शाही शादियों के बीच पिसता मध्य वर्ग

 शाही शादियों के बीच पिसता मध्य वर्ग

पिछले पखवारे महानगर में शादियों का दौर चला। मलमास लगने के पहले हाथ पीले करना जरूरी था, इसलिये वैवाहिक आयोजनों का रेला चला। कोलकाता महानगर की जितनी नामी ग्रामी पांच-सात सितारा होटलें हैं सभी फुल थी। उनके बैनक्वेट हॉल बुक थे। होटल के कमरे जो सामान्य स्थिति में 7-8 हजार रुपये प्रतिनिधि भाड़े के थे 12-13 हजार रुपये तक उनका ग्राफ चला गया। शहर के नामधारी कैटरर ने पर प्लेट एक हजार से दो हजार के बीच परोसे। होटलों के अलावा वैवाहिक आयोजनों के लिए बनाये गये रिसॉर्ट, बैनक्वेट सभी की टाइट बुकिंग थी। शादियों की कई रस्म क्रूज पर होने का नया प्रचलन शुरू हुआ तो उन्हें भी आजमाया गया। एक शादी में तो गोवा से विशेष रूप से पांच मंजिला क्रूज मंगाया गया जिसमें लगभग दो सौ कमरे थे। क्रूज में ही बैंक्वेट हॉल बने थे। शादी के इन आयोजनों का बारातियों ने भरपूर आनन्द लिया।


बहुत से लोगों के लिये यह चौंकाने वाला समाचार होगा कि इन शादियों में 15 से 50 करोड़ तक खर्च पड़ता है। सिर्फ वैवाहिक अनुष्ठान पर। लेनदेन का मामला अलग है। कई बार समधियों के बीच लेन देन की खबर बड़ी गुप्त रखी जाती है। इस पर लोग कयास लगाते हैं किन्तु वास्तविकता का पता नहीं चलता। अनुमान है कि कुछ शादियों में 100-150 करोड़ का वारा न्यारा हुआ। इनमें से वे शादियां भी शामिल हैं जिनके कर्ताओं ने बैंक और साहूकारों से बड़ी रकम ले रखी है और माथे पर कई सौ करोड़ की देनदारी है। किसी का नाम बताने में उसे साबित करना हमारे लिए बड़ा दुष्कर कार्य है क्योंकि अधिकांश रकम अलिखित यानि दो नम्बर की होती है। जिन कुछ लोगों की यह धारणा बनी है कि अब काला धन समाप्त हो गया है या कम हो गया है उन्हें जानकर निराशा होगी। सच्चाई यह है कि काले धन एवं टेबुल के नीचे लेनदेन में अथाह वृद्धि हुई है।

विवाह जीवन के महत्त्वपूर्ण संस्कारों में से एक संस्कार हैं। भारत में अधिकांशतया शादियों का आयोजन एक उत्सव के रूप में मोज मस्ती, धूम धडाका, सर्वाधिक मनोरंजन के रूप में लिया जाता हैं। कई बार तो घर में आय का स़्त्रोत, शून्य होने पर भी बड़े पैमाने पर अलग अलग रूप में शादी के नाम पर सिर्फ दिखावे हेतु बहुतायत फिजूल खर्ची की जाती हैं। मध्यम और उच्च वर्ग के लोग अपना उच्च स्तर दिखाने के लिए बहुत ज्यादा फिजुल खर्ची दिखाते हैं। जिसमें एक किस्म का लोगो का दबाव एवं कुछ दिखावा भी शामिल होता है। हमारी ही विकृत मानसिक ग्रन्थियां जो यह निर्धारित करतीं हैं कि समाज, समाज के लोग क्या कहेंगे, हम कुछ विशेष रूप से ऐसा नहीं करेंगे तो समाज व समाज के लोग हंसेंगे, अथवा हम कुछ ऐसा विशेष अच्छा करेंगे, तो समाज में हमारा ही अच्छा लगेगा। या फिर हम खुद भी कुछ ऐसा ही सोचते हैं कि, आह! आज मेरा मन खुश हो गया है, देखों!

हम झुठी प्राण प्रतिष्ठा शान शौकत, और फिजुल खर्ची और दिखावे के नाम पर, प्रतिष्ठा में प्राण गंवाना उचित समझते हैं,हमारे ही मन में कुछ ग़लत मापदंडों के कारण हम यह निर्धारित करने लग जाते हैं कि यह हमारे औचित्य से समुचित हैं। अक्सर यह खर्च दूल्हे वालों की तरफ से मांग के तौर पर भी होते हैं, यह सामाजिक बुराई दहेज से अलग ही होती है, जिसके नाम पर न जाने कितनी जिंदगियां बरबाद हो जाती हैं। 

शादी-ब्याह में खर्चों में कमी की बात हमेशा की जाती रही है, मगर समाज में यह बुराई इतने अंदर तक दाखिल हो चुकी है कि इसको रोक पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा दिखाई देने लगा है। हम दूसरों को खुश करने के चक्कर में अपनी खुशी को समाज के कुछ गलत मापदंडों पर खुला दांव पर लगा देते हैं।

यद्यपि शादियां बड़ी ख़ुशी का अवसर होती हैं। यह समारोह भी कभी-कभी कई दिनों तक चलता है और इसकी तैयारी महीनों पहले शुरू हो जाती हैं, इन समारोहों में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिए जाते हैं, हज़ारों लोगों के खाने का इंतज़ाम किया जाता है। फिर भी हम ही मुक दर्शक बन कर समाज की कुरुतियों के कोढ़ का अनुसरण करने में अग्रणी भूमिका निभाते हैं। चाहें हम वैदिक विचारधारा और सुझावों व नियमों से सहमत हैं, फिर भी हम अभिमन्यु की तरह इस तरह से चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं कि पंगु होते समाज को कुछ भी समाधान नहीं सुझा पाते हैं।

हैरत की बात तो यह है कि जब आप अपनी बेटी की शादी करने वाले होते हैं, तब तो आपको ये खर्च बहुत चुभते हैं, मगर जब आप अपने लडक़े की शादी करने निकलते हैं, तब आप की मांग यह होती है कि आपकी इज्जत का ख्याल रखते हुए बारातियों का शानदार स्वागत हो और उस समय आप भी बारातियों की संख्या पर भी काबू नहीं रखना चाहते हैं। इस खर्च का दबाव इतना अधिक हो जाता है कि अब तो लडक़ी वाले मजबूर होकर लडक़े के शहर ही चले जाते हैं, जहां कोई मैरिज हाल आदि किराये पर लेकर वहीं से शादी कर देते हैं।

जब हमारे समाज का या जाति का एक धनी व्यक्ति पाँच हजार व्यक्तियों को शादी में बुला रहा है, तो मामूली व्यक्ति को दो सौ-पाँच सौ तो बुलाने ही पड़ेंगे। बकरे की तो जान चली गयी, खाने वाले को स्वाद नहीं आया। पिछले 20-30 वर्षों में जैसे-जैसे कुछ लोग धन हथियाने में कामयाब हुए हैं, शादी जैसे पवित्र एवं पारिवारिक समारोह का उन्होंने सत्यानाश कर दिया है।

भारतीय शादी उद्योग में वर्तमान में रु. 1,00,000 करोड़ है और प्रत्येक वर्ष 25-30' की तीव्र दर से बढ़ रहा है। एक औसत भारतीय शादी में 20 लाख से 5 करोड़ तक खर्च हो सकते हैं। भारत में एक व्यक्ति को अपने जीवनकाल में जमा कुल संपत्ति का पांचवां हिस्सा अपनी शादी पर खर्च करने का अनुमान है। बैंगलोर राज्य की रिपोर्ट के अनुसार भारत में शादियों में बेतहाशा खर्च के नाम पर 306 करोड रूपये भोजन में, व 25 प्रतिशत आय का हिस्सा भोजन की बर्बादी में नष्ट हो जाता हैं। जिसमे व्यक्ति स्वयं की इच्छा से कम सामाजिक दबाव की वजह से ज़्यादा अपने जीवन की पूँजी का 20 प्रतिशत हिस्सा एक विवाह समारोह में खर्च कर देता है।

शाही शादी में मनीष मल्होत्रा की फैशन डिजाइनिंग, दुल्हन का भारी भरकम पहनावा और तो और डॉली जैन लेटेस्ट फैशन से साड़ी पहनाने का एक महिला पर एक लाख रुपये लेती है। यह सब स्टेटस सिम्बल का ही फीचर है कि सिर्फ और सिर्फ वरमाला के बीस मिनट के इवेन्ट पर बीस से पच्चीस लाख रुपये का बिल बनता है।

कहा जाता है कि महिलाएं ही धर्म और संस्कृति की संवाहक होती हैं। भारतीय संस्कृति के इस मल्टी-करोड़ वैवाहिक संस्कार का रथ बखूबी हांक कर वह समाज को किस गर्त में ढकेल रही है उनके सिवा और कोई नहीं जानता। शाही शादियों के बेतहाशे खर्च के पीछे मध्यम श्रेणी दो पाटन के बीच में पिस रही है। आने वाले वर्षों में मध्यम श्रेणी दो भागों में जाकर विलुप्त हो जायेगी। एक छोटा सा अंश कुबेर की पंकत में जा बैठेगा तो दूसरा बड़ा अंश लंगर में बैठकर खाते हुए नजर आयेगा।


Comments

  1. इन्कम टैक्स रेड कभी भी नहीं करता सिर्फ ऐसे लोग जब किसी भी प्रांत में हो स्थानीय लोगों की आंखों की किरकिरी बनते हैं तभी उंट ही नहीं बल्कि उंटों का समूह संकटों के पहाड़ के नीचे आता है।
    जबरदस्त लिखा गया है
    धन्यवाद

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    1. श्री नेवरजी, आपने काफी सूझ बूझ के साथ शादी जो कि सामाजिक अवस्था का अभिन्न अंग है और भारतीय परंपरा में शादियों की फिजूलखर्ची की तरफ इशारा करते हुए इसको हमारे समाज की मजबूरी बताया है। इसमें समय के समाधान का कोई विशेष जिक्र नहीं है, क्यों नहीं यह शरुआत हो की जिसमे खर्च में कटौती कर सीमित लोगो की उपस्थिति में शादियां हो, जिसे मध्यम वर्ग को कड़ी n

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    2. बड़ी राहत मिलेगी। इसे एक आंदोलन के रूप में समाज में लाना होगा। यदि कुछ धनी लोगो ने इसे अपना तो ये दिखावे के फिजूलखर्ची में काफी कटौती आएगी। लेकिन कही से शरुआत होनी जरूरी है।

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  2. समाज की कड़वी सच्चाई को उजागर करता आलेख, साधुवाद

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