हिन्दू समाज को तलाक से भी बड़ा खतरा है वैवाहिक संस्कारों में आयी आराजकता से
देश की सर्वोच्च अदालत को यदि विवाह जैसे बेहद व्यक्तिगत मामले में परामर्श देना पड़ा है तो इसका अभिप्राय यही है कि वैवाहिक संस्कारों में तेजी से गिरावट आ रही है। दूसरे शब्दों में विवाह के मूल स्वरूप के साथ खिलवाड़ हो रहा है। कोर्ट को सख्त लहजे में यहां तक कहना पड़ा कि विवाह यदि सप्तपदी यानी सात फेरे जैसे परम्परागत संस्कार और आवश्यक समारोहों एवं अनुशासन को ताक पर रखकर होता है तो वह अमान्य ही होगा। निश्चित रूप से अदालत ने यह बताने का प्रयास किया कि इन परम्पराओं के निर्वहन से ही विवाह की पवित्रता और विधिवता जरूरतों को पूरा किया जा सकता है। दरअसल, हाल के वर्षों में विवाह समारोहों के आयोजन में पैसे के फूहड़ प्रदर्शन व तमाम तरह के आडंबरों को तो प्राथमिकता दी जा रही है, लेकिन परम्परागत हिन्दू-विवाह के तौर-तरीकों को लगातार नजरंदाज किया जा रहा है। कुछघ दशक पहले हिन्दी फिल्मों में हास्य पैदा करने के लिए विवाह से जुड़ी परम्पराओं का जिस तरह का मजाक बनाया जाता था, आज कमोबेश वैसी ही स्थिति समाज में भी बनती जा रही है। वर-वधु द्वारा अपने जीवन के एक महत्वपूर्ण अध्याय को शुरू करने के वक्त विवाह के आयोजन में जो शालीनता, गरिमा व पवित्रता होनी चाहिए, उसे खारिज करने की लगातार कोशिशें की जाती रही हैं। यही वजह है कि अदालत को याद दिलाना पड़ा कि हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत विवाह की कानूनी जरूरतों तथा पवित्रता को गंभीरता से लेने की जरूरत है। जिसके लिए पवित्र अग्नि के चारों ओर लगाये जाने वाले फेरे जैसे संस्कारों व सामाजिक समारोह से ही विवाह को मान्यता मिल सकती है।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में हमारे सोलह संस्कार बताये गये हैं। इन संस्कारों में काफी महत्वपूर्ण विवाह संस्कार है। शादी को व्यक्ति का दूसरा जन्म भी माना जाता है क्योंकि इसके बाद वर-वधू सहित दोनों के परिवारों का जीवन पूरी तरह बदल जाता है इसलिए विवाह के संबंध में कई महत्वपूर्ण सावधानियां रखना जरूरी है। गृहस्थाश्रम का आधार ही विवाह संस्कार है। इस संस्कार के बाद वर-वधू अपने नये जीवन में प्रवेश करते हैं। हिन्दू संस्कारों में विवाह संस्कार बेहद अहम होता है। केवल संस्कार नहीं है बल्कि यह एक पूरी व्यवस्था है। इसी संस्कार के बाद से मनुष्य के चार आश्रमों में से सबसे अहम आश्रम यानि गृहस्थ आश्रम का आरंभ होता है। हिन्दू धर्म में विवाह का बंधन जन्म जन्मांतर का माना जाता है। श्रुति ग्रंथों से विवाह के स्वरूप को व्याख्यायित किया गया है। इसमें कहा गया है कि दो शरीर, दो मन, दो बुद्धि, दो हृदय, दो प्राण एवं दो आत्माओं का मेल ही विवाह है। इस बारे में मनु ने लिखा है कि-
दश पूर्वांन् परान्वश्यान् आत्मनं चैकविशकम्।
ब्राह्मीपुत्र: सुकृतकृन् मोचर्य देनस: पितृन।।
अर्थात् हिन्दू धर्म में विवाह भोग लिप्सा का साधन नहीं है। इसकी धार्मिक मान्यताएं हैं। इसके अनुसार, अंत: शुद्धि होती है। जब अंत:करण शुद्ध होता है तभी तत्वज्ञान होता है। यही मनुष्य जीवन का परम ध्येय भी होता है।
सृष्टि के आरंभ में विवाह जैसी कोई प्रथा नहीं थी। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से यौन-संबंध बनाकर संतान पैदा कर सकता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष को ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था। यह व्यवस्था वैदिक काल तक चलती रही। इस व्यवस्था को परवर्ती काल में ऋषियों ने चुनौती दी तथा इसे पाश्विक संबंध मानते हुए नये वैवाहिक नियम बनाये। ऋषि श्वेत केतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा की रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की और तभी से कुटुम्ब-व्यवस्था का श्री गणेश हुआ।
एक बड़े वर्ग में गलतफहमी है कि शिक्षा औ प्रगति की अंधी दौड़ में तलाक समाज का नासूर बनता जा रहा है। इसका अगर पूरे संदर्भ एवं गहराई से अध्ययन किया जाये तो यह समझना आसान होगा कि वैवाहिक संस्थानों की परम्परा और अवहेलना की परिणति ही होती है तलाक की स्थिति। हर शादी अलग होती है और जोड़े के सामने आने वाली समस्यायें भी अलग होती है। किसी खराब रिश्ते को खत्म करने के लिए कभी-कभी तलाक ही एकमात्र विकल्प होता है। कोई व्यक्ति कक्षा में विमान उड़ाना सीख सकता है लेकिन क्या यह उन्हें तब तक पायलट के रूप में योग्य बनाता है जब तक वे हवा में नहीं उड़ जाते। शादी करने में बहुत सारी समानताएं या तालमेल शामिल हैं। हम अधिक महत्वपूर्ण बड़े और ठोस मुद्दों के लिए कम महत्वपूर्ण मुद्दों को छोड़ देते हैं जो रिश्ते की नींव के निर्माण खंड है। एक स्वस्थ समझौता एक सफल रिश्ते की पूंजी है। यदि आप ऐसा करना नहीं सीख सकते तो मुझे यह कहते हुए खेद है कि आपका रिश्ता कभी टिक नहीं पायेगा। आजकल युवा लोग ज्यादातर अपनी पसंद से शादी करते हैं और यहां तक कि शादी से पहले अपनी यौन अनुकूलता की भी जांच करते हैं क्योंकि लोग समझते हैं कि रिश्ते जेल नहीं है। आपका जीवन साधी आपका जेलर नहीं है और ऐसे रिश्ते को खत्म करना ठीक है जो काम नहीं कर रहा है। तलाक कोई समस्या नहीं है, तलाक खराब रिश्ते की समस्या का समाधान है। यदि आपने शादी को बेहतर बनाने के लिए सभी संभव प्रयास किये हैं पर कुछ भी नहीं बदल रहा है तो छोडऩे और आगे बढऩे का साहस ढूंढना लम्बे समय में फायदेमंद साबित होगा। आप अपनी सारी ऊर्जा उस रिश्ते में लगाना बंद कर दें जो उस काम का नहीं रहा।
बिना प्रेम के विवाह से तलाक बेहतर है। हम सभी प्यार पाने के पात्र हैं। मैं कभी भी ऐसे विवाह का समर्थन नहीं करता जहां साझेदारी पवित्र और प्राथमिकता वाली न हो। जीवन बेहद छोटा है। तलाक एक कठिन प्रक्रिया हो सकती है जो भावनात्मक घाव छोड़ जाती है।
विवाह मजबूरी का समझौता नहीं हो सकता। आज हम भले ही कितने आधुनिक हो जाएं, विवाह से जुड़ी परंपराओं को नजरंदाज कदापि नहीं कर सकते। निश्चित रूप से विवाह को औपचारिक मान्यता देने के लिए पंजीकरण आदि के उपाय इस रिश्ते को अपेक्षित गरिमा देने में विफल ही रहे हैं। यही वजह है कि शीर्ष अदालत में न्यायाधीश को कहना पड़ा कि सात फेरों का अर्थ समझे बिना हिंदू विवाह की गरिमा को नहीं समझा जा सकता। विवाह नाचने-गाने तथा पार्टीबाजी की ही चीज नहीं है, यह एक गरिमामय संस्कार है। यानि महज पंजीकरण से विवाह की वैधता पर मोहर नहीं लग जाती। निष्कर्ष यही है कि पैसा पानी की तरह बहाकर तमाम तरह के आडंबरों को आयोजित करने की बजाय विवाह के मर्म को समझना होगा। इसके बावजूद देशकाल व परिस्थितियों के अनुरूप विवाह पंजीकरण की जरूरत को भी पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। नयी पीढ़ी की कामकाजी महिलाएं आज आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुई है और अपनी शर्तों पर विवाह की परंपराओं को निभाने की बात करती हैं। मसलन कुछ कथित प्रगतिशील लोग कन्यादान व सिंदूर लगाने की अनिवार्यता को लेकर किन्तु-परन्तु करते रहे हैं, इसके बावजूद हमें सर्वोच्च न्यायालय की चिन्ताओं पर चिंतन तो करना ही चाहिए।

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