मेरी गाली बनाम तेरी गाली
कुछ दिन पहले की बात है। एक राष्ट्रीय चैनल देख रहा था। एंकर ने कहा कि आइये हम एक अहम् मुद्दे पर बहस देखेंगे। जाहिर है मेरी दिलचस्पी और बढ़ी। फिर एंकर अपने काम पर आ गए या आ गयी। उन्होंने कहा आज की बड़ी खबर है कि फलां फलां ने राहुल गांधी को रावण कहा। आइये समझते हैं इस पर अन्य नेताओं की प्रतिक्रिया। और फिर देश का बहुत बड़ा, सबसे तेज चैनल ने लगभग एक घंटे तक रावण पर बहस चलायी। जमकर कई पक्ष सामने आये। मुख्य रूप से दो बातें थी कि रावण कहना उचित था या नहीं। दोनों तरफ से मिसाइलें दागी गईं। बात दूसरे पिच पर चली गयी। एक पक्ष ने कहा कि फलां ने रावण कहा किन्तु फलां ने भी अमुक तारीख को गाली दी थी। जाहिर है दूसरी साइड ने भी रावण के पक्ष वालों के विरुद्ध शब्द बाण छोड़े कि आपकी तरफ से भी ये...ये.... गालियां अमुख अमुख दिन दी गयी। और फिर एक घंटे एक दूसरे ने गालियों की पूरी लिस्ट जारी कर दी। इसमें मूल प्रश्न तो छू मन्तर हो गया कि ‘रावण’ (अगर यह गाली है तो) कहना उचित है कि नहीं। सारी बहस गालियों की सूची लम्बाई पर जा टिकी। गालियों का शब्दकोष सुनकर गाली-विधा पर मैंने भी ज्ञान की वृद्धि की। यह सिर्फ उस भारी भरकम राष्ट्रीय चैनल का मामला नहीं है सभी तो नहीं पर लगभग सभी चैनलों का यही हाल है। बहरहाल यह कोई पहली घटना नहीं है। हमारे राष्ट्रीय टीवी मीडिया बड़े फक्र के साथ अपनी इस बहस को चौथे स्तम्भ का देश के संस्कार बढ़ाने में अपने योगदान बताने में नहीं थकते। प्रेस को लोग भगवान तो नहीं मानते पर उसके प्रति सम्मान लोगों के दिल-दिमाग में आज भी है। अब इस कसौटी पर कस के देखिये कि गाली गलोच पर एक घंटे की बहस से मीडिया ने कौन सा कीर्तिमान स्थापित किया। हां चैनल की टीआरपी बढ़ी होगी और टीआरपी में उछाल का मतलब उसके दर्शकों में इजाफा होना है। इसके परिणामस्वरूप उस चैनल में विज्ञापन देने वालों की कतार और लम्बी हो गयी। जाहिर है विज्ञान रेट भी बढ़ जायेगी। चैनल मालामाल हो गया और देश गया भाड़ में।
मैं यह सब अंग्रेजी के उस उक्ति से प्रेरित होकर लिख रहा हूं जिसमें कहा गया है कि charity begins at home यानि किसी भी अच्छे काम की शुरुआत अपने घर से करिये। मैं स्वयं मीडिया में हूं, अखबार का सम्पादक भी हूं और एक टीवी चैनल का संचालक भी। इसलिये मैंने यह उचित समझा कि अपने ही घर की पहले सफाई करूं।
लोकतंत्र भारत में लोगों के लम्बे संघर्ष की परिणति है। स्वतंत्रता संग्राम में हजारों लोग शहीद हुए, लाखों लोगों ने यातना सही। हमने आजादी हासिल की और देश को आगे बढ़ाने एवं एक मजबूत देश बनाने के लिए लोकतांत्रिक शासन पद्धति की स्थापना की। उसी के अनुरूप हमारे इतिहास पुरुषों ने दुनिया का सबसे बेहतरीन संविधान का हमें उपहार दिया। इसी लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाता है प्रेस। निष्पक्ष किन्तु उत्तरदायी प्रेस भारत में लोकतंत्र का पाया मजबूत करने की गारंटी है। देश में जब इमर्जेंसी घोषित हुई प्रेस की आजादी का गला घोंटा गया पर अंतोतगत्वा इमरजेंसी को बिस्तर समेटना पड़ा। देश में सभी भाषाओं में अखबार निकल रहे हैं एवं प्रेस की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने का फिर सिलसिला शुरू हुआ। किन्तु पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह पत्रकारों एवं समाचारों पर पहरेदारी शुरू हुई है उससे लगता है चौथा स्तम्भ फिर चरमराने लगा है। गोदी मीडिया के कारण स्वतंत्र पत्रकारिता वेन्टिेलेशन पर सिसक रही है।
देश में आजकल बड़बोले नेताओं की भरमार है। कुछ नेता तो ऐसे हैं जो अपनी धृष्टता के ही कारण सुर्खियों में रहते हैं। मीडिया का चरित्र बदल गया है। पहले मीडिया एक ‘‘वाचडोग’’ यानि पहरेदारी का काम करता था। अब कई मीडिया उन नेताओं को अपना सर्वाधिक हितैषी या दूध देने वाली गाय समझते हैं जो विवादित बोल बोलकर अपनी प्रसिद्धि चाहते हैं एवं कई टीवी चैनल उनके सहारे अपनी टीआरपी को सुरसा के बदन की तरह बढ़ाने के चक्कर में रहते हैं। मणिपुर में हुई हिंसा पर भी बहस हुई। हिंसा के लिए संवेदना शून्य नेता ने दु:ख प्रकट करने की बजाय दूसरे पक्ष द्वारा की गयी हिंसा का इतिहास बता दिया। वहां पर ‘‘मेरी हिंसा’’ बनाम ‘‘तेरी हिंसा’’ के बीच सिर फुटव्वल होती रही। मूल प्रश्न है कि हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है अब बहस में खो गया। धर्म को लेकर अधर्म की पराकाष्ठा पार कर दी जाती है।
ऐसे में ईमानदार एवं अपने आदर्श पर कायम रहने वाले पत्रकार जान हथेली पर लेकर घूमते हुए नजर आयेंगे। एक टीवी एंकर ने आरोप लगाया है कि ‘टॉक शो’ के बाद उन्हें कोई दो हजार से ज्यादा धमकी भरे फोन कॉल मिले। साल 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लगाये गये आपातकाल के दौरान कोई डेढ़ साल तक समूचे विपक्ष को जेल में बंद कर दिया गया था। लेकिन तब भी इंदिरा गांधी और उनकी सरकार के प्रति विपक्षी दलों, नेताओं और आम नागरिकों ने वैसी अमर्यादित भाषा का प्रयोग नहीं किया होगा, जैसी आज अमूमन सभी पक्ष कर रहे हैं। वी पी सिंह जिस समय प्रधानमंत्री थे, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के मुद्दे पर पूरे देश में बवाल मच गया था। छात्रों के आत्मदाह की घटनायें तक हुई। सरकार को इसकी राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ी थी। उस समय भी वैचारिक असहमति हिंसक भाषा के इस्तेमाल की अराजकता में वैसी तब्दील नहीं हुई जैसी आज दिख रही है। विडम्बना यह भी है कि वे तमाम लोग जो अपने विरोधियों के प्रति असंयत अभद्र और आक्रामक भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं उन्हें अपने-अपने आकाओं की ताकत पर पूरा भरोसा है। पर उन्हें देश की जनता के समर्थन पर शायद उतना भरोसा नहीं रहा।
आज के परि²श्य में राजनीति और मीडिया दोनों में होड़ लगी है कि कौन कितना बहशी एवं नैतिकता की बलि ले सकता है। टीवी पत्रकारिता आज भी किसी अंकुश के दायरे में नहीं है। प्रेस की स्वतंत्रता को बनाये रखने हेतु गठित भारतीय प्रेस परिषद का अनुशासन टीवी मीडिया पर लागू नहीं होता। परिणामस्वरूप वह छुट्टे सांड की तरह घूम रहा है और कहीं भी मुंह मार सकता है। उसे रोकने की लगाम एकमात्र उनके दर्शकों के हाथ में है। वे गांधी के तीन बंदरों की तरह हो जायें, तो बात बन सकती है- न बुरा देखेंगे, न बोलेंगे, न सुनेंगे।
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