भारत एकमात्र देश जहां प्यार पूजा जाता है
सरस्वती पूजा एवं वेलेंटाइन डे की जुगलबंदी
एक संयोग की बात है कि वेलेन्टाइन डे एवं सरस्वती पूजा इस बार एक ही दिन यानि 14 फरवरी को थी। वैसे बंगाल में बसन्त पंचमी को ही वेलेन्टाइन डे जैसा माहौल बन जाता है। इस दिन लड़कियां पीत परिधान में सजधज कर निकलती हैं। उनका मूड भी बड़ा रोमांटिक रहता है। किशोर एवं युवा उस दिन सबसे अधिक डेटिंग करते हैं। पार्कों में पेड़ों के झुरमुट में जोडिय़ां प्रेम-प्रसंग करते हुए दिखाई देते हैं।
14 फरवरी सरस्वती पूजा के दिन विद्या एवं ज्ञान की देवी सरस्वती की अर्चना हुई। उसी दिन इस बार वेलेन्टाइन डे यानि प्रणय दिवस भी था। ज्ञान एवं प्रेम में एक बात कॉमन है कि दोनों ही अधूरे होते हैं। न ज्ञान की कोई सीमा होती है और न ही प्रणय यानि प्रेम की कोई पूर्णता होती है।
वेलेन्टाइन डे 14 फरवरी को दुनिया भर में मनाया जाता है। प्रेमियों के लिए यह दिन बेहद खास है। वेलेन्टाइन डे के इतिहास को भी सभी लोग जानते हैं। प्रेम के प्रति रोमन साम्राज्य में एक बहशी सोच थी। रोम के राजा क्लाउडियस प्यार के सख्त खिलाफ थे क्योंकि उनका मानना था कि सैनिक प्यार करने लगेंगे तो उनका मन भटक जाएगा और रोमन सेना कमजोर हो जायेगी। रोमन राजा और संत वेलेंटाइन के बीच विचारों का टकराव था परिणामस्वरूप रोम के राजा ने वेलेन्टाइन को फांसी की सजा सुना दी। वह दिन 14 फरवरी ही था। रोमन और रोमान्स सुनने में सहोदर लगते हैं किन्तु इन दोनों की तासीर एक दूसरे से उलटी है। यह बात बिलकुल सच है कि प्रेमी को वेदना ही मिली है। पूरा इतिहास इसका साक्षी है। क्रोंच पक्षी जब अपनी प्रेयसी से प्रेम प्रसंग करने वाला ही था कि किसी शिकारी ने उसका वध कर दिया और उस वक्त उसके कलेजे से जो टीस निकली वही कविता का प्रादुर्भाव कहा जाता है। प्रेम वेदना पर बहुत कविताएं आज भी लिखी जाती हैं। कालीदास का मेघदूत या शंकुतलम् उसी प्रणय पीड़ा का महाकाव्य है। भारत में एक प्रेम गाथा की परिणति के बाद इन्हीं दो पंक्तियों से संदेश दिया गया-
मैं जो जानती प्रेम करें दु:ख होय
नगर ढि़ंढ़ोरा पीटती
प्रेम न किरियो कोय।
इस तरह की चेतावनी के बावजूद प्रणय प्रसंग किसी भी कालखंड में कम नहीं हुए हैं। मीरा ने कृष्ण से प्रेम किया। राजमहल की दीवार लांघ राजशाही से बगावत कर संत समागम में कृष्ण के प्रति अपने प्रेम का ढि़ंढ़ोरा पीटने वाली विश्व में पहली महिला थी मीरा। राजस्थान की भूमि सिर्फ शौर्य की गवाह ही नहीं अपितु साहस और प्रेम की कर्मभूमि भी है। साथ ही राणा जी द्वारा मीरा को विष का प्याला भेजा जाना प्रेम के प्रति रणवास के विकृत विचारों का जीता जागता उदाहरण है। मीरा ने कृष्ण से प्रेम ही नहीं किया उसे अपना पति माना। ‘‘जाके सिर मौर मुकुट मेरो पति सोई।’’ ऐसा उदाहरण दुनिया के किसी धार्मिक इतिहास में नहीं मिलेगा। जब मीरा को नहीं बक्शा गया तो साधारण लोगों के प्रणय निवेदन के प्रति नजरिया का सहज में अनुमान लगाया जा सकता है।
प्रेम की ऐसी विचित्र केमेस्ट्री रही है कि बेशक अगाध प्रेम करने वाले भी कभी प्रणय सूत्र में नहीं बंध सके चाहे वह लैला-मजनू हो, शिरी-फरहाद, रोम्यो-जुलियट हों या फिर राधा और कृष्ण। इतिहास के पन्नों में उनकी प्रेम लीला स्वर्णाक्षरों में लिखी गयी है पर अगर दाम्पत्य को प्रेम की इतिश्री माना जाय तो वे सबके सब विफलता की भेंट चढ़ गये।
प्रेम के प्रति दो विचारधारओं का समान रूप से आकलन हमारे इतिहास की अनमोल कड़ी है। ताजमहल प्रेम का प्रतीक है और सारी दुनिया को पत्नी के प्रति प्रेम की निशानी देने वाला और दूसरा नहीं है। इसे खूबसूरती से गाया गया- ‘‘दुनिया के आशिकों, दुनिया के प्रेमियों, सुन लो मुहब्बत का राज- बीवी के वास्ते, पत्नी के वास्ते बनता यहां ऐसा ताज।’’ मुगर बादशाहत और शाही प्रेम पर दो अन्दाज में इस घटना को बयान किया, दोनों में कड़वी सच्चाई है-
एक शहंशाह ने बनवा के
हसीं ताजमहल
सारी दुनिया को
मुहब्बत की निशानी दी है।
तो दूसरा अन्दाज भी कम मार्के का नहीं-
किसी शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मजाक
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे।
भारत ही एक ऐसा देश है जहां के किसी बादशाह ने अपनी बीवी या पत्नी के लिए महल बनाकर सारी दुनिया को प्रेम की सौगात दी, जिसकी भव्यता को निहारने विश्व से हर जाति और धर्म के लोग आते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पृथ्वी के प्रेमियों का यह तीर्थ स्थल है। ताजमहल की एक और खूबी है जिसको लोग नहीं जानते हैं। ताजमहल परिसर में एक संगमरमर की छोटी सी चौकी है जिसपर बैठकर दुनियाभर के राष्ट्राध्यक्षों से लेकर दफ्तर का चपरासी तक अपनी पत्नी या प्रेमिका के साथ बैठकर अपनी फोटो खिंचवाता है एवं धरोहर की तरह संजोकर रखता है। इस तरह हिंदुस्तान ही एकमात्र राष्ट्र है जहां प्रेम की पूजा होती है चाहे फिर वह शहंशाह शाहजहां-मुमताज हो या मीरा-कृष्ण। दोनों को प्रेम का हस्ताक्षर माना जाता है। है कोई दूसरी मिसाल।
भारतीय भाषाओं में जिसमें उर्दू भी शामिल हैं, प्रेम को जीवनधारा का मुख्य अंग माना गया है। प्रेम को परमात्मा का स्वरूप माना गया है, हालांकि जमाने ने प्रेम के लिये दुश्वारियों का अम्बार लगाने में कसर नहीं रखी है।
कुछ लोग प्रेम की स्वाभाविकता के शत्रु रहे हैं। उन्होंने न प्रेम किया है न प्रेम होने दिया है। प्रेम की साधारण अभिव्यक्ति भी उन्हें नागवार गुजरी है। वेलेन्टाइन डे के उपलक्ष्य में प्रेम-संदेशों के खूबसूरत कार्ड भी उनकी भृकुटी का शिकार होते रहे हैं। कुछ संगठन हैं जो भारतीय संस्कृति के सेल्फ स्टाइल्ड चेम्पियन यानि स्वयम्भू संरक्षक बनकर उन दुकानों को उजाड़ देते हैं जहां प्रेम दिवस के संदेश वाले कार्ड बिकते हैं। उनकी मानसिक विकृत गंवारा नहीं करती कि कोई इन कार्डों के जरिये प्रेम के अभिव्यक्ति करे। संस्कृति के इन तथाकथित सैनिकों ने कई बार पार्क एवं बाग-बगीचों में प्रेमी युगलों को जा दबोचा है। ऐसे लोग देश में वैश्यावृत्ति बन्द कराने की कभी हुंकार नहीं भरते। बदनाम गलियों में बिकती जिस्मफरोशी को रोकने या कम करने की जोखम नहीं उठाना चाहते किन्तु ऑपरेशन मजनूं के नाम पर प्रेम क्रीड़ा को बंद करवाने एवं उनको छिन्न-भिन्न कर बड़ा मैदान मारने की ताल जरूर ठोकते हैं। बेमेल नहीं बेजातीय विवाह करने वालों को उलटा लटका कर नृशंस एवं अमानवीय व्यवहार उनका सांस्कृतिक कुंठा एजेन्डा बन गया है। मध्य एशिया में बहशी सामाजिक अपराधरोधक गतिविधियां उस पाश्विक काल की याद दिलाती है जब प्रेमी के पांव को जमीन में गाडक़र उसके अचल शरीर पर पत्थरों की बौछार की जाती थी। लहूलुहान प्रेमी से दूर खड़ी लैला ने इसी पर गाया था- हुस्न हाजिर है मुहब्बत की सजा पाने को, कोई पत्थर से न मारो, मेरे दीवाने को।

आदरणीय आप जिस किसी भी विषय पर लेखनी चलाते हैं,वो पठनीय बन जाती है, आपने जहाँ स्थापित प्रेम की चर्चा की, वहीं आलेख के अंतिम पैरा में कुछ अप्रिय प्रेम पर भी शब्द रखे। कुल मिला कर आलेख सारगर्भित लगा।...साधुवाद।
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