भ्रष्टाचार भारत छोड़ो,परिवारवाद भारत छोड़ो, तुष्टीकरण भारत छोड़ो पर अंग्रेजी को कब कहेंगे भारत छोड़ो!

 9 अगस्त ऐतिहासिक भारत छोड़ो दिवस

भ्रष्टाचार भारत छोड़ो, परिवारवाद भारत छोड़ो, तुष्टीकरण भारत छोड़ो पर अंग्रेजी को कब कहेंगे भारत छोड़ो!

9 अगस्त को ऐतिहासिक भारत छोड़ो दिवस की वर्षगांठ मनाई गई। इसी दिन ब्रिटिश साम्राज्य को भारतीय स्वतंत्रता संग्रामियों की ओर से बम्बई के आजाद मैदान से महात्मा गांधी ने नारा दिया था-‘‘अंग्रेजों भारत छोड़ो।’’ इसके बाद ही देश में स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रक्रिया शुरू हुई, अंतोतगत्वा 15 अगस्त 1947 को दुनिया की सर्वशक्तिमान ब्रिटिश शासन से भारत को मुक्ति मिली। इस वर्ष जब हम इस ऐतिहासिक दिन की 81वीं वर्षगांठ मना रहे थे हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आज के भारत के परिपेक्ष में नारा दिया-भ्रष्टाचार भारत छोड़ो, परिवारवाद भारत छोड़ो, तुष्टीकरण भारत छोड़ो। प्रधानमंत्री की तीन सूत्री मांग इस परिपेक्ष में है कि वे इन तीनों विकारों को देश की प्रगति का सबसे बड़ा रोड़ा मानते हैं। परन्तु प्रधानमंत्री शायद भूल गये कि हमारे देश में अंग्रेजी का वर्चस्व और अंग्रेजियत का बोलबाला भारत के सर्वांगीण विकास में सबसे बड़ी बाधा है। यही नहीं देश में स्वतंत्रता के पश्चात् जो चौमुखी विकास हुआ, उसके लाभ से देश की आम जनता को वंचित किया जा रहा है। आज बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, गरीबी, महंगाई जैसी समस्याओं के लिये भी उत्तरदायी है हमारी भाषा नीति में अंग्रेजी का वर्चस्व।


अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व आज हर जगह छाया हुआ है, चाहे वह उच्च तकनीकी शिक्षा हो, यह रोजी-रोटी और पावर की भाषा बन चुकी है या बना दी गयी है। यानी आप आगे बढऩा चाहते हैं तो आपको अंग्रेजी आनी ही चाहिए। भाषा के विकास के साथ ही मानवीय शोषण और संघर्ष का भी विकास हुआ। भारत में दशकों से जो अंग्रेजी की आंधी चली आ रही है वह मूलत: औपनिवेशिक दासता का ही प्रतिविम्ब है। स्वतंत्रता के उपरांत बनी सरकार हो या फिर आज की वर्तमान राष्ट्रवादी होने का दावा करने वाली सरकार, उन्होंने एक तरह से यह मान रखा है कि अंग्रेजी ही ज्ञान-विज्ञान का अंतिम स्रोत है और हिन्दी सहित भारतीय भाषाएं अज्ञान और कूप मंडूकता के स्रोत। साथ ही जिस तीव्रता से निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है और बाजार को अजेय शक्ति प्रदान की जा रही है, ऐसे में कितने भी दावे किये जायें, कितने भी प्रयास किये जायें, लेकिन वैश्विक बाजार की भाषा बन चुकी अंग्रेजी के समक्ष भारतीय भाषाएं स्वत: घुटना टेक देंगी।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी प्रतिवाद एवं शक्तिशाली अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध प्रतिकार एवं प्रतिवाद की भाषा थी। उर्दू भी कंधे से कंधा मिलाकर हिन्दी के साथ खड़ी रही। वंदे मातरम् सुजलाम सुफलाम सस्य श्यामलान ने जितना प्रेरित किया, रामप्रसाद विस्मिल का सिर फरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है... ने भी स्वतंत्रता सेनानियों को उत्सर्ग करने हेतु ऊर्जा दी, प्रेरित किया। जिस भाषा में प्रतिकार नहीं कर सकते वह हमारी भाषा कभी नहीं बन सकती। आज अंग्रेजी जीवन दर्शन में पले-बढ़े पीढिय़ों में प्रतिरोध की संस्कृति कमजोर एवं क्षीण होने का भी यह एक बड़ा कारण है। बड़ी आसानी से नई पीढ़ी सड़ी-गली व्यवस्थाओं और बाजारवादी शक्तियों की गुलाम बनती जा रही है। वे बाजार की उपलब्धियों को ही अपनी उपलब्धि मान बैठे हैं। मुनाफा-केन्द्रित दर्शन मानवीय मूल्यों को कुचल रहा है। अपनी भाषा प्रतिरोध की संस्कृति और बेहतर भविष्य का विकल्प रखती है और यही कारण है कि सत्ता परोक्ष रूप से ऐसी भाषा को विकसित होने से रोकती है। उदाहरण के लिए औपनिवेशिक शासन में भारत में वर्नाकुलर प्रेस एक्ट लाया गया था जिसमें भारतीय भाषाएं स्वराज का अलख जगाने में अधिक मजबूत माध्यम थीं। इसने वैचारिक-क्रांति की चेतना को विकसित कर दिया था। कोई भी सत्ता हर ऐसे विचार का दमन करती है जो उसकी जनविरोधी वैचारिकी का रहस्योद्घाटन करती है।

आज जिस मौलिक चिंतन-दर्शन का प्रलाप भारतीय बौद्धिक समाज कर रहा है- तो ध्यान देना चाहिए कि मौलिकता हमेशा मूल भाषा में ही विकसित होती है। हमारे पास शिक्षा की एक विशाल भ्रमित परियोजना है जिसमें एक तरफ भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कारों की बात की जाती है, और दूसरी तरफ पश्चिम है घनघोर उपयोगितावाद पर टिका आर्थिक और राजनीतिक तंत्र है। हमारी पीढिय़ां समय के साथ अपनी सांस्कृतिक जड़ों से उखड़ती जा रही हैं या यूं कहें कि वे इसके लिए बाध्य है।

निश्चय ही अंग्रेजी वैश्विक संचार एवं संवाद की भाषा बन चुकी है और इसका विकास होना चाहिए, लेकिन किसी अन्य भाषा की मृत्यु की शर्तों पर नहीं, अपितु अन्य सभी भाषाओं के सम्मानपूर्ण सह अस्तित्व के साथ। आज अंग्रेजी के प्रति जो सनक पूरे भारतीय समाज में दिख रही है, ज्ञात हो कि अंग्रेजी को यूरोप में लम्बे समय तक दोयम दर्जे का भी स्थान प्राप्त नहीं था। आज भी दुनिया में जो भी श्रेष्ठ और मौलिक वैचारिक-दार्शनिक चिंतन हो रहा है, उसमें अंग्रेजी का स्थान फ्रेंच, जर्मन, इतालवी, स्पेनिश आदि यूरोपीय भाषाओं की तुलना में बहुत कम है।

भारत की सभी भाषाएं चाहे दक्षिण की हों या उत्तर की सभी अपने में भारत का वृहद् इतिहास और धरोहर के साथ ही श्रेष्ठ ज्ञान-परंपरा को भी समेटे हुए है। यह सत्ता पर निर्भर है कि वह धरोहरों को सुरक्षित रखना चाहती है या फिर उनके कब्रों पर अंग्रेजी का महल बनवाना चाहती है। लेकिन सरकार के नेतृत्व में नव-उदार होते अर्थ-तंत्र हैं, जहां वैश्विक पूंजी ही सब तय कर रही है, भारतीय भाषाओं का भविष्य बहुत अधिक सुरक्षित नहीं दिख रहा। भारत की अधिकांश भाषाएं या तो मरेंगी और जीवित भी रहीं तो अपना सम्मान खोकर।

यह गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि आर्थिक और राजनीतिक विकास अंग्रेजी से नहीं, बल्कि स्थानीय भाषा के उपयोग के आधार पर ही हो सकेगा।


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