राजस्थानी मेला पारिवारिक संस्कारों को बढ़ाने का प्रभावी साधन
कोलकाता में सर्दी जब परवान चढऩे लगती है, उस रुमानी मौसम का आनन्द उठाने पार्क स्ट्रीट की आधा किलोमीटर पट्टी दूधिया रोशनी से नहाने लगती है। वहां गाडिय़ों का आवागमन बन्द कर दिया जाता है ताकि घुमक्कड़ बिना किसी व्यवधान के घूम-फिर सके। वहां के रेस्तरां और बार लोगों से खचाखच भरे रहते हैं। बल्कि कुछ रेस्तरां में लोग प्रवेश पाने बाहर इन्तजार में खड़े रहते हैं कि अन्दर खाली हो तो उनका नम्बर आ जाये। कुछ वर्ष पहले तक वर्षान्त में यही दृश्य रहा करता था। डिस्को, हुक्का बार में भीड़, रेस्तरां में युवक-युवतियों का सैलाब और पार्क स्ट्रीट में मटरगस्ती कोलकाता के क्रिसमस की पहचान बन गयी थी। पार्क स्ट्रीट में मनमौजियों का यही आलम था।
लेकिन पिछले दो दशकों में दिसम्बर के उत्तरार्ध में वर्ष समापन के अन्तिम एक सप्ताह एक नयी सूझबूझ ने रूमानी मौसम को नये पंख दिये।
कोलकाता आकर बस गये राजस्थानी समाज जब अपनी पैतृक भूमि को बिसराता जा रहा है कुछ मरुधर प्रवासियों ने कोलकाता शहर में ही राजस्थान बसाने की कल्पना की। वैसे कलकत्ता शहर में बड़ी संख्या में मारवाड़ी परिवार अपने लावो लश्कर के साथ बस गये हैं। राजस्थान प्रवासी अपनी नयी पीढ़ी को उन सभी विकारों से बचाना चाहती थी जो क्रिसमस या नये साल के आगोश में नयी पीढ़ी को घेरने में लगी थी। राजस्थानी समाज के सामने आदर्श था बंगाल रोइंग क्लब जैसे क्लब की स्थापना जो कभी बिड़ला परिवार की इस सोच की परिणति थी कि पारिवारिक वातावरण में शाकाहारी भोजन एवं स्वस्थ मनोरंजन को प्रोत्साहित कर सके। इधर सत्यजीत राय की फिल्म ‘‘सोनार केल्ला’’ के बाद बंगाली घुमक्कड़ों को राजस्थान भाने लगा। बंगाल और राजस्थान की जलवायु बिलकुल अलग है किन्तु बंगालियों का राजस्थान के ऐतिहासिक स्थानों पर जाने का मन करने लगा है। राजस्थान घूमने के लिये आने वालों में बंगाली सबसे अधिक है।
इसी परिपेक्ष्य में कुछ प्रवीण प्रवासियों को कलकत्ता में ही एक राजस्थान बसाने की प्रबल इच्छा जगी। इच्छाशक्ति ने महानगर ने राजस्थानी गांव बसाने की बात सोची। अपने भूले बिसरे मूल प्रदेश की झलकियों को देखने और दिखाने के निमित्त वर्ष 2000 में साल्टलेक लोक संस्कृति के मदन गोपाल राठी, स्व. श्याम लाल भट्टड़ एवं विश्वनाथ चांडक के दिमाग में खयाल आया कि कलकत्ता में राजस्थानी मेले को सजाया जाये। अपने मित्र मंडली के परामर्श पर इस मेले को ‘‘आपणो गांव’’ का नाम दिया। ‘‘छपते छपते’’ ने जब चांडक जी से बात की तो उन्होंने आपणो गांव के पीछे राजस्थानी लोक संस्कृति को बंगाल की शस्य श्यामला भूमि में बिखेरने के अपने खयाल को व्यक्त किया। पहले दौर में राजस्थानी गांव जिसमें राजस्थानी नृत्य, गीत, लोकगीत, कुम्हार, बैलगाड़ी, बाजरे की रोटी एवं राजस्थानी व्यंजन को परोसा गया। पर राजस्थान की कल्पना बिना रेत के अम्बार और उस पर चलने वाले जहाज ‘‘ऊंट’’ के नहीं की जा सकती। विश्वनाथ जी ने बताया कि वे ऊंट लेने मदनगोपाल राठी के साथ राजस्थान गये। वहां ऊंट तो थे पर उन्हें डेढ़ हजार किलोमीटर दूर कलकत्ता लाना दुष्कर कार्य था। इसके लिए रास्ते में हर प्रदेश से अनुमति लेनी पड़ती है। लेकिन बिना ऊंट के राजस्थानी गांव की बात सोची भी नहीं जा सकती। अत: उसके विकल्प के रूप में ललित प्रहलादका ने बिहार से ही ऊंट लाने की व्यवस्था की। मुझे नहीं मालूम बिहार में ऊंट का क्या काम? खैर बिहार पड़ोसी राज्य है इसलिये सुगमता से ऊंट बिहार से लाये गये। और इस तरह कलकत्ता में राजस्थानी मेला सज गया। राजस्थानी हस्तशिल्प, राजस्थानी कालबेलिया नृत्य, घूमर, कठपुतली नृत्य, बाजरे की रोटी, पेय ‘राब’ के साथ जयपुर के सुप्रसिद्ध व्यंजन के लिए चोखी ढाणी को परिकल्पित किया गया। अकबर इलाहाबादी के शब्दों में ‘‘लोग आते गये और कारवां बनता गया’’। इस प्रकार राजस्थान के ग्रामीण जीवन को सफलतापूर्वक बंगभूमि के प्राणवान शहर कलकत्ता में मूत्र्तरूप दिया गया।
लेकिन एक मेला इतनी बड़ी संख्या में राजस्थानप्रेमियों के लिए काफी नहीं है। इसलिये एक और मेले की रूपरेखा बनी। मरुधर मेले के रूप में पिछले बारह वर्षों से आपणो गांव के साथ मरुधर मेले का भी सफलतापूर्वक आयोजन हो रहा है। इधर ‘‘मरुधर मेला’’ की कमान साल्टलेक के प्रवीण समाजसेवी ललित प्रहलादका ने सम्हाल रखी है। दोनों तरफ सामाजिक कार्यकर्ताओं को उद्योग एवं व्यापार जगत का भी पूरा समर्थन है। ललित जी के साथ एन के अगरवाल मरुधर मेले को सफल और सार्थक बनाने में लगे हैं। ललित जी ने ‘छपते छपते’ को बताया कि मेले में मारवाड़ी समाज की तीन और कहीं-कहीं चार पीढिय़ां एक साथ आती हैं। पारिवारिक सौहाद्र्र को सुदृढ़ करने में यह मेला प्रभावी भूमिका अदा कर रहा है। सत्यजीत राय के सोनार केल्ला को भी मेला में बसाया गया। मेले में सालासर बालाजी मन्दिर भी है, साथ में एक कुआं भी बनाया गया है, ललित जी ने बताया।
24 से 31 दिसम्बर तक मरुधर मेला और आपणो गांव कोलकाता में वर्षांत के गुलाबी जोड़े के आनन्द का भरपूर आनन्द ले रहे हैं। अब ये दोनों मेले पूरे परिवार के आनन्द का ‘‘डेस्टिनेशन’’ बन गया है जहां तीन-चार घंटे राजस्थानी गांव की गंवई मस्ती का भरपूर मजा लेते हैं। यहां आने वालों में बंगाली परिवार भी बड़ी संख्या में है। यूपी, बिहार, यहां तक कि दक्षिण भारत के परिवारों को भी आप देख सकते हैं।
राजस्थान का यह सांस्कृतिक स्तम्भ हर साल मजबूत हो रहा है। कुछ लोगों का यह मानना है कि इसमें हर वर्ष कुछ नवीनता का सृजन होना चाहिये। खैर जो भी हो राजस्थानी मेले से मरु प्रान्त के प्रवासियों को अपनी पितृभूमि से सुदूर आकर बसने का अब मलाल नहीं होगा।

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