ज्ञान-विज्ञान का कोई विकल्प नहीं
जय हो!
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर यान (चंद्रयान-3) उतारने वाला पहला देश बन गया है। भारत को उस जगह उतारने में कामयाबी मिली है जहां रूस का लूना-25 चार दिन पहले ही नाकाम होकर गिर पड़ा था। चंद्रयान-2 की हल्की निराशा अब दूर हुई है। इस सफलता ने यह भी साबित कर दिया कि विज्ञान का कोई विकल्प नहीं है। चंद्रयान-3 की सफलता पर देश के सभी नागरिकों ने खुशी का इजहार किया है। जात-पात, धर्म, संप्रदाय की दीवारों को लांघकर भारतीय नागरिक खुशी में शरीक हुआ। दुनिया में जहां भी भारतवंशी बसे हैं, सब ने इस सफलता के लिए भारत के नागरिकों के स्वर में स्वर मिलाकर भारतीय वैज्ञानिकों को बधाई दी है। बेशक भारतीय विज्ञान ने लंबी यात्रा पूरी की है। चंद्रयान का सपना पिछली सदी के अंत में देखा गया था और उसके बाद जमीनी स्तर पर वर्ष 2003 में उसको पूरा करने हेतु तैयारियां शुरू हुई। कोई शक नहीं है कि चंद्रयान-3 की सफलता से विज्ञान की दुनिया में प्रतिद्वंदिता भी बढ़ेगी और इसका लाभ सबको होगा। भारत ने अपने दम पर ही ज्यादातर अभियानों को सफल बनाया है। भारत की वैज्ञानिक तकनीक साझा करने की बात हो या नासा के सहयोग की बात अमेरिका ने आनाकानी की। अब किन्तु भारत की वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता का लोहा अमेरिका की अंतरिक्ष विज्ञान एजेंसी नासा भी मानती है।
भारतीय वैज्ञानिकों की यह उपलब्धि ऐसी है जिसने पूरी दुनिया को वाह-वाह करने पर मजबूर कर दिया है। 2014 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने भारत के मंगलयान अभियान का मजाक उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ा था। कार्टून बनाकर भारत का उपहास किया था।
अंतरिक्ष में भारत के प्रवेश की कहानी 1960 के दशक में प्रारंभ होती है। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक डॉ विक्रम साराभाई जिनके नाम पर चन्द्रयान का नाम विक्रम रखा गया, ने भी उस समय अनुभव कर लिया था कि आने वाले समय में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के माध्यम से समाज और देश के विकास के नए सोपान रखे जाएंगे। 1961 में परमाणु ऊर्जा विभाग की स्थापना हुई और भारत के परमाणु कार्यक्रम के जनक डॉ होमी जहांगीर भाभा परमाणु ऊर्जा विभाग के निदेशक नियुक्त किए गए। 1962 में उन्होंने इंडियन नेशनल कमिटी फॉर स्पेस रिसर्च बनाई। डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने भी इसके सदस्य थे। इस कमेटी से ही इसरो नामक संगठन अस्तित्व में आया जो तब से लेकर अब तक भारत की अंतरिक्ष गतिविधियों का आधारभूत केंद्र बना हुआ है। अप्रैल 1984 में भारतीय वायु सेना के स्क्वाड्रन लीडर रहे राकेश शर्मा अंतरिक्ष में जाने वाले पहले भारतीय बने। सन 2008 में भारत ने अपना पहला चंद्र मिशन यानी चंद्रयान-1 और इसके कुछ वर्षों बाद 2014 में मंगलयान लॉन्च किया था। यह विज्ञान और वैज्ञानिकों की प्रगति है। इसका संदेश यह जाना चाहिए कि हमारे युवाओं में वैज्ञानिक चेतना जागृत हो। नेताओं को ऐसे मौके पर भाषण देने या श्रेय लेने से परहेज रखना चाहिए। वैज्ञानिकों की कीर्ति को साइडलाइन कर उस जगह पर कब्जा करने और अपने पर फोकस करवाकर नेता देश के वैज्ञानिक सोच विकसित करने के प्रयासों पर पानी फेरने का कार्य करते हैं।
1969 नील आर्मस्ट्रांग जब चांद पर उतरे थे उस वक्त अमेरिका का राष्ट्रपति कौन था, यह कोई नहीं जानना चाहता और ना ही उस वक्त के अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपना यश फैलाने की कोई रणनीति ही बनाई। हमारी महान उपलब्धि को देखते हुए नेताओं को यह याद रखना चाहिए कि जो काम 54 साल पहले हो चुका है वहां पहुंचने के लिए हमें भी खुद को दूर रख कर वैज्ञानिकों को आगे रखना होगा। दुर्भाग्य है कि ए पी जे अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपति बने तो हमें गौरव बोध हुआ पर उस सर्वोच्च पद पर आसीन होने के पहले वे हाशिए पर ही रहे। आज मौका प्रधानमंत्री मोदी के भाषण देने का नहीं था। उनको वैज्ञानिकों को बढ़ावा देने के लिए सुविधाओं में इजाफा करने का जरिया बनना चाहिए। यहां इसका उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि प्रधानमंत्री श्री मोदी चंद्रयान के दक्षिण ध्रुव की सतह पर उतरते ही टीवी स्क्रीन पर आ गए, किंतु इसरो के वैज्ञानिकों की सुविधा हेतु एवं आवश्यक साधन जुटाने के मामले में उनको बड़ी आलोचना झेलना पड़ रहा है। कांग्रेस ने इसरो आवंटित बजट में कमी करने और उन पर अभियोग लगाते हुए सवाल किया कि बजट में प्रधानमंत्री ने 32 प्रतिशत कटौती कर मिशन में रोड़ा अटकाने का काम किया। यह भी सवाल उठा कि एचईसी यानी हेवी इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन रांची के जिन इंजीनियरों ने चंद्रयान-3 के लिए काम किया उनका 17 महीने से वेतन बकाया है। इंजीनियर्स एवं वैज्ञानिक विकास के नायक हैं। इसरो अंतरिक्ष अनुसंधान में दुनिया के सबसे आगे रहने वाले प्रतिष्ठानों में एक है। उनकी प्रतिभा और कौशल के प्रति यह सरकारी रवैया उचित नहीं है। इसी वर्ष अंतरिक्ष अनुसंधान विभाग के बजट में 1093.84 करोड़ की कमी की गई, जिसके परिणामस्वरूप सेटेलाइट एवं लांच वेहिकल के ऑपरेशन प्रकल्प को झटका लगा। आज की तारीख में ग्लोबल स्पेस इकोनामी में भारत की हिस्सेदारी महज 2 फ़ीसदी है। सरकार का लक्ष्य है कि दशक के अंत तक मार्केट के 9 फीसदी हिस्से पर कब्जा हो जाए। इस संदर्भ में एक कंसलटिंग फॉर्म ऑर्थर डी लिट्स का यह आकलन गौर करने लायक है कि मौजूदा रफ्तार से 2040 तक भारत का स्पेस इकोनामी 40 अरब डॉलर की होगी। लेकिन संभावनाओं की बात की जाए तो भारत में 2040 तक 100 अरब डॉलर की स्पेस इकोनामी बनने की क्षमता है।
चांद पर चंद्रयान-3 की सफल लैंडिंग एक कम खर्च में मिली वैज्ञानिक सफलता से कई देश चमत्कृत हैं। कई देश इसरो के साथ करार करने को उत्सुक हैं। कई देश इच्छुक है किंतु अधिकतम खर्च और सफलता की गारंटी नहीं होने से वे इस अभियान को शुरू करने से बचते रहे हैं इसरो की दक्षता का। उपयोग कर ऐसे देश चांद पर जाने की तैयारी में हैं। ऐसे देश चाहते हैं कि कम खर्च पर अभियान को सफल बनाने की खूबियों का लाभ उठाया जाए। चंद्रयान की सफलता का श्रेय वैज्ञानिकों और केवल एवं केवल मात्र वैज्ञानिकों को है। इस ऐतिहासिक क्षण का यह भी एक संदेश है कि हम विशेषकर हमारे युवा वैज्ञानिक सोच एवं तकनीकी आस्था को सुदृढ़ करें। दिल में अंधविश्वास, दिमाग में चमत्कार लिए हम इस सफलता को सिर्फ देख सकते हैं, इसमें जी नहीं सकते। अभियान की सफलता के बाद इसरो के मुखिया सोमनाथ को बधाई का तांता लग गया। ऐसे गौरव के क्षण में उनका यह दावा करना कि वेदों से आए हैं साइंस के सिद्धांत एवं साइंस के सिद्धांत की उत्पत्ति वेदों से हुई है। उनकी मानें तो अलजेब्रा से लेकर एविएशन तक सब कुछ पहले वेदों में ही पाया गया था। इसके जवाब में कोलकाता विश्वविद्यालय में हिंदी के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर अमरनाथ का फेसबुक में किया गया पोस्ट को यहां हू बहू उद्धृत करना चाहता हूं-
प्रिय श्री सोमनाथ जी,
आप के नेतृत्व में इसरो ने हमें चांद पर उस जगह पहुंचा दिया। जहां अब तक कोई नहीं पहुंचा था। हम सब गौरवान्वित हैं, लेकिन हम चकित हैं कि इतने बड़े वैज्ञानिक में वैज्ञानिक चेतना क्यों नहीं विकसित हो सकी?
अरे भाई, जब अंतरिक्ष विज्ञान पर शोध किया तो उसी पर बोलिए ना! जिसे पढ़ा नहीं उसके बारे में ऐसा दावा करके करोड़ों भारतीयों को भ्रमित क्यों कर रहे हैं? इतने बड़े वैज्ञानिक के मुंह से ऐसे अवैज्ञानिक दावे?
चन्द्रयान की सफलता और इस पर दुनिया के बड़े देशों का दांत तले अंगुली दबाना हमारी विज्ञान-बिरादरी का कौशल है, इस कौशलता पर किसी तरह समझौता नहीं होना चाहिये।

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