राम भरोसे

राम भरोसे

पिछले सप्ताह पूरा देश राम मय हो गया था। राम मय यानि जित देखो तित राम। राम नाम से सिर्फ अयोध्या ही नहीं पूरा भारत गुंजायमान हो उठा। दक्षिण भारत में शायद उतना उत्साह नहीं देखा गया हो किन्तु राम मन्दिर के आकाओं ने रामलला की जो मूर्ति स्थापित की उसमें दक्षिण भारत के राम की छवि थी। श्याम वर्ण की मूर्तियां दक्षिण भारत के मन्दिरों की विशेषता है। वहां कृष्ण और राम दोनों ही श्याम वर्ण के हैं। साथ ही प्राण प्रतिष्ठा पर्व के पूर्व प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने दक्षिण भारत के प्रसिद्ध मन्दिरों  की परिक्रमा की। मदुरै से लेकर रामेश्वरम् तक सभी धर्मस्थलों में पूरे अनुष्ठान के साथ पूजा की ताकि दक्षिण भारत में यह संदेश जाये कि मोदी जी  सिर्फ उत्तर भारत के नहीं हैं दक्षिणोन्मुखी भी हैं। गत दिसम्बर में हुए पांच राज्यों  के चुनावों के बाद ऐसा कहा जाने लगा कि उत्तर-दक्षिण भारत के बीच एक खाई बन गई है। उत्तर में भाजपा का पूरा वर्चस्व है तो दक्षिण में भगवा पार्टी के सितारे गर्दिश में हैं।


आमतौर पर यह महसूस किया जा रहा है कि अयोध्या में राम मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठा का टाइम टेबल आगामी लोकसभा चुनावों को मद्देनजर तैयार किया गया। यह धारण निर्मूल नहीं है। कुछ महीने बाद ‘रामनवमी’ का निर्विवाद मुहूर्त था किन्तु उस समय तक लोकसभा चुनावों की घोषणा संवैधानिक आवश्यकता है। चुनाव तिथि की औपचारिक घोषणा के बाद प्रधानमंत्री एवं सभी राजनीतिक दलों पर आचार संहिता लागू होने के परिणामस्वरूप वे किसी अनुष्ठान में भागीदारी नहीं कर सकते। अगर ऐसा होता तो राम मन्दिर बनाने के लिये पिछले कुछ वर्षों से जो पापड़ बेले गये सब पर पानी फिर जाता। सरकारी पक्ष की ओर से सफाई दी गई कि 22 जनवरी श्रेष्ठ मुहुर्त निकाला गया। सभी जानते हैं कि ट्रस्ट बोर्ड के मुखिया चंपत रायजी को किसका अभय दान प्राप्त है। इस निर्णय से चारों शंकराचार्य तो रुष्ट हुए ही साधु समाज में भी दो फाड़ हो गये। एक अंश प्रधानमंत्री मोदी जी से नाराज हैं इस हद तक कि कुछेक ने तो विनाशकारी श्राप भी दे डाला है। आज के समय में श्राप की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े हो सकते हैं पर यह सच है कि कई गेरुआ वस्त्रधारी संन्यासी कुपित हैं। लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि आधुनिक भारत में राजनीति ही विशेषकर सत्ता की राजनीति हवा कर रुख तैयार करती है। आप भूले नहीं होंगे कि किसी समय भारत के गृहमंत्री श्री गुलजारी लाल नन्दा ने साधु समाज को इकटठा किया था एवं उनको लेकर आंदोलन छेड़ा पर वह उलटा पड़ गया। कुछ साधु त्रिशूल लेकर हिंसक हो गये परिणामस्वरूप नन्दाजी को गृहमंत्री पद छोडऩा  पड़ गया। व्यंग्य के पुरोधा कवि नागार्जुन ने उस वक्त ये पंक्तियां लिखी थीं-

एक बंगाली ने डाल दिया है फन्दाजी

बुरे फंसें हैं नन्दाजी।

बंगाली से तात्पर्य कांग्रेस में सिंडिकेट के नेता श्री अतुल्य घोष से था जो उस वक्त कांग्रेस के अन्दर नन्दाजी के घोर विरोधी थे। इस तरह साधुओं की टोली का राजनीतिक इस्तेमाल पहले भी होता आया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि चारों पीठों के शंकराचार्य जी प्राण प्रतिष्ठा में शामिल नहीं हुए थे। यही नहीं उन्होंने इस प्राण प्रतिष्ठा को अनिष्टकारी बताया है एवं इसका प्रतिवाद किया है। शंकराचार्य जी की भावना को एकदम हवा में उड़ाना उचित नहीं होगा विशेषरूप से ऐसी स्थिति में जब हिन्दू या सनातन धर्म में विश्वास करने वाले लोग भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की कवायद कर रहे हों। इसमें यह तो स्पष्ट हो ही गया कि हिन्दू धर्मावलम्बियों में भी राम मन्दिर को लेकर विचार या मत भिन्नता है। इस मुद्दे पर सभी एक नहीं है।

अब एक और बात की जानें लगी है। वह है देश में राम राज्य स्थापना की। हिन्दू राष्ट्र और राम राज्य में क्या फर्क है यह तो उन दोनेां के समर्थक ही बता सकते हैं। किन्तु सर्वप्रथम स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने देश में राम राज्य स्थापना की बात की थी। मोटे तौर पर राम राज्य से किसी धर्म का आशय नहीं है। श्री राम ने शबरी के साथ बैर खाये और ऋषि मुनि के श्राप से पत्थर बनी अहिल्या का उद्धार किया। आज के समय में राम का आदर्श का सही मायने में अनुकरण किया महात्मा गांधी ने। राम ने लंका नरेश दशानन रावण का संहार किया। उन्हें युद्ध लडऩा पड़ा। रावण से तत्कालीन सभी राजा त्रस्त थे। सीता के स्वयंवर में कई नरेश पधारे थे। किन्तु जब राम ने रावण के साथ युद्ध किया, रघुनन्दन श्री राम के समर्थन में तो कोई नहीं आया। हां, भील, बानर, जनजाति, आदिवासी, पक्षी जो इतिहास के अनुसार वहां की जन जातियां थीं ने श्री राम का साथ दिया। राम जी ने इन सबका समर्थन लेकर उस वक्त के अति पराक्रमी, साधन सम्पन्न, सोने की लंका के अधिनायक, रावण से लड़ाई मोल ली। आज हम इस युद्ध को बुराई पर अच्छाई की विजय बताते हैं। दशहरा, लंका दहन एवं राम के हाथों रावण की मुक्ति का पर्व है। इस तरह  बुराई पर अच्छाई की विजय में कौन भागीदार होता है यह स्पष्ट है। गांधीजी ने भी राम का ही अनुसरण किया। साधारण लोगों, ग्रामीण वासियों को साथ लेकर गांधी ने अजेय ब्रिटिशराज का अन्त किया। उन्होंने अहिंसा को अपना अस्त्र बनाया। लंकाधिपति पर विजय प्राप्त कर श्री राम अयोध्या लौटे, साथ में थी सीता मैया और लक्ष्मण भैया। अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा समारोह में मेरे राम आये हैं के तो मन्त्रोच्चारण हुए पर मूर्ति सिर्फ और सिर्फ राम की ही लगी। यह कहकर इसका औचित्य बताया कि मूर्ति रामलल्ला की है जब वे नौ वर्ष के थे। पर बिना सीता के राम की मूर्ति पर अनेक लोगों के मन में विचार आया। पं. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी बिना सीता के राम की मूर्ति को न्यायेचित नहीं ठहराया और यहां तक कह दिया कि भाजपा महिला विरोधी है। कहा भी गया कि जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। अपनी भावना के अनुरूप प्रभु की मूरत में अपने आराध्य दर्शन होते हैं। राम के भक्तों की संख्या अनगिनत हैं, धर्म के दायरे से ऊपर उठकर राम के उपासक हैं। किन्तु आम जन मानस में राम सीता की छवि ही समायी रहती है। राम और सीता को एक दूसरे से जुदा करके नहीं देखा जाता।

राम मन्दिर को लेकर कोई विवाद न हो यही श्रेयस्कर है। किन्तु घटना की समीक्षा भी होनी चाहिये। राम के आदर्श की बात करना काफी नहीं है। उसे व्यवहार में उतारना भी नितान्त जरूरी है। किसी बात की उपेक्षा करना एवं वस्तु स्थिति से निलिप्त रहने को हम ‘राम भरोसे’ की संज्ञा भी देते हैं। राम पर भरोसा कीजिये पर सब कुछ ‘राम भरोसे’ मत छोडिय़े।

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