देकर जनजीवन में उभरे थे। मारवाड़ी समाज ने उस ऐतिहासिक दौर में भी अपने को अग्रिम पंक्ति में रखा। स्थानीय लोगों की इस गलतफहमी के बावजूद कि यह समाज सिर्फ कमाने के लिए आकर बसा है मारवाड़ी समाज का राजनीति में अच्छा-खासा प्रतिनिधित्व देखा गया। बंगाल जैसे जागरुक राज्य में उप मुख्यमंत्री जैसी उच्च राजनीतिक व्यास पीठ पर मारवाड़ी समाज के विजय सिंह नाहर काबिज हुए। सिर्फ पद पर बने रहने का ही नहीं उन्होंने अपना राजनीतिक प्रभाव कायम किया और बंगाल की राजनीति में अहम् भूमिका निभायी। यही नहीं श्री ईश्वरदास जालान प. बंगाल विधानसभा के स्पीकर (अध्यक्ष) निर्वाचित हुए। स्पीकर के रूप में उस वक्त विपक्ष के बहुचर्चित माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ज्योति बसु को विधानसभा में शरण दी एवं अपनी ही सरकार के आदेश के कोपभाजन बनने से ज्योति बाबू को बचाया। मुझे याद है जब ज्योति बसु मुख्यमंत्री बने तब उनको ईश्वरदास जी के दिवंगत होने के बाद उनकी शोकसभा में मैं स्वयं लेकर आया था। मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी में हुई इस शोकसभा में ज्योति बाबू ने स्वयं इस घटना का जिक्र किया और ईश्वर दास जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को पूरे सम्मान के साथ याद किया। उसके बाद रामकृष्ण सरावगी भी राज्य के मंत्री बने एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के बहुत विश्वसनीय सहयोगी बने। रामकृष्ण सरावगी मंत्री के रूप में भी सिंधी बगान के दो कमरे के साधारण फ्लैट में ही रहे। जब शासन बदला रामकृष्ण सरावगी ने स्थानीय समाचार पत्र में अपने मंत्रीकाल के बारे में ‘‘जस की तस धरदीनी चदरिया’’ शीर्षक लेख लिखा। जिस दिन मंत्री पद से हटे सरकारी गाड़ी छोड़ दी और फिर पहले की तरह ट्राम, बस में घूमने लगे । इसके पहले के दौर में आनन्दी लाल पोद्दार विधायक थे एवं बहुत सम्पन्न होते हुए भी मोटी खद्दर पहनकर अपना सार्वजनिक जीवन को गरिमा प्रदान की। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू जब कलकत्ता आते थे उनकी गाड़ी के ड्राइवर आनन्दी लाल पोद्दार होते थे। पहले हिन्दी भाषी मेयर एवं कलकत्ता ट्रामवे कम्पनी के पहले भारतीय निदेशक बने। उन्हीं के परिवार के बद्री प्रसाद पोद्दार और उसके बाद देवकी नन्दन पोद्दार विधायक बने। देवकी बाबू के बारे में यह मशहूर था कि आधी रात को भी वे किसी की मदद के लिए पहुंच जाते थे। दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम करना उस वक्त के राजनीतिक जीवन का आभूषण था। इसके बाद प्रतिनिधित्व करने का अवसर राजेश खेतान, सत्यनारायण बजाज को भी प्राप्त हुआ।
इसके बाद मारवाड़ी समाज का राजनीतिक प्रतिभागिता का ग्राफ गिरने लगा। दिनेश बजाज पिता की विरासत के कारण विधायक तो बन गये किन्तु एक चुनाव के बाद उनकी पार्टी ने उन्हें टिकट देना भी मुनासिब नहीं समझा।
आज मारवाड़ी समाज का राजनीतिक प्रतिनिधित्व लगभग समाप्त हो गया। दिनेश बजाज को जहां अपनी विधायकी टिकट से हाथ धोना पड़ा वहीं विवेक गुप्ता अपने बड़े अखबार के प्रभाव के कारण राज्यसभा में मनोनीत हो गये किन्तु उनकी पार्टी ने उन्हें दूसरा टर्म नहीं दिया। सिर्फ बंगाल में ही नहीं महाराष्ट्र में सन् 70 से लेकर 90 तक मारवाड़ी मंत्री, सांसद और विधायक भी रहे किन्तु वहां भी अब मारवाड़ी समाज का प्रतिनिधित्व लगभग नगण्य है। कृष्णकुमार बिड़ला, रघुनाथ प्रसाद खेतान, राज्यसभा में मनोनीत हुए जबकि रामेश्वर लाल टांडिटया चुनाव लडक़र सांसद बने और कांग्रेस के कोषाध्यक्ष भी। सेठ गोविन्द दास जैसे लोग 6 बार लोकसभा चुनाव जीतकर संसद के प्रोटम स्पीकर तक बने। राजनीति में मारवाड़ी समाज की उपस्थिति का ग्राफ अब लगभग धराशायी हो चुका है। यह किसी व्यक्ति विशेष की चिन्ता का विषय नहीं है अपितु पूरे समाज के चिन्तन और मंथन का विषय है। आज का मारवाड़ी राजनीति को अवसरवादिता का फंडा समझता है। कुछ लोग समझते हैं कि राजनीतिक सत्ता पैसे से खरीदी और बेची जा सकती है इसके लिए तपस्या या निष्ठा की आवश्यकता नहीं है।
समाज राजनीति के किस मोड़ पर खड़ा है उसकी झलक हाल के दो कार्यक्रमों में देखने को मिली। लोकसभा निर्वाचन में प्रचार करने के लिए राजस्थान के नव निर्वाचित मुख्यमंत्री कलकत्ता आये। दोनों बार उनके सम्मान में बड़ाबाजार के एक मॉल में आयोजन हुआ। एक छोटे से अन्तराल में दुबारा अभिनन्दन हुआ। मुख्यमंत्री के सम्मान में लोग टूट पड़े। फोटो खिंचवाने सेल्फी लेने की होड़ लग गयी। अभी मुख्यमंत्री का नाम भी लोग ठीक से नहीं जान पाये थे किन्तु उनके स्वागत में कोई कसर नहीं रह जाये इसके लिए दर्शनार्थियों में भगदड़ सी मच गयी। कई विशिष्ट महिलायें गिर पड़ी। 3 घंटे देर से पधारे मुख्यमंत्री आठ मिनट में ही रुकसत हो गये और फूल मालायें कुछ उनके गले में पड़ी और कुछ फर्श पर बिखर गयी।
मैंने किसी की गरिमा को कम करने की मंसा से यह नहीं लिखा है किन्तु पीड़ा इस बात की है कि हम कहां से कहां आ गये। आज मारवाड़ी समाज का राजनीतिक प्रतिनिधित्व शून्य हो गया है लेकिन समाज की गरिमा को भी धूल चटाने में हमने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं उठा रखी है।
राजनीतिक प्रतिनिधित्व आज के युग में और विशेषकर लोकतांत्रिक व्यवस्था में कितना अहम् है यह बताने की जरूरत नहीं। हम कभी राजनीति में जागरुक सिपाही थे आज राजनीति में तमाशायी बनकर बैठे हैं। राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की इन दो लाइनों में आज की स्थिति का आह्वान है-
हम क्या थे, क्या हो गये और क्या होंगे अभी
आओ मिलकर विचारें ये समस्यायें सभी।

Yes it is true incident
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