जनतंत्र में सरकारें बदलती हैं
स्मारकों, रास्तों का नाम बदलना जनमत का मजाक है
दिल्ली में मशहूर नेहरू मेमोरियल एंड लाइब्रेरी सोसाइटी का नाम बदलकर प्रधानमंत्री संग्रहालय कर दिया गया है। राजधानी के तीन मूर्ति भवन परिसर में स्थित नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी (एनएमएमएल) का नाम बदलने को लेकर विवाद छिड़ गया है। एनएमएमएल का नाम अब ‘‘प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं पुस्तकालय सोसाइटी’’ कर दिया गया है। ज्ञातव्य है कि तीन मूर्ति भवन भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का आधिकारिक आवास था। सरकार ने कहा कि हमारे सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों के सम्मान में नया नाम दिया गया है।
संग्रालय से नेहरू का नाम हटाया जाना दु:खद है किन्तु इस निर्णय से कोई आश्चर्य नहीं हुआ है। वर्तमान सरकार और उसके प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का नेहरू-विरोध सर्वविदित है। उन्होंने कई बार नेहरू की नीतियों पर हमला बोला है। नेहरू का नाम उन्हें कभी रास नहीं आया। वैसे एक बड़ा राजनीतिक वर्ग है जिसने नेहरू की नीतियों एवं उनके कार्यों की न सिर्फ अनदेखी की बल्कि उसके विरुद्ध विचित्र दलीलें दी हैं। नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय 60 वर्षों से एक वैश्विक बौद्धिक ऐतिहासिक स्थल और पुस्तकों एवं अभिलेखों का खजाना रहा है। भारतीय राष्ट्र के शिल्पकार के नाम और विरासत को विकृत करने नीचा दिखाने और नष्ट करने के लिए क्या नहीं किया गया। नेहरू के यश और उनके विशाल व्यक्तित्व के प्रभाव से कुछ राजनेता अपने को असुरक्षित महसूस करते हैं। उनकी यह आशंका वैसे बहुत सही और वास्तविक है। नेहरू स्वतंत्रता के योद्धा एवं भारत के चातुर्दिक विकास की नींव के पत्थर हैं एवं यह स्थान और कोई नहीं ले सकता।
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि कांग्रेस कार्य समिति में सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाने का विचार रखने वालों का बहुमत था किन्तु गांधी ने नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने की सलाह दी। कहना न होगा कि गांधी की सलाह कांग्रेस के लिए आदेश था। और नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया गया। गांधी ने नेहरू को ही क्यों चुना? जबकि गांधी के कई मूलभूत सिद्धान्तों के साथ नेहरू एकमत नहीं थे। यह समझने की जरूरत है। सरदार पटेल एक ²ढ़ इच्छा वाले व्यक्ति थे एवं उन्हें ‘‘लौह पुरुष’’ कहा गया। पांच सौ से अधिक रियासतों का भारत में विलय कराना उन्हीं के बस की बात थी। लेकिन गांधी ने सोचा कि स्वतंत्रोपरान्त एक ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनना चाहिये जो उदार स्वभाव का हो और सबको अपने साथ लेकर चल सके। यह क्षमता नेहरू में ही थी। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में भी नेहरू सर्वमान्य थे। भारत में विभिन्न धर्म, भाषा, जाति, विचारों के लोगों को साथ लेकर चलने की होशियारी जवाहरलाल में थी। इसीलिये नेहरू को सरताज बनाया गया जबकि सरदार पटेल उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बनाये गये।
स्वतंत्रता के पश्चात् जनतंत्र को सु²ढ़ किया गया, धर्मनिरपेक्षता को प्रशासन का सूत्र बनाया गया एवं देश में आर्थिक विकास को गति नेहरू काल में दी गयी। पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से योजनावद्ध विकास की सिर्फ नींव ही नहीं रखी, विकास को गति दी गयी। देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था के मंत्र से निजी एवं सरकारी दोनों क्षेत्र को विकसित किया गया। उन्होंने देश को एक संतुलित, संयमशील एवं आदर्श राष्ट्रवाद के मार्ग पर चलने के लिए प्रशासन को प्रेरित किया। नेहरू विपक्षी दलों को पूरा स्थान दिया करते थे एवं उनकी आलोचनाओं के प्रति बहुत संवेदनशील रहते थे। नेहरू ने देश के बंटवारे तथा उसके परिणामस्वरूप सांप्रदायिक हिंसा को अथवा भारी संख्या में शरणार्थियों के आगमन को चुनावों को स्थगित करने का बहाना नहीं बनाया। नेहरू ने महसूस किया कि केवल धर्मनिरपेक्षता के द्वारा ही सांप्रदायिकता के आग से बचा जा सकता है। वे अपने व्यक्तिगत जीवन में भी पूर्ण रूप से धर्मनिरपेक्ष थे। शिक्षा के प्रचार प्रसार में बड़ी राशि मुहैया की। 1951 में शिक्षा पर खर्च 19.8 करोड़ था वह 1964-65 में बढक़र 146.27 करोड़ हो गया। आजादी के समय पूरे भारत में 18 विश्वविद्यालयों थे जबकि 3 लाख विद्यार्थी, 1964 तक विश्वविद्यालयों की संख्या 54 और कॉलेजों की संख्या 2100 हो गयी। स्नातक और स्नातकोतर छात्रों की संख्या 6.13 लाख हो चुकी थी। नेहरू युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी शिक्षा क्षेत्र का विकास रही। इस तरह अनेक क्षत्रों में विकास का सूर्योदय हुआ। भारत की गुटनिरपेक्ष विदेश नीति का सारी दुनिया ने लोहा माना। यही नहीं आज की सरकार भी नेहरू की विदेश नीति को ही लगभग अनुसरण कर रही है।
विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति और संतुलित किास हेतु फूड कार्पोरेशन, फर्टिलाइजर कार्पोरेशन, अंतरिक्ष अनुसंधान हेतु इसरो, विश्वविद्यालयों के लिये यूजीसी, ‘सेल’ के अन्तर्गत देश में दुनिया के विकसित देशों के तकनीकी सहयोग से देश में पांच बड़े इस्पात कारखानों की स्थापना की, निजी क्षेत्र में एल्यूमीनियम कारखाने हेतु बिड़ला बंधुओं को सलाह दी। यही नहीं विभिन्न भाषाओं के विकास हेतु साहित्य अकादमी का सृजन नेहरू की ही देन थी। भाखड़ा नंगल जैसे उच्चकोटि का डैम तैयार कर उदाहरण रखा।
सही माने में नेहरू आधुनिक भारत के निर्माण थे। देश की स्वतंत्रता संघर्ष में लगभग दस वर्ष जेल गये और स्वतंत्रता के पश्चात् भारत के विकास हेतु हरसम्भव प्रयास करने का श्रेय किसी एक व्यक्ति को है तो वे पंडित जवाहर लाल नेहरू ही है।
एक बात और महत्वपूर्ण है। नाम परिवर्तन के बारे में एक अनुशासन बरतना बहुत जरूरी है। चुनी हुई सरकार ने स्वतंत्रता के पश्चात् अगर संस्था का नाम किसी नेता के नाम पर रखा तो बाद में चुनी गई सरकार उसे नहीं बदले अगर ऐसा सिद्धांत ग्रहण नहीं किया गया तो नाम परिवर्तन एक मजाक बन जायेगा। जब भाजपा का जनसंघ की सरकार बनी तो बहुत से संस्थानों के नाम दीनदयाल उपाध्याय, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर रखे। जनतंत्र में सरकारें बदलती हैं। तो क्या आने वाली सरकार अगर किसी अन्य दल की हो तो नाम बदलना न्यायोचित होगा? देश के नागरिकों के बहुमत से सरकार बनती है उसके पीछे जनता का मैनडेड होता है। उसे बदलना जनमत का अपमान है। कोलकाता में बामपंथी सरकार ने चौंतीस वर्ष राज किया। लेनिन की मूर्ति शहर के बीचोंबीच लगाई, एक ऐसे रास्ते का नाम वियतनाम के पुरोधा हो ची मिह्न के नाम पर रखा जिस रास्ते पर हो ची मिह्न के सबसे बड़े दुश्मन अमेरिका का वाणिज्य दूतावास स्थित है। बाद में तृणमूल की सरकार बनी जो कम्युनिस्ट की धूर विरोधी होते हुए भी नाम बदलने का नहीं सोचा।
रास्तों या स्मारकों के नाम किसी की स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु किये जाते हैं। उसे बदलना बहुत संकीर्णता एवं मानसिक विद्वेश की परिणति है। जनतंत्र में राजनीतिक दलों में इतनी आपसी सूझबूझ अवश्य होनी चाहिये कि वह प्रतिशोधात्मक कार्रवाई ना करे। तभी जनतंत्र का पथ सुगम होगा। कलकत्ता पोर्ट का नाम डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर रखा गया, भविष्य में अगर कांग्रेस या किसी भी विरोधी दल की सरकार बनी तो क्या यह उचित होगा कि डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी पोर्ट का नाम बदल दे।
कोई मजाक नहीं है। ऐतिहासिक भूलों को सुधारना ही चाहिए। यह देश कुछ विशेष व्यक्तियों की मिल्कियत नहीं है।
ReplyDelete