स्वतंत्र भारत में शिक्षा प्रसार ने सामाजिक विषमताओं पर चोट की है एवं आज इसी शिक्षा के चलते देश का नक्शा बदल रहा है। इस बदलाव में सबसे बड़ी भूमिका नारी शिक्षा ने अदा की है। पांच दशक पहले तक लड़कियों को पढ़ाने में परिवारों की दिलचस्पी नहीं के बराबर थी। किन्तु आर्थिक दबाव के कारण परिवार में लड़कियों ने पढऩे के लिए मानसिकता बदली। आज तस्वीर यह है कि लड़कियां न सिर्फ पढ़ रही हैं बल्कि अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए उनमें बेचैनी है। वे आर्थिक रूप से स्वाबलम्मी बनना चाहती है। उन्होंने परिवार में अपनी मां, दादी, नानी की मजबूरियां एवं उनके दर्द को देखा है और महसूस किया है। शिक्षित लड़कियां सिर्फ पढ़-लिखकर सम्मान ही नहीं बल्कि वे चाहती हैं कि आर्थिक रूप से भी वे मजबूत हों। आर्थिक मजबूरी के कारण ही सामाजिक विषमताओं और वसंगतियों का खामियाजा समाज में औरतों को भुगतना पड़ता रहा है।
| हर्षा भुतोडिय़ा |
नारी शिक्षा को आर्थिक स्वावलम्बन उन्मुखी बनाने में इन्हीं परिस्थितियों ने ‘‘ड्राइविंग फोर्स’’ का काम किया है। मैंने ताजा टीवी के सागर मन्थन कार्यक्रम के अन्तर्गत सर्वोत्कृष्ट अंक प्राप्त करने वाली लड़कियों से बातचीत की। उनसे पूछे कई प्रश्नों में एक सवाल यह भी था कि अब आप भविष्य में क्या करना चाहती है। छात्राओं में एक-दो अपवाद को छोडक़र सभी ने यह बताया कि उनकी महत्वाकांक्षा किसी मल्टीनेशनल कम्पनी का सीईओ बनना है। वे बड़ा पैसा कमाना चाहती है। डाक्टर, इंजीनियर, शिक्षाविद्, वैज्ञानिक, उनकी कल्पना में भी नहीं है।
मैं समझता हूं इसमें इन लड़कियों का कोई भटकाव नहीं है। उनके जहन में एक बात अन्तर्मन तक धंस गयी है कि पैसा कमाना ही आज के समय का सफलता सूत्र है। समाज में स्त्री की अवमानना या उनको खारिज सिर्फ इसलिए किया जाता है कि अब तक धनोपार्जन के क्षेत्र में उनकी कोई अहमियत नहीं है। हमारा समाज पुरुष शासित है। यह माना जाता रहा है कि पुरुष कमाता है। महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे घर में रहें और वंशवृद्धि का साधन बने। बहुत समय तक समाज में इस व्यवस्था का सख्ती से पालन किया जाता था। अब जब लड़कियां शिक्षा के क्षेत्र में अग्रसर है व बोर्ड की परीक्षाओं में वे अव्वल आती हैं। उनका रिजल्ट लडक़ों से बेहतर है। सर्वोत्कृष्ट अंक प्राप्त करने वालों में भी लड़कियां आगे ही रहती हैं। परिवार की देखभाल के साथ शिक्षित महिलायें जॉब भी करती है। कमाती हैं फिर भी उन्हें परिवार में समान दर्जा नहीं मिलता है। उन्हें सिर्फ सम्मान या सहानुभूति नहीं चाहिये अपितु परिवार संचालन में वे बराबर का भागीदार बनना चाहती हैं। दूसरी तरफ मुद्रास्फीति दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। महंगाई चरम सीमा पर है परिणामस्वरूप आजकल सिर्फ एक व्यक्ति की आय से घर को चलाना बहुत कठिन है।
हाल ही में एक मारवाड़ी जैन समाज की लडक़ी कॉमर्शियल पायलट बनी। हर्षा भुतोडिय़ा के माता-पिता ही नहीं दादा-दादी ने भी अपनी बच्ची को प्रोत्साहित किया। परिवार के समर्थन एवं अपनी निष्ठा और मेहनत से वह पायलट बन गयी। उसका सम्मान जैन महामंडल के महिला विंग ने किया। स्वागत आयोजन में वक्ताओं द्वारा चर्चा का विषय था कि आजकल लडक़ा हो या लडक़ी की उच्च शिक्षा का मकसद एक लुभावना पैकेज होता है। इस हवा के विपरीत लडक़ी का पायलट बनना सचमुच हिम्मत एवं दूरदर्शिता का काम है।
अधिकांश लड़कियां अब कार्पोरेट के किसी ऊंचे पद पर बैठना चाहती हैं। उनका आदर्श सुनीता विलियम या कल्पना चावला नहीं जिन्होंने अंतरिक्ष की यात्रा की। न ही वे इन्दिरा गांधी या सरोजिनी नायडू बनने की चाहत है। उनका लक्ष है चन्दा कोचर जो आईसीआईसीआई की चेयरमैन थी जिन्हें घोटाले में आरोपित होने की वजह से जेल जाना पड़ा। इसलिए उनकी जुबान पर इन्द्रा नूई (पेप्सी को) या किरण मजुमदार शाव (बायोकॉन) का नाम रहता है।
इसी आर्थिक सत्ता के फलस्वरूप विगत कुछ वर्षों में लड़कियां बोर्ड की परीक्षाओं के बाद चार्टर्ड एकाउन्टेंट की कतार में लग जाती है। या फिर कुछ कम्पनी सेक्रेटरी का कोर्स करने में जुट जाती है। चालू सत्र में ही उदाहरणार्थ सीए फाइनल में लड़कियों का वर्चसव रहा।
सीए की पढ़ाई करने वाली लड़कियों की संख्या में भी बड़ा उछाल आया है। इनकी संख्या 54,416 पहुंच गयी जो कुल शिक्षार्थियों का लगभग 37 प्रतिशत है। इस वर्ष जिन 14,700 सीए ग्रेजुएट हुए उनमें 44 प्रतिशत लड़कियां हैं। पांच-छ: वर्ष पहले तक इनकी संख्या आज से आधी भी नहीं थी।
आईसीएआई (इंडियन इन्स्टीच्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउन्टेंट्स) के आंकड़ों के अनुसार विगत पांच वर्षों में महिला सीए की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। 2017 में यह संख्या 64,685 थी जो 2018 में बढक़र 70.047, 2019 में 73,807, 2020 में 81.564 एवं 2021 में 89,000 पहुंच गयी है। पिछले दशक में 70 महिलायें सीए की परीक्षा में टॉपर हुई हैं।
खैर, लड़कियां चाहे जिस विधा में महारत हासिल करें, यह स्वागत योग्य है। किन्तु किसी एक क्षेत्र में ही उनकी दिलचस्पी सीमित हो तो समाज का संतुलन बिगड़ सकता है। क्यों नहीं लड़कियां हर्षा की तरह पायलट बने, बड़ी डॉक्टर बने, एरो वैज्ञानिक हों, कृषि उत्पाद के क्षेत्र में शोध कर भारत की कृषि को उन्नत करे। पैसा तो सभी तरफ है किन्तु नयी दिशाओं में जाने से वे देश की सर्वांगीण प्रगति में अधिक योगदान कर सकती हैं।
रविवारीय परिशिष्ट में आपका संपादकीय 'सीए बनने की होड़ में लड़कियां चाहती हैं आर्थिक आजादी'बहुत ही महत्वपूर्ण और विचारणीय है। यह सच है कि आज लड़कियां आर्थिक दृष्टि से अधिक सोचने लगीं हैं इसका कारण यह है कि पहले लड़कियों या महिलाओं के लिए शिक्षा और अर्थ का अभाव था।आधुनिकता ने उन्हें सभी तरह की सुविधाएं मिली हैं। इस कारण आर्थिक रूप से से संपन्नता किसे नहीं पसंद है। यदि इसी बात को पुरुषों पर भी लागू किया जाए तो वहां भी उसी तरह की आर्थिक वृद्धि के लिए इंजिनियरिंग डॉक्टर और प्रशासनिक अधिकारी बनने की होड़ है। आपने बहुत ही महत्वपूर्ण विषय उठाया है। विचारणीय है इस पर बहस होनी चाहिए। - डॉ वसुंधरा मिश्र, कोलकाता शुभकामनाएं 🙏
ReplyDeleteआर्थिक रूप से स्वयं को संपन्न ही नहीं बनाना अपितु एक उच्च स्तरीय जिंदगी बिताना ये आज की बदलती सोच
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