श्राद्ध पक्ष में ही क्यों उमड़ती है श्रद्धा?

श्राद्ध पक्ष में ही क्यों उमड़ती है श्रद्धा?

पूर्वजों के प्रति समर्पित 16 दिन का श्राद्ध पक्ष शुक्रवार से शुरू हो गया है। इस दौरान तिथियों के अनुसार हम अपने दिवंगत पुरखों के प्रति श्रद्धावनत होकर सात्विक भोजन बनाकर पंडितों को खिलाते हैं साथ ही गो-ग्रास से गायों की सेवा भी की जाती है। गाय के माध्यम से एवं कौओं को कुछ खिलाकर हिन्दुओं के एक वर्ग की मान्यता है कि हमारा यह भोजन स्वर्गारोहित बुजुर्गों तक पहुंच जाता है। आज के वैज्ञानिक युग में ऐसी मान्यता हास्यास्पद प्रतीत होती है फिर भी हमारी पुरातन मान्यताओं के अनुरूप कार्य किया जाता है ताकि बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा प्रदर्शन में कोई कसर नहीं रह जाये। इस परम्परा पर शिक्षित वर्ग कई बार टिप्पणी करता रहा है किन्तु इसे निपट व्यक्तिगत मानकर हम उन समीक्षाओं या आलोचनाओं पर गौर नहीं करते। श्राद्ध पक्ष के दौरान कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। मैं भी सोचता हूं कि हम प्रियजनों का आशीर्वाद प्राप्त करने पिंडदान भी करते हैं, श्राद्ध भी पूरी गरिमा एवं यथाशक्ति आयोजित करते हैं। किन्तु इस दौरान कोई शुभ कार्य क्यों नहीं कर सकते, यह समय ही बुजुर्गों के आशीर्वाद के लिए निर्धारित है। तर्कसंगत तो यही है कि इन्हीं पन्द्रह दिनों में हमारा पुरखों से सरोकार बनता है। फिर इस दौरान हम कोई नया व्यवसाय करें तो परलोक से हमारे श्रद्धापात्र तो हमें स्नेह की वर्षा तो जरूर करेंगे। किन्तु हमारी धार्मिक मान्यता ठीक इसके विपरीत है। कोई नया उद्यम करना श्राद्ध पक्ष के दौरान वजि4त है।


श्राद्ध पक्ष किसी भी गृहस्थ सनातनी के लिए जो विशेष है, लेकिन कई बार यह प्रश्न उठाया गया है कि हम अपने श्रद्धापात्रों के प्रति उनके दिवंगत होने के बाद ही भावुक क्यों होते हैं। वे जब तक हमारे साथ रहते हैं उपेक्षाओं के शिकार होते हैं। हमें उनमें बीत राग का आलम परिलक्षित होता है। उनकी बातों में हम गुजरे जमाने का गुबार महसूस करते हैं एवं उस गुबार में घुटन होती है। मैं ऐसे कई सम्पन्न परिवारों को जानता हूं जहां किसी ने पौधा लगाया, सिंचित किया और जब वह विशाल वटवृक्ष बन गया तो उस बागवान के पहले माली को पुरानी डिजाइन के कपड़ों की तरह उतार देना चाहते हैं। आमतौर पर यह धारणा होती है कि समय बदल गया है, अब नये जमाने में हम पुराने मॉडल के विचारों को कब तक घसीटते रहेंगे। ऐसा सोचने में सबसे बड़ी भूल यह होती है कि समय के थपेड़े खाकर, अनुभवों के सागर में गोते लगाते लगाते अब किनारे पर लगा आदमी संकट से उबरने का गुर जानता है। वह नीर-क्षीर विवेकी भी है और उसमें अच्छे-बुरे की समझ है। लेकिन ढलती सांझ देखकर वह चुप है, नीरव है। यही कारण है कि उसने कम साधनों में घर चलाया और परिवार को बांधकर रखा। युवा पीढ़ी अपनी कुछ उपलब्धियों पर इतराती है किन्तु इस बात से वह अनिभिज्ञ है कि इस मजबूत एवं भव्य अट्टालिका की नींव का पत्थर है वह बुजुर्ग। इस महल को उसने ही आंधी तूफान व भूमि कम्पन्न से बचा कर रखा है।

किस्मत वाले होते हैं वे लोग जिनके सिर पर बुजुर्गों का हाथ होता है। सत्संग और सामाजिक आयोजनों में इस तरह के उपदेश दिये जाते हैं लेकिन फिर भी समाज की वस्तुस्थिति बहुत ज्यादा सकारात्मक नहीं है।

हम पितृ पक्ष में दिवंगत बुजुर्गों के श्राद्ध की औपचारिका को बखूबी निभाते हैं पर जीते जी वे हमारे साथ एवं तवज्जों के लिए तरसते हैं- यह आज के पारिवारिक जीवन का सबसे वेदनापूर्ण पहलू है जिसका किसी कवि ने कुछ ऐसे वर्णन किया-

प्यासे को पानी पिलाया नहीं

बाद अमृत पिलाने का क्या फायदा!

ये भी सच है कि आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में व्यक्ति अपने लिए ही दो पल नहीं निकाल पाता है तो फिर अन्य जिम्मेदारियां कैसे पूरी करे। और यही सोच उसके व्यवहार और विचारों में शुष्कता लाती है जिसके कारण परिवार में और खासतौर से उसके माता-पिता से दूरियां बढ़ती हैं। कुछ विशेष कारण न होते हुए भी दोनों पीढिय़ों के बीच एक अ²श्य दीवार सी खड़ी हो जाती है। दोनों एक छत के नीचे रहते हैं, प्रतिदिन एक-दूसरे को देखते भी हैं मिलते भी हैं लेकिन फिर भी एक-दूसरे से अपने विचारों को आदान-प्रदान नहीं कर पाते और मैं इसको सकारात्मक ²ष्टि से देखूं तो कहूंगा की चाहकर भी पर्याप्त समय नहीं दे पाते।

कुछ परिवार ऐसे भी हैं जहां वास्तव में बुजुर्गों की अवहेलना की जाती है अपमान किया जाता है। उनको तिरस्कृत किया जाता है। मैं फिर यही कहूँगा की हर परिवार की स्थिति भिन्न हो सकती है इसलिए किसी भी पीढ़ी को दोष देना कठिन है।

उदाहरणार्थ मेरे एक जानकार हैं बचपन से मैं उनको जानता हूँ उसकी माता जी उसकी दादी से आदरपूर्ण व्यवहार नहीं करतीं थीं और बात बात पर तिरस्कृत भी करतीं। अब वो बुजुर्ग हो गयीं हैं और उनको भी उनके पुत्र के द्वारा वैसा ही व्यवहार भोगना पड़ रहा है। आप में से बहुत विद्वतजन उस लडक़े को उपदेश दे सकते हैं कि ये मानवता नहीं है कि यदि किसी ने कुछ गलत किया है तो उसके साथ भी गलत व्यवहार हो। लेकिन उस बच्चे ने जो बचपन से देखा - सीखा वही तो वो दोहराएगा। और ये तो गीता भी कहती है की कर्मों का फल अवश्य मिलता है जैसे कर्म वैसा फल। समाज के नैतिक मूल्यों में धीरे धीरे गिरावट आई है और वो अपने घर से नहीं तो समाज में अन्य कहीं से। लेकिन गिरावट है।

इसका निदान सभी लोग अपने अपने अनुसार ढूंढ रहे हैं और आजकल वृद्धाश्रमों का भी बोलबाला है कुछ वृद्ध इसको मजबूरी बताते हैं तो कुछ हेय दृष्टि से भी देखते हैं। मेरी व्यक्तिगत सोच कभी भी इस तरह के आश्रमों के पक्ष में नहीं रही। मैं तो यही चाहता हूँ कि घर में बुजुर्गों का साथ हमेशा बना रहे। लेकिन जब भारत के इतिहास पर नजर डालता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे पूर्वजों ने जीवन के अंत समय में जब व्यक्ति के दायित्वों की पूर्ती हो जाती थी वानप्रस्थ की व्यवथा दी थी शायद ये वृद्धाश्रम वानप्रस्थ का आधुनिक रूप हों। लेकिन वास्तव में मेरे विचार में हमारे बुजुर्गों को भी प्रेरणा की आवश्यकता है जीवन के इस पड़ाव पर भी वो अनुकरणीय उदाहरण दे सकते हैं। वैसे भी हम सदा से अपने बुजुर्गों से ही सीखते आये हैं वो अपने जीवन भर के अनुभव की पूँजी से समाज को सार्थक दिशा से सकते हैं। उदाहरण स्वरुप आजकल ज्यादातर घरों में झाड़ू-पोंछा, चौका-बर्तन वाली लगीं हुईं हैं अगर हमारे बुजुर्ग उनके बच्चों को ही एक घंटे पढ़ाएं या पढ़ाने में या अन्य कामों में आर्थिक या कोई अन्य मदद कर दें तो समाज की दिशा दशा भी सुधरेगी और उनका एकाकीपन भी दूर होगा।

मैं बुजुर्ग एवं वृद्धजनों के सम्मान में किसी कवि की इन दो पंक्तियों को रेखांकित करना चाहूंगा-

एक बूढ़ा आदमी है, शहर में

या यूं कहें

इस अंधेरी कोठरी में

एक रोशन दान है।


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