मोरारी बापू की रामकथा
न्यायालय नहीं औषधालय है
रामकथा का प्रचलन हमारे देश में पुराना है। गांव से लेकर शहर तक रामनाम की चादर ओढक़र पंडित जी रामचरित मानस की चौपाइयां सुनाकर भक्त श्रोताओं की आत्मा तृप्त करते थे और कथा श्रोताओं के श्रद्धाभाजन बन कर अपना पेट भी पालते थे। रामकथा के अलावा रामलीला भी ग्रामीण भारत की दिनचर्या में शामिल था। रामलीला के लिए गांव का हर आदमी आमंत्रित था। मानस की चौपाइयां एवं उस पर रामलीला का खेला जाना बच्चों के लिए विशेष आमोद-प्रमोद का सामान हुआ करता था। तकनीक के उन्नत स्वरूप का दिग्दर्शन एवं राम भक्तों के कारण महानगरों में रामलीला एक इवेन्ट का रूप ले चुकी है। रामलीला देखने वाले सिर्फ हिन्दू ही नहीं मुस्लिम, सिख, जैन और ईसाई भी हैं।
महानगर में 3 से 11 जून तक महासन्त मोरारी बापू की रामकथा बेलूर मठ में आयोजित हुई। नौ दिन बड़ी संख्या में लोगों ने इस सुव्यवस्थित रामकथा का श्रवण लाभ लिया। इसका आयोजन श्री अरुण सराफ ने किया था। मोरारी बापू का रामकथा वाचन का कुछ अलग तरीका है। वे रामकथा के विभिन्न प्रसंगों को रोचक ढंग से प्रस्तुत करते हैं और उन्हें आज के जीवन से भी जोड़ते हैं। परिणामस्वरूप श्रोताओं को यह कथा धर्म और पुण्य के दायरे से बाहर निकलकर जीने की कला समझाती है।
बापू ने अपनी रामकथा का वाचन करते हुए प्रेम को जीवन का सार बताया। उन्होंने कहा कि जब आदमी ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो गम्भीर मुद्रा बना लेता है। चेहरे की मुस्कराहट ओझल हो जाती है और गम्भीर मुद्रा के कारण व्यक्ति अलग थलक पड़ जाता है। समझ में नहीं आता, अति विद्वता से चेहरा गमगीन क्यों हो जाता है? मोरारी बापू ने ज्ञान से अधिक प्रेम एवं सौहाद्र्रता पर बल दिया।
हाल ही में अंतरराष्ट्रीय पत्रिका साईंस एडवांसेज की एक रिसर्च रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकलकर आया कि जो समाज या देश सहिष्णुता, उदारता व दयालुता जैसे उदात्त मानवीय मूल्यों के प्रति जिनता समर्पित होगा, वह असहिष्णु, अनुदार व धार्मिक कट्टरवादी सोच वाले देशों की वनिस्पत ज्यादा समृद्धिशाली व खुशहाल रहेगा। भारत की संस्कृति व आध्यात्म हमेशा से सहिष्णुता, उदारता और धार्मिक स्वाधीनता की पक्षधर रही है। धर्मांधता एवं संकुचित मनोवृत्ति से ग्रसित समाज में पारस्परिक वैमनस्य व द्वेष की वजह से तरक्की के रास्ते बंद होने लगते हैं।
मोरारी बापू अपनी रामकथा के संदर्भ में कृष्ण की गोपियों के साथ रासलीला का भी प्रसंग लाते हैं जिससे यह मतलब निकलता है कि रामकथा हो या कृष्णलीला अंतोतगत्वा सभी प्रेम और सद्भाव के इर्द-गिर्द घूमते हैं। मोरारी बापू कहते हैं गोपियां नाची, चैतन्य नाचे एवं स्वयं प्रभु कृष्ण नाचे। इस सांस्कृतिक परिवेश से ही हमारे विकारों को हम विसर्जित कर सकते हैं। लेकिन नृत्य या सांस्कृतिक कर्मकांड को भौतिक स्वार्थों की प्रबलता के कारण हम अपने को अलग कर लेते हैं। इसी संदर्भ में मोरारी बापू ने रामकथा में कहा कि डाक्टर को मरीज से पूछना चाहिये अंतिम बार कब हंसे थे। विडम्बना है कि भूख लगने के लिए हम गोली खाते हैं। फिर जीभ लपलपाती है तो भोजन करते हैं। पचाने हेतु फिर गोली खाते हैं। मोरारी बापू कहते हैं रामकथा इस गोली का विकल्प है। सोने के लिए दवा ली जाती है। नींद के लिए साधन सम्पन्न आदमी तरसता है। बापू ने कहा कि रामकथा कोई न्यायालय नहीं जहां से हम फरमान या न्याय जारी करें, अपितु औषधालय है जहां मानवीय विकारों और रोगों की रामबाण औषधि प्राप्त होती है।
बेलूर मठ में राम कथा- व्यास पीठ पर मोरारी बापू।
मोरारी बापू अपनी बात समझाने मातृभाषा गुजराती में भी उदाहरण देते हैं, मूल प्रवचन हिन्दी में होता है लेकिन उर्दू की गजलों और शेरों के माध्यम से भी अपनी बात कहते हैं। कोई भाषायी परहेज नहीं करते।
मोरारी बापू के बारे में कहा जाता है कि वे मुशायरों में भी श्रोता होते हैं तो गजल भी उनकी पसन्दीदा विधा है। 2018 में तो उन्होंने गजब कर दिया था। बम्बई के रेड लाइट क्षेत्र की बदनाम गलियों से दो सौ गणिकाओं जिन्हें चालू भाषा में हम वेश्या कहते हैं, को अयोध्या में हुई अपनी ‘‘तुलसीदास मानस गणिका’’ में बुलाया। उन्हें भी रामकथा सुनने का उतना ही हक है जितना सभी रामभक्तों का। महात्मा गांधी ने मंदिरों में हरिजनों का प्रवेश कराया था तो तथाकथित भक्तों ने ‘‘बापू’’ का जमकर विरोध किया था, तो मोरारी बापू भी विरोध से कैसे बच पाते?
मोरारी बापू सिर्फ रामकथा वाचक ही नहीं सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत हैं। उनकी रामकथा प्रायोजित नहीं होती न ही उनके मंच पर देवी-देवताओं के बुत होते हैं जिनकी आरती उतार कर प्रवचनकर्ता व्यास पीठ पर विराजनें जाते हैं। इस मंच के बैक ड्रॉप पर सिर्फ हनुमानजी का बड़ा चित्र देखकर समझ में आया कि मोरारी बापू भक्तों को कितनी अहमियत देते हैं। उसी के पास रामकृष्ण परमहंस, मां सारदा और स्वामी विवेकानंद के लघु चित्र हैं।
मोरारी बापू इस नजरिये से कबीर के बहुत समीप दिखाई देते हैं। सन्त कबीर कहते हैं-
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं।
कबीरदास जी कहते हैं जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हुआ। जब अहंकार (अहम्) समाप्त हुआ तभी प्रभु मिले। जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ तब अहंकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है। ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ। प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता, प्रेम की संकरी गली में केवल एक ही समा सकता है- अहम् या परम। परमहंस की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक है।
बेलूर मठ के परिसर में गंगा के किनारे नौ दिन व्यापी रामकथा मोरारी बापू का नवजागरण का बिगुल है क्योंकि बंगाल की धरती से ही शुरू हुआ था राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक नवजागरण।

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