परीक्षा में असफल छात्रों में बढ़ रही है आत्महत्या की प्रवृत्ति इसे रोकना क्या समाज का दायित्व नहीं है?

 परीक्षा में असफल छात्रों में बढ़ रही है आत्महत्या की प्रवृत्ति

इसे रोकना क्या समाज का दायित्व नहीं है?

अब एक के बाद एक बोर्ड का रिजल्ट निकल चुका है। सफल छात्र छात्राओं में जो टॉपर हैं उनके फोटो एवं उनका इंटरव्यू अखबारों में छप रहे हैं। विभिन्न टीवी चैनलों में भी इन टापरों की सफलता की हलचल है। हो भी क्यों नहीं, जिन विद्यार्थियों ने बोर्ड परीक्षाओं  में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है उनकी फोटो एवं उनके स्कूलों के विज्ञापन में उनकी फोटो छपती है ताकि अन्य छात्रों को प्रेरणा मिले। हम बड़े चटकारे से लिखते हैं इस बार भी लड़कियों ने बाजी मारी अथवा इस बार लडक़ों ने पछाड़ा लड़कियों को। किसी गुदड़ी के लाल ने अगर बाजी मारी तो बड़े फक्र के साथ  उनकी फोटो एवं बड़े बड़े अक्षरों में उनकी सफलता की कहानी बताई जाती है। उन्हें सम्मान से नवाजा जाता है। विद्यार्थियों  के साथ उनके अभिभावकों के भी चित्र लोग बड़ी उत्सुकता के साथ देखते हैं। इसकी चर्चा स्कूलों एवं विद्यार्थियों के घरों में भी खूब होती है। कमोबेश ऐसा हर साल ही दोहराया जाता है। इस तरह के प्रचार का मकसद है बच्चों में एक स्वस्थ प्रतियोगिता हो। किसी की पीठ थपथपाई जाती है या किसी टॉपर का मुंह मीठा कराया जाता है तो उसे देखकर अन्य बच्चों में भी सफलता के शिखर पर पहुंचने का जुनून पैदा होता है- ऐसा सोचकर ही इस परिपाटी का प्रादुर्भाव हुआ और उसे आगे बढ़ाया गया।


मोबाइल की सुनामी एवं टेलीविजन के घर-घर में लोकप्रियता के फलस्वरूप आज के बच्चों में महत्वाकांक्षा के बादल उमड़ -घुमड़ कर बरसने लगे हैं। इंटरनेट व मोबाईल संस्कृति के दौर में बच्चे अब सफलता के शिखर पर बिना सीढ़ी के चढऩा चाहते हंै। बाजार की शक्तियों ने मुनाफे के हथकंड़े से समाज में उम्मीदों का उफान पैदा किया है। अपनी परिस्थिति, पारिवारिक सीमाओं, क्षमताओं का संज्ञान लिये बिना सफलता फटाफट चाहिए। जब भी तुंग आकांक्षाएं पूरी नहीं होती तो उन्हें एक ही विकल्प सूझता है, आत्मघात का। यही वजह है कि परीक्षा परिणामों की आपाधापी के बीच देश के कई भागों से आत्महत्या की खबरें आने लगती हैं। इस बार भी आई। लेकिन यह मुद्दे राजनेताओं का चुनावी मुद्दा नहीं बनता। समाज भी इस पर अंकुश लगाने या इस स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास नहीं करता। ऐसे माता-पिताओं की संख्या भी कम नहीं जो अपने जीवन की असफलता का बोझ बच्चों पर डालकर अप्रत्याशित की उम्मीद करते हैं। एक स्कूल की एक कक्षा का हर विद्यार्थी अपने में अलग होता है। उसकी शिक्षा ग्रहण करने, लिखने, पढऩे और सुनने की क्षमता अलग-अलग होती है। जिसमें उसकी अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि, परिवेश व परवरिश की अलग से भूमिका होती है। फिर आज के इंटरनेट व मोबाइल संस्कृति के दौर में भटकाव के तमाम खतरे हैं। दरअसल, आज एक छात्र को शिक्षक व अभिभावकों के इतर पढ़ाने वाले तमाम ऐसे माध्यम हैं जो सिर्फ व्यवसायिक उद्देश्य के लिए नौनिहालों को भ्रमित करते रहते हैं। वहीं स्कूल-कॉलेज का स्तर, शिक्षकों की गुणवत्ता और भाषा माध्यम भी फर्क डालता है। केन्द्रीय शिक्षा बोर्डों का पाठ्यक्रम, परीक्षा प्रणाली और उदारतापूर्वक नंबर देना, राज्यों के शिक्षा बोर्डों से बिलकुल भिन्न है। 

बहरहाल हम छात्र-छात्राओं को मानसिक रूप से तैयार नहीं कर पाते कि परीक्षा में कम नंबर लाना या अंक में पिछडऩा जीवन की इतिश्री नहीं है। यह कोशिश न तो अभिभावकों की तरफ से होती नजर आती है और न ही शिक्षकों की तरफ से। नि:संदेह जीवन का एक दरवाजा बंद होने पर संभावना के कई द्वार खोल देता है। हमें स्मरण होना चाहिये कि देश-दुनिया में ऐसे कई छात्र हुए जो परंपरागत शिक्षा माध्यम से कुछ खास नहीं कर पाये, लेकिन जीवन में उन्होंने शिखर की सफलता हासिल की। संगीत, कला, विज्ञान, खेल, चित्रकारी, व्यवसाय, राजनीति, सामाजिक विज्ञान आदि आदि ऐसी कई विधायें हैं जहां से होकर सफलता की चोटियों का रास्ता गुजरता है।

परीक्षा में नामधारी स्कूल कालेजों में दाखिला की प्रक्रिया भी अंधी दौड़ के रोग से ग्रस्त है। मसलन 90 प्रतिशत  से कम अंक प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राओं का दाखिला एक तपस्या है जिससे छात्र और उनके अभिभावक सांस रोककर झेलते हैं। कई शिक्षण संस्थाओं में एडमिशन पाने के लिए मंत्री से लेकर संत्री की सिफारिश के लिए दौड़ धूप की जाती है। कहीं पर मोटी रकम के एवज में नामी स्कूल-कॉलज के भैरों बाबा प्रसन्न होते हैं। नयी शिक्षा नीति इन सब मामलों में मौन रहती है ताकि कोई मौलिक परिवर्तन न हो और जैसा है वैसा चलता जाये। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि हर स्कूल-कॉलेज कम से कम 20-25 प्रतिशत उन छात्रों का एडमिशन लें जिनके नम्बर कम हों। होनहार एवं 90 प्र.श.- 95 प्र.श.  अंक प्राप्त करनेवाले विद्यार्थियों का दाखिला लेकर वे मूंछ पर ताव देते हैं कि उनकी शिक्षण संस्था की उम्दा शिक्षा व्यवस्था का ही प्रतिफल है कि उनका रिजल्ट शत प्रतिशत हुआ और बड़ी संख्या में उनके छात्रों की उत्कृष्ट यानि 90 प्र.श. या उससे अधिक अंक मिले। कमजोर बच्चों को उस बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था का लाभ क्यों नहीं दिया जाता? नतीजा होता है कि प्रतिभावान छात्र हमेशा अग्रसर रहता है और कमजोर बच्चा अपने सिर पर हाथ रखकर भाग्य को कोसता रहता है।

केवल स्कूल-कॉलेज के छात्र ही नहीं आईआईटी, एनआईटी और आईआईएम के छात्रों में भी खुदकुशी करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। हमें मंथन करना चाहिये कि किसी नाकामी को छात्र जीवन का अंत क्यों समझने लगते हैं।

हमें उन बच्चों पर ध्यान देने की सख्त जरूरत होती है जो हताशा-निराशा से गुजर रहे होते हैं। देश के नीति नियंताओं को सोचना चाहिये कि पिछले दिनों देश की राजधानी में सीबीएसई के नतीजे आने के बाद चार छात्रों ने आत्महत्या कर ली। ऐसी खबरें देश के शेष भागों से भी आती है। हां, इस दुर्भाग्यपूर्ण कदम में लड़कियों की संख्या नगण्य है, शायद इसलिए कि उनमें सवभावत: धैर्य धारण की शक्ति लडक़ों से ज्यादा होती है। हम बच्चों को समझाने में विफल रहते हैं कि जीवन की कामयाबी सिर्फ नम्बरों के खेल में निहित नहीं है। यह समस्या कमजोर सामाजिक पृष्ठभूमि वाले बच्चों को ज्यादा झेलनी पड़ती है। जबकि अंतिम रूप से ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता कि किसी को अपना जीवन खत्म करना पड़े।

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