यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते

महिला आरक्षण बिल लोकसभा में लगभग सर्वसम्मति से पास हो गया (विरोध में महज दो वोट पड़े)। गुरुवार को राज्यसभा में भी पास हो गया। पर इस बिल को लेकर कई पार्टियों में गांठ बधी हुई है। शिरोमणि अकाली दल की नेता हरसिमरत कौर बादल सहित तृणमूल की जुझारू सांसद महुआ मैत्र सहित अन्य दलों ने भी इस बिल को भाजपा की सोची-समझी रणनीति करार दिया। सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या भाजपा एवं दूसरे दल आरक्षण के मामले में सचमुच सीरियस हैं? बिल पारित होने से ही यह लागू नहीं होगा इसे चार-पांच साल का और सफर तय करना होगा। लोकसभा का चुनाव 2024 में होगा, उसके बाद जनगणना होगी और फिर परिसीमन की लम्बी प्रक्रिया। इसके बाद ही लकोसभा के साथ राज्यों की विधानसभा में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण से संबंधित कानून को अमली जामा पहनाया जा सकेगा। हमारे देश में चार-पांच सालों में कुछ भी घट सकता है। हवा भी बदल सकती है, आसमां भी फट सकता है। बिल पहले भी लाया जा सकता था इसके लिए विशेष अधिवेशन का नाटक क्यों खेला गया? इसलिए यह आलोचना भी स्वाभाविक है कि भाजपा ने लोकसभा और उसके पहले पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव में लाभ उठाने की गरज से यह समय चुना है। इन चुनावों में महिलाओं यानि आधी आबादी का हमदर्द बताकर वोट बटोरने की जुगाड़ का खेल खेला जायेगा। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि पहले महिलाएं भाजपा को चुनाव में जितायें फिर मिलेगा आरक्षण का लाभ। यह संदेश भी साफ है। इसके साथ ही परिसीमन का हथियार सरकार के पास है जिसका वह अपने ढंग से गाड़ी की स्टियरिंग की तरह  घुमायेगी। इस ‘‘ड्राइविंग स्किल’’ में भाजपा माहिर है। वर्ना परिसीमन की बिल को लागू करने में आवश्यकता गले नहीं उतरती।


मेरी समझ में कोई भी राजनीतिक दल अन्तर्मन से महिला आरक्षण के पक्ष में नहीं है। भाजपा इस बिल का श्रेय ले सकती है किन्तु उसका महिला-सम्मान इसीसे झलकता है कि जिन 16 राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री हैं, उनमें एक भी महिला नहीं हैं। महिलाओं के प्रति इतना ही आदर है तो महिला पहलवानों के ‘‘यौन शोषण’’ के खिलाफ धरने की अनदेखी क्यों की गयी? मणिपुर में सैनिक की पत्नी को नंगा घुमाने की वारदात पर सैनिक ने यह कहा कि मैं देश की रक्षा के लिये लड़ सका किन्तु अपनी पत्नी की रक्षा नहीं कर पाया।

यह भी एक विडम्बना है कि 1974 से संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाने की शुरुआत हुई थी। उसका बाद 1993, 1996, 1998, 1999, 2002, 2003, 2008 एवं 2010 में यह बिल बार-बार लाया गया लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। ऐसी दुर्गति तो शायद किसी भी अन्य मुद्दे की नहीं हुई। हालांकि इस बीच देश की राष्ट्रपति महिला बनी, दूसरी महिला वह भी आदिवासी महिला राष्ट्रपति बन गयी, कुछ राज्यों की मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री पद पर भी महिलाएं आसीन हुई, लोकसभा की स्पीकर बन गयी पर आम महिलाओं का लोकसभा में आरक्षण से इस पाले  से उस पाले में गेंद की तरह घूमता रहा।

भारत में महिलाओं का अभी प्रतिनिधित्व केवल 11.8 प्रतिशत है। कहने को वह आधी आबादी है। बंगलादेश जैसा कल पैदा हुआ राष्ट्र संसद में महिला आरक्षण दे सकता है तो भारत में विधेयक की दुर्गति क्यों? यह कड़वा सच है कि हमारे देश में इस मामले में इच्छा शक्ति की कमी तथा पुरुषवादी मानसिकता अपना खूंटा गाड़े हुए हैं और हम उसी से बंधे हुए हैं।

विधेयक का विरोध करने वालों का कहना है कि दलित और ओबीसी मीहिलाओं के लिए अलग कोटा होना चाहिए। उनके अनुसार दलित और ओबीसी महिलाओं का शोषण अधिक होता है। उनका यह भी तर्क है कि महिला विधेयक के रोटेशन के प्रावधानों में विसंगतियां हैं जिन्हें दूर करना चाहिये। यह सही है कि जो बिल आया है इस विधेयक से शहरी महिलाओं का प्रतिनिधित्व विधानसभा एवं संसद में हो जायेगा। बतौर भाजपा सांसद पूर्व मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय मंत्री उमा भारती अगर पिछड़े वर्ग की महिलाओं को आरक्षण नहीं दिया जाता है तो फिर कुछ नेताओं एवं अफसरशाहों की बीवियां ही संसद में बैठ सकेंगी।

दुनिया में लोकसभा सदन में महिला प्रतिनिधित्व की बात करें तो भारत इस मामले में पाकिस्तान से भी पीछे है। संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी के मुद्दे पर हम नेपाल (32.7 प्रतिशत), चीन (24.9 प्र.श.), बंगलादेश (20.6 प्र.श.), पाकिस्तान (20.2 प्र.श.), भूटान (14.9 प्र.श.) जैसे देशों से भी पीछे हैं। एक बात दिलचस्प है कि आम चुनाव में महिला उम्मीदवारों की सफलता पुरुष प्रार्थियों से बेहतर रही है। 2014 के आम चुनावों में महिलाओं की सफलता दर 9 प्रतिशत रही जो पुरुषों की तुलना में 3 प्रतिशत ज्यादा है।

भारतीय राजनीति में आजादी के 76 वर्षों के बाद भी महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। जर्नल ऑफ इकोनोमिक विहेवियर एंड आर्गेनाइजेशन में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार जिन सरकारों में महिलाओं की भागीदारी अधिक होती है वहां भ्रष्टाचार कम होता है।

भारत में महिलाओं की स्तुति बेजोड़ है। किसी भी धर्म में नारी को वह ऊंचाई नहीं दी गयी है जो हमारे सनातन धर्म में है। नारी दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती देवी हैं किन्तु जब उसे कहीं पदासीन करने की बात आती है तो हम उसकी दुर्बलताएं गिनाना शुरू कर देते हैं। ऐसी विषमता दुनिया के अन्य किसी समाज में नहीं है। महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मुद्दों पर राजनीतिक वर्ग का भेदभावपूर्ण रवैया चिंताजनक है। यह भी एक विडम्बना है कि हमारे देश में महिलाओं को वोट देने का अधिकार इंगलैंड से भी पहले मिल गया था पर राजनैतिक प्रतिनिधित्व में हम चलती ट्रेन के गार्ड के डिब्बे में बैठे नजर आते हैं। गौरवान्वित करने के लिए भारत और इंगलैंड दोनों की प्रधानमंत्री महिला रह चुकी हैं। हमारे राष्ट्रपति भवन को अब तक मात्र दो महिलायें सुशोभित कर चुकी हैं जबकि इंगलैंड में महारानी ‘फिगर हेड’ है।

एक बात और राजनीतिक प्रतिनिधित्व तब तक साकार नहीं होगा जब तक सामाजिक स्तर पर महिलाओं को मर्यादित स्थान नहीं मिले। सामाजिक, सांस्कृति, शैक्षणिक सभी क्षेत्रों में हजारों छोटे बड़े संगठन हैं किन्तु उनकी संचालन या प्रबंध समितियों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है। कुछ संगठन तो इस मामले में चालाकी करते हैं। महिलाओं की अलग इकाई तो बना देते हैं किन्तु मुख्यधारा से उनको यथासंभव वंचित रखते हैं। इस पर मैं एक सर्वे कर रहा हूं जिसके पूरा होने पर पाठकों को उसकी रिपोर्ट परोसूंगा। अब उदाहरण के लिये भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरआरएस) को अपना ‘बैक बोन’ (रीढ़ की हड्डी) मानती है। आरएसएस में महिलाओं की नो इन्ट्री है। उनके लिये दुर्गावाहिनी का गठन किया गया है, वहां पुरुषों का प्रवेश निषेध है। इससे मिलती जुलती स्थिति कई और बड़े-बड़े नामधारी संगठनों की है। इस परि²श्य में आप थोड़ा ईमानदारी से आंकलन करें कि महिला समाज को आगे बढ़ाने में पुरुषों की वास्तव में कितनी दिलचस्पी है या यह सिर्फ हाथी के दांत है।

इसी संदर्भ में एक शेर याद आया वसीम बरेली का-

वो झूठ बोल रहा था, बड़े सलीके से

मैं एतबार न करता तो और क्या करता?


Comments

  1. विवेचना सारगर्भित है लेकिन भले ही चुनाव के वक्त लटकाउ विधेयक आया फिर भी एक विकल्प बना है। हमें गर्व करना चाहिए। आजादी के बाद कितने संकट सामने है धैर्य रखें सभी का, समाधान होगा

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