नारी शक्ति कलियुगे
आसां नहीं है महिला का राजनीतिक क्षितिज पर उभरना
आपने इस आलेख में प्रकाशित चित्र को पहले भी अखबारों में देखा होगा। यह उन दो महिलाओं के गले मिलने की फोटो है, जिनके पति जेल में हैं। एक हैं श्रीमती कल्पना सोरेन जिनके पति हेमन्त सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री थे। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और आज वे जेल में हैं। दूसरी हैं श्रीमती सुनीता केजरीवाल जो दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविन्द केजरीवाल की पत्नी हैं। केजरीवाल जी शराब कांड के अभियोग में कारागार में हैं एवं तिहाड़ जेल से अपनी सरकार चला रहे हैं। इन दो महिलाओं को केन्द्र कर देश में पुन: राजनीति में महिलाओं की भागीदारी एवं चुनौतियों की चर्चा हो रही है। पहले तो इस बात की संभावना लग रही थी कि ये दोनों महिलाएं अपने-अपने राज्य की मुख्यमंत्री का पद सम्हालेंगी लेकिन बाद में झारखंड में नया मुख्यमंत्री चुन लिया गया एवं दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल ने फैसला किया कि वे जेल से दिल्ली का प्रशासन हाकेंगे। हाईकोर्ट ने भी अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफे की याचिका खारिज कर दी है जिसका अर्थ है कि वे जेल से दिल्ली राज्य का प्रशासन चला सकते हैं।
कल्पना सोरेन और सुनीता केजरीवाल दोनों नाम पहली बार क्रमश: फरवरी के प्रारम्भ एवं मार्च में सुर्खियों में आया। इन दोनों महिलाओं ने जब अपने पतियों की गिरफ्तारी का प्रतिवाद किया तो तुरन्त यह फुसफुसाहट शुरू हो गयी कि ये राबड़ी देवी के रास्ते पर जा रही हैं जिन्होंने अपने पति लालू प्रसाद यादव के जेल में जाने पर बिहार के मुख्यमंत्री पद को सम्हाला था। 40 वर्षीय श्रीमती सोरेन एवं 58 साल की सुनीता जी ने रामलीला मैदान में विपक्ष की रैली (24 मार्च) को बेहिचक सम्बोधित किया। दोनों ने बिना किसी डर या भय के भाषण दिया और विराट जनसमुदाय की तालियां बटोरी।
एडनूथर स्टिफंटग द्वारा गिये गये सर्वेक्षण के अनुसार 50 वर्ष से अधिक उम्र की दो-तिहाई महिलाओं का मानना है कि पुरुषों के राजनैतिक वर्चस्व के कारण महिलाओं को राजनीति में अवसर नहीं मिलता। सर्वेक्षण में अधिकांश महिलाओं ने स्वीकार किया कि घरेलू जिम्मेदारियां जैसे बच्चों की देखभाल, खाना बनाना व अन्य पारिवारिक दायित्व के चलते वे राजनीति में भाग लेने का सोच ही नहीं पाती। रूढि़वादिता व संस्कारिक मानदंडों के कारण भी महिलाएं राजनीति में भाग नहीं ले पाती। इसमें पर्दा प्रथा तथा किसी अन्य पुरुष से बातचीत न करना, महिलाओं का बाहर न मिलना शामिल है। पुरुष राजनीतिज्ञों को इस बात का भय रहता है कि महिलाओं के निर्वाचन से उनके दुबारा चुने जाने की संभावना कम या समाप्त हो सकती है अत: वे अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहते।
महिला आरक्षण को सत्ता में भागीदारी समझना अर्ध सत्य है क्योंकि यह नीति-निर्धारण में महिलाओं की भूमिका को सुनिश्चित करता है। राज्य के स्तर पर देखें तो जयललिता की कल्याणकारी योजनाओं में महिलाओं पर जोर दिया गया। 1990 में यावतमाल पंचायत में ग्रामीण उन्नयन का पैसा गोलमाल करने पर उच्च अधिकारियों को निलम्बित किया गया। संसद में महिलाओं की मात्रा बढ़ती है तो स्वास्थ्य, शिक्षा एवं सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दे पर वास्तविक लाभ मिलेगा।
महिलायें जीवन की विभिन्न विधाओं से राजनीति में आ रही हैं। कुछ पारिवारिक राजनीतिक प्रक्रिया के तहत राजनीति में सफल हुई। सुषमा स्वराज एवं केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी दो ज्वलन्त उदाहरण हैं या फिर मन्दिर के राजनीतिक अभियान से उमा भारती, ऋतम्भरा और प्रज्ञा ठाकुर सभी चुनाव जीतकर आयी।
जो महिलायें राजनीति में ऊपर उठी उन्हें कई कठिन परिस्थितियों एवं विपरीत स्थितियों से रूबरू होना पड़ा था। केरल कम्युनिस्ट पार्टी की नैेता के.आर. गौरी अम्मा ने कहा कि 1960 एवं 1970 के दशकों में उन्हें चरम परेशानियां झेलनी पड़ी। यही नहीं पार्टी के पुरुष नेताओं ने भी उन्हें परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। महिलाओं के लिए विडम्बना यह है कि उन्हें परम्पराओं से जूझना पड़ा है।
अगर एक महिला का अपने पारिवारिक परिप्रेक्ष में राजनीति में अवतरण हुआ - बीवी, बेटी, बहू उनका उपहास किया जबकि परिवार के निकम्मे बेटे या भतीजा को वह आपदा झेलनी पड़ी। सीपीएम नेता बृन्दा करात ने 20 वर्ष पहले यह बात कही थी।
इन्दिरा गांधी का राजनीतिक अवतरण सिर्फ महिला प्रतिभागी के रूप में नहीं रहा। अक्सर उनके बारे में कहा जाता था कि मंत्रिमंडल में सिर्फ एक ही पुरुष है। उनके राजनीति में कसीदे पढ़े गये। अपनी आक्रामकता के कारण मायावती और ममता बनर्जी या जयललिता को भी मंजिल तक पहुंचने में पापड़ बेलने पड़े। उन्हें अपने समय के सत्ताधारी दलों के शारीरिक आक्रमण का शिकार होना पड़ा था। तमिलनाडु विधानसभा के सत्र में जयललिता पर हमला हुआ, उनकी साड़ी तक खींची गयी।
सोशल मीडिया पर महिलाओं के विरुद्ध विष वमन आम बात हो गयी है। सन् 2021 में एक अध्ययन के अनुसार राजनीति में महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा 27 गुना ज्यादा ऑनलाइन पर जहरीले शब्दबाण झेलने पड़ते हैं। कई बार महिलायें ही महिलाओं की दुश्मन हो जाती है। कांग्रेस की सुप्रिया श्रीनेत ने भाजपा द्वारा मनोनीत सिनेतारिका कंगना रनौत के विरुद्ध किये गये पोस्ट के लिए माफी मांगनी पड़ी। दूसरी तरफ इसी सिनेतारिका ने एक दूसरी तारिका उर्मिला मातोंडर के विरुद्ध विष वमन करने में कांग्रेस नेत्री को भी पछाड़ दिया।
महिलाओं को राजनीति में जल्दी प्रसिद्धि मिलती है और सुर्खियां भी किन्तु उनकी राह में मुश्किलें पुरुषों से कहीं ज्यादा है।

फिर भी मातृशक्ति अपने दमखम से धरती से चांद पर चढने में सक्षम हो रही है धीरे धीरे बदलाव आयेगा।
ReplyDeleteआपके सारगर्भित लेख से अच्छी जानकारी मिली
ईश्वर मंगल करें
आज के वक्त में नारी शक्ति के प्रति दृष्टिकोण संवर कर उसका संवर्धन अभिनंदन कर रहा है।बीता वक्त पीछे छूट रहा है
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