मधु कांकरिया की कहानी उसी की जुबानी - कलकत्ता की एक मारवाड़ी महिला ने बताया कि वह लिखती क्यूं है?

 मधु कांकरिया की कहानी उसी की जुबानी

कलकत्ता की एक मारवाड़ी महिला ने बताया कि वह लिखती क्यूं है?

हिन्दी की सुपरिचित कथाकार मधु कांकरिया कलकत्ता में ही पली, बड़ी हुई है, यह अलग बात है कि पारिवारिक आवश्यकताओं के लिये कभी बंगलादेश तो कभी भारत में ही अन्य जगह उसे डेरा डालना पड़ा। एक मिडल क्लास की मारवाड़ी महिला का कोई लेखकीय गुरु नहीं है और न ही उसके जीवन में कोई ऐसी घटना घटी जिसने उसकी जिन्दगी बदल दी। सामान्य उतार-चढ़ाव के बावजूद मधु कांकरिया ने जीवन को रचना के सागर में इस कदर डुबाया है जिससे निकल कर वह अपनी ओर झांक कर देखती है। भारतीय भाषा परिषद से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका वागर्थ के जुलाई 2023 के अंक में मधु के आत्म साक्षात्कार को मैं हुबहू उद्घृत कर रहा हूं ताकि मध्यम श्रेणी के मारवाड़ी व्यापारी समाज की नारी भी कैसे अपना रचना संसार गढ़ सकती है-उजागर कर सकूं।

मधु कांकरिया 

इस सुंदर सभागार में इतने सुंदर लोगों के बीच इस प्रकार मुझे सम्मानित किया गया कि मैं अभिभूत हूँ और इस मंच के माध्यम से उन सभी संस्थाओं और व्यक्तियों को नमन करती हूँ जो इस मनुष्य विरोधी और साहित्य विरोधी समय में भी साहित्य के प्रति समर्पित हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि साहित्य मानवीय सच्चाइयों की बुलंद आवाज है, कि अंतत: यह साहित्यकार ही होता है जो हमें यह एहसास कराता है कि एक ही धरती और योनि में जन्म लेने के संबंध कितने गहरे होते हैं। नि:संदेह भारतीय भाषा परिषद भी उनमें से एक है। मेरा आभार तो इसलिए भी बनता है कि मेरी साहित्यिक यात्रा यहीं से शुरू हुई थी। आज भी इस मंच पर खड़ी होकर जब में मुडक़र अपने विगत को देखती हूँ तो मुझे ताज्जुब होता है कि मैं लेखिका कैसे बन गई, क्योंकि लेखिका बनना मेरे एजेंडे में नहीं था, न ही मेरा स्वप्न था। फिर यह कैसे हुआ? याद आता है कि उम्र के एक पड़ाव पर मेरे भीतर बहुत असुरक्षा थी, ढेरों सवाल थे, जीवन के तनाव थे, असफलताएं थी, जानलेवा संघर्ष थे। इन सबसे घबराकर मैं किताबों की दुनिया में डूब जाती थी और घड़ी भर के लिए ही सही, मुझे अपने कुछ सवालों के जवाब मिल जाते थे। यह भी होता कि किताबों को पढ़ते-पढ़ते मैं अपने आसपास को देखने भी लगी थी। यह देखना आम देखनेे से थोड़ा अलग था। इस देखने ने मेरी दुनिया को थोड़ा बड़ा कर दिया था। मुझे थोड़ा और मनुष्य बना दिया था।

मुझे लोगों में दिलचस्पी होने लगी, उनके सुख- दुख में, संघर्ष और मुक्ति में। और उन दिनों जब मैं लिखने में हाथ आजमा ही रही थी तभी एक सुखद संयोग यह हुआ कि मेरे छोटे भाई ने मुझे एक वनयात्रा में भेज दिया। वह वन यात्रा मुझे झारखंड के आदिवासी इलाकों में ले गई। वहां मैं न सिर्फ आदिवासियों के संपर्क में आई, वरन वहां मैंने एक अलग भारत को देखा जो किताबों में पढ़े हुए मेरे भारत से कितना अलग था। मुझे लगा जैसे मैं किसी और दुनिया में आ गई हूँ। मैं जानती थी कि भारत चाय पीने वालों का देश है, पर वहां मुझे एक भी ऐसा आदिवासी नहीं मिला जो नियमित रूप से चाय पीता हो। वे दिन का पहला आहार ही बारह बजे के करीब लेते थे। हां, इक्के-दुक्के आदिवासी ने यह जरूर बताया कि साल डेढ़ साल मैं वे जब लोहारदगा या गुमला जाते हैं तो जरूर चाय पी लेते है। मैं जानती थी कि भारत मंदिरों का देश है। कोलकाता में मैंने एक किलोमीटर के भीतर दस ग्यारह छोटे-मोटे मंदिर देखे हैं, पर गुमला के आदिवासी अंचलों में मैं मीलों तक पैदल गई। मैंने वहां एक भी मंदिर, यहां तक कि कोई छोटा-मोटा आलया तक नहीं देखा। बाद में मुझे पता चला कि प्रकृति की नदियों और पर्वतों की पूजा करते हैं। इसलिए वहां  आसमान से उतरा किसी राम या कृष्ण का वर्चस्व नहीं है, कोई धार्मिक ध्रुवीकरण नहीं है, इसलिए न धार्मिक कट्टरता है और न ही धर्म की हिंसक राजनीति। सबके अपने-अपने ग्राम्य देवता है।

मैंने यह भी देखा कि वहां सादगी जीवन मूल्य है, आदिवासी खुद को भूमि पुत्र मानते हैं। इसलिए वे धरती से उतना ही लेते हैं कि उनका गुजारा हो जाए। वे धरती का दोहन नहीं करते। आज यदि उनके जीवन में थोड़ा-बहुत उपभोक्तावाद है भी तो यह उपभोक्तावाद उन्होंने हमसे सीखा है। वहां मैंने गरीबी के भंयकर दृश्य देखे। कोलकाता-मुंबई में मैंने पति-पत्नी के लिए दो गाडिय़ां देखी थीं, वहाँ मैंने दो महिलाओं के बीच एक साड़ी देखी थी।

वह वनयात्रा मेरी खोज यात्रा, मेरी चेतना यात्रा, मेरी अंतयात्रा बन गई। मैं जैसे एकाएक बड़ी रोशनी में आ गई थी, मेरे मुंह से हठात निकला, अपना ही दुख देखा है/मैंने कितना कम देखा है। इस यात्रा ने अनायास ही मेरे भीतर के सोए कोलंबस को जगा दिया। एक बेकाबू लालसा मेरे भीतर सर उठाने लगी जीवन और मनुष्य की खोज में यात्रा करने की। पर तब यात्रा पर हठात निकल जाना मेरे लिए उतना सुगम नहीं था। ऐसे में मैंने कोलकाता को ही खोजना और खोदना शुरू कर दिया। एक दिन  मैं सोनागाछी के नुक्कड़ पर पहुच गई। वहां मैंने ढेरों लिपी-पुती युवतियों को ग्राहकों के इंतजार में सडक़ पर एक कतार में ऊबे हुए  खड़े हुए देखा। मैंने वेश्याओं के बारे में सुना जरूर था, पर मैं अपनी आंखों से उन्हें पहली बार देख रही थी। मुझे जैसे बिजली छूकर निकल गई। क्यों? एक बेकाबू बेचैनी ने मुझे जकड़ लिया। मुझे इनकी जिंदगी में झांकना ही है। तब तक उनपर लिखने का ख्याल जेहन में नहीं आया था।

मेरे मित्रों ने मुझे आगाह किया- भूलकर भी उन इलाकों में जाने की मत सोचना। खुदा न खास्ता जिस समय आप उनसे बतिया रही होंगी, ठीक उसी समय यदि पुलिस की रेड पड़ जाए तो पुलिस यह नहीं सोचेंगी कि आप उनके बारे में जानने आई हैं, वे आपको भी गिरफ्तार कर लेंगी। मैंने अपने बड़े भाई को विश्वास में लिया और उन्हें अपनी इच्छा के बारे में बताया। बड़े भाई कॉमरेड टाइप थे। उन्होंने कहा- जाओ और अपनी पत्नी को मेरे साथ कर दिया। वहां उन महिलाओं की अपराजेय जिजीविषा को देख मैं दंग थी। अब मैं एक बदली हुई मैं थी। मेरी दृष्टि बदली, जीवन की समझ भी गहराई। पहली बार मुझे एहसास हुआ कि कोई भी औरत बुरी नहीं होती है, मां के गर्भ से कोई वेश्या नहीं पैदा होती है, बुरी होती हैं वे परिस्थितियां जो औरत को बुरा बनाती हैं।

आज जब मैं किसी अपेक्षाकृत सुविधासंपन्न नवयुक को आत्महत्या करते देखती हूँ पहली बात यही समझ में आती है कि इसने जीवन को शायद समझा ही नहीं है, इसीलिए इसके अंदर जीवन की जड़ें गहराई नहीं है। शायद चूक हमसे भी हुई है कि हमने अपने बच्चों के भीतर यह लालसा तो भरी कि वे एक सफल डॉक्टर बनें, इंजीनियर बनें या प्रोफेशनल बनें पर हम उनके अंदर यह लालसा नहीं भर सके कि वे एक अच्छे इंसान बने और जीवन को समझें।

ऐसे में अक्सर मुझे अपनी बड़ी नानी की याद आ जाती है। ऐसा कोई दु:ख नहीं था, जिसने उनकी जिंदगी में नहीं झांका हो। उनके ग्यारह बच्चे हुए। सब मर गए। साठ वर्ष की होते न होते उनके पति भी गुजर गए। अपनी जेठानी के बच्चे को गोद लिया उन्होंने और नब्बे वर्ष का भरपूर जीवन जिया । उन्होंने कभी आत्महत्या की नहीं सोची और न कभी अपने गम को भुलाने के लिए उन्हें शराब के प्यालों में डूबना पड़ा।

कहां से मिलती थी उन्हें जीने की ऊर्जा ? मैं जब भी ननिहाल जाती, उनकी दिनचर्या को ध्यान से देखती। वे भोर में ब्रह्म मुहूर्त में उठतीं उठते ही पेड़-पौधों को पानी देतीं, फिर पाखियों को दाना देती। फिर मंदिर जाती, वहां गाय को रोटी देती।  

कुछ देर पूजा पाठ करतीं। फिर लौटकर सारे घरवालों के लिए खाना बनातीं। खाना बनाते वक्त भी पहली रोटी गाय और अंतिम रोटी कुत्ते के लिए नहीं भूलती। दोपहर को फुर्सत के पलों में आवास की सखी सहेलियों के साथ भजन और लोक गीत गाली। रात फिर खाना बनाकर अपने सीमित बजट से भी कभी-कभी कुआं, बाबड़ी, तालाब और निर्धन कन्याओं के विवाह के लिए अपनी सामथ्र्य भर पैसा अलग निकाल कर रखती। यानी एक साधारण जीवन में भी आप देखिए, वे पूरी सृष्टि से जुड़ी हुई थीं। पेड़-पौधों की दुनिया से, परिंदों की दुनिया से, जानवरों की दुनिया से, लोक गीत से और परोपकार से भी।

जीवन को, जीवन मूल्यों को गांव की उस अनपढ़ महिला ने बेहतर समझा था, जबकि आज हमारा जीवन आप देखिए कितना आत्मकेंद्रित है। जीवन में न नदी है, न पेड़ पौधे हैं, न परिदे हैं, न संगीत है और न ही कोई किताब है। बस एक ही खिडक़ी खुली है जीवन में सफलता की खिडक़ी। सफलता, - चाहे वह बिजऩेस में हो, धन कमाने में हो, नौकरी में हो, प्रेम में हो, पढ़ाई में हो। वह खिडक़ी जरा सी बंद हुई कि हमारा दम घुटने लगता है और हम जिंदगी का साथ निभाना छोड़ देते हैं।

बिजनेस घाटे में जा रहा है इसकी चिंता में हम सो नहीं पाते, पर हमें यह चेतना नहीं है कि हमारा जीवन ही घाटे में जा रहा है। हमारे समय का दर्दनाक सत्य है कि बाहर के शोर में हम मन कल सुन ही नहीं पाते हैं। पहले घर छोटे होते थे, मन बड़ा होता था। घर में कई घर होते थे। आज घर बड़े होते हैं पर मन इतने छोटे कि मां-बाप तक की समायी नहीं हो पाती। हम धारा के साथ शव की तरह बह रहे हैं। सफलता अच्छी चीज है, पर उससे भी ज्यादा बड़ी चीज है सार्थकता। जीवन सार्थक तब होगा, जब आपके जीवन का ताप दूसरों तक पहुंचेगा, जब दूसरों का जीवन आपके चलते सुंदर बनेगा।

ये सारे मंत्र मुझे साहित्य से मिले हैं। साहित्य ने ही मुझे यह एहसास कराया है कि जीवन स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है। यही है मेरे लिए लिखना भी अपनी मूल सत्ता में वापस लौटना, बेआवाज़ों की आवाज बनना, स्वयं से साक्षात्कार करना और प्रकृति से करीबी रिश्ता बनाना। मैं खुशनसीब हूँ कि मेरे भीतर बुद्ध हैं, जो निरंतर करुणा की अलख जगाए रखते हैं तो मेरे भीतर माक्र्स भी हैं, जो निरंतर सर्वहारा से मुझे जोड़े रखते हैं।

एक बात और आपसे साझा करना चाहूंगी। मैं सालों तक इस दुविधा में रही कि जीवन में इतना द अंधकार है, खून खराबा है, अन्याय है, झूठ है, गैर बराबरी है। लिखकर भी मैं क्या उखाड़ लूंगी। न एक दिन मैं अपने मित्र के यहां गई थी। वहां मैंने उसके टेबल पर दो पंक्तियां देखीं जो इस प्रकार थीं-

माना इस जमीन को न गुलजार कर सके 

कुछ खार तो कम कर गए, गुजरे जिधर से हम।

मुझे जीवन का मंत्र मिल गया कि हम सारी लड़ाइयां नहीं लड़ सकते तो क्या, धरती के जिस टुकड़े पर खड़े हैं कम से कम उसका कुछ खार तो कम कर ही सकते हैं। इसी बात को मेरे महबूब कथाकार सोल्जेनित्सिन ने उस वक्त कही थी जब उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया जा रहा था। उन्होंने कहा- मैं मानता हूँ कि दुनिया में बहुत अंधेरा है अन्याय है, झूठ है, हिंसा है, फरेब है, लेकिन एक आदमी यह तो कर सकता है कि अपने हाथों को इन गंदगी से बचा कर रखे। इसमें बस एक बात और जोडऩा चाहती हूँ- एक आम आदमी यह तो कर सकता है कि अपनी संतान के रूप में इस देश की अच्छे नागरिक दे। इसी अपील के साथ मैं अपना वक्तव्य समाप्त करती हंू।

Comments