इतिहास बदलने की कवायद

इतिहास बदलने की कवायद

इतिहास लिखना किसी का एकाधिकार नहीं है। यह एक शोध का विषय है जिसके पारंगत लोगों ने इतिहास लिखा है। भारत को ही ले लें तो हमारे यहां भी कई इतिहासकार हुए जिन्होंने भारतीय इतिहास को अपने-अपने ढंग से खंगाला और लिखा। इतिहास की रचना में पर्याप्त सामग्री, वैज्ञानिक ढंग से उसकी जांच, उससे प्राप्त ज्ञान का महत्व समझने को विवेक के साथ ही ऐतिहासिक कल्पना की शक्ति तथा सजीव चित्रण की क्षमता की आवश्यकता है। स्मरण रखना चाहिए कि इतिहास न तो साधारण परिभाषा के अनुसार विज्ञान है और न केवल काल्पनिक दर्शन अथवा साहित्यिक रचना है। इन सबके यथोचित संमिश्रण से इतिहास का स्वरूप रचा जाता है। प्रत्येक युग, समाज अथवा व्यक्ति इतिहास का दर्शन अपने प्रश्नों के ²ष्टि बिन्दुओं से करता रहता है। इसके बिना ऐतिहासिक कल्पना और कपोल कल्पना में कोई भेद नहीं रहेगा। इतिहास की रचना में यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि उससे जो चित्र बनाया जाये वह निश्चित घटनाओं और परिस्थितियों पर ²ढ़ता से आधारित हो। मानसिक, काल्पनिक अथवा मनमाने स्वरूप को खड़ा कर ऐतिहासिक घटनाओं के द्वारा उसके समर्थन का प्रयत्न करना अक्षम्य दोष होने के कारण सर्वथा वर्जित है। इसके सिवा इतिहास का ध्येय विशेष यथावत् ज्ञान प्राप्त करना है। किसी विशेष सिद्धांत या मत की प्रतिष्ठा प्रचार या निराकरण अथवा उसे किसी प्रकार का आंदोलन चलाने का साधन बनाना इतिहास का दुरुपयोग करना है। ऐसा करने से इतिहास का महत्व ही नहीं नष्ट हो जाता, वरन् उपकार के बदले उससे अपकार होने लगता है जिसका परिणाम अंतोतगत्वा भयावह होता है।

सत्ताधीशों द्वारा अपनी सुविधा एवं निहित हितार्थ इतिहास की व्याख्या करने का शगल पुराना है। कमोबेश देश-दुनिया में हर राजनीतिक दल द्वारा कोशिश की जाती रही है कि इतिहास के पन्नों में उसका राजनीतिक विमर्श प्रभावी हो। यह हकीकत है कि ऐसी कोशिशें तत्कालिक भले ही दे जाएं, लेकिन ऐसे प्रयास न दीर्घकालीन होते हैं और न ही उन्हें सर्व-स्वीकार्यता ही मिलती है। सत्ता परिवर्तन के बाद उसे बदलने की कवायदें भी सामने आती है। राजाश्रय में एनसीईआरटी द्वारा 12वीं कक्षा के इतिहास, नागरिक शास्त्र तथा हिन्दी के पाठ्यक्रम में बदलाव की कोशिशों को इसी नतीजे से देखा जा रहा है। खासकर इतिहास की किताबों से मुगल साम्राज्य से जुड़ा चौप्टर हटाया गया है। वहीं हिन्दी की किताब से कुछ कविताएं व पैरा हटाये गये हैं। दरअसल मध्यकालीन पाठ्यक्रम से मुगलों के इतिहास से जुड़े ‘‘द मुगल कोर्ट’’ और ‘‘किंग्स एंड क्रानिकल’’ दो पाठ हटाये गये हैं। वहीं राजनीति शास्त्र की किताब से आजादी के बाद एक दल के प्रभुत्व वाले पाठ को हटाया गया है। कांग्रेस के प्रभुत्व की प्रकृति, सोशलिस्ट, बाम दलों तथा जनसंघ संबंधी पाठों को हटाया गया है। बहरहाल इस मुद्दे पर देशव्यापी बहस शुरू हो गयी है। राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, लेकिन शिक्षाविदें, इतिहासकारों तथा बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया भी सामने आ रही है। सवाल उठाया जा रहा है कि एक कालखंड को पाठ्यक्रम से हटाने से इतिहास में शून्यकाल नजर आयेगा। इस कालखंड के बारे में नई पीढ़ी को क्या बताया जायेगा? यदि कल ताजमहल, कुतुबमीनार या लालकिले आदि मुगलकालीन स्थापत्य के बारे में पूछेंगे तो क्या कहा जायेगा? मुगल नि:सन्देह हमलावर थे लेकिन यह भी अकाट्य तथ्य है कि मुगल भारत की रीति रिवाजों परम्पराओं में रमकर यहीं के होकर रह गये। अकबर के शासनकाल में ही बाबा तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना की जो आज हिन्दू समाज का सर्वाधिक लोकप्रिय पाठ्यक्रम है बल्कि रामचरित मानस की चौपाइयां समस्त भारतीय समाज के जनमानस में रच बस गयी है। इसी मुगलकाल में तुलसीदास ही नहीं कबीर, रहीम, सूर, नन्ददास, कृष्णादास, परमानन्द दास, रसखान, कुभ्मन दास (जिन्हें बादशाह अकबर ने कई बार अपने दरबार में बुलाया था पर उन्होंने यह कहकर आमंत्रण टाल दिया कि - सन्तन को क्या सीकरी से काम?), चतुर्भुजदास सीता स्वामी, गोविन्द स्वामी, गदाधर भट्ट, मीरा बाई, चैतन्य महाप्रभु, रैदास (रविदास), 

घनानन्द, पीपादास, गुरु नानक, मलूक दास, शेख फरीद, शेख तकी आदि अनेकानेक रचनाकार हुए जिनमें कोई कृष्ण भक्त था तो कोई राम भक्त। भक्तिकाल में कवियों की लम्बी सूची है जो आज भी हिन्दू धर्म के पोषक एवं मार्गदर्शक माने जाते हैं। यही नहीं यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मुगल काल के दौरान भारतीय शास्त्रीय संगीत हो या सनातन संस्कृति या हिन्दू संस्कार पुष्पित एवं पल्लवित हुआ और इस कार्य में मुगल बादशाहों की भूमिका की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि हमारी सनातन संस्कृति सिर्फ मुगलकाल में ही संरक्षित हुई। कुछ मुगल बादशाहों जैसे औरंगजेब की निरंकुशता का हिन्दू धर्मावलम्बी शिकार हुए एवं यह भी रिपोर्ट है कि औरंगजेब ने कई हिन्दू मन्दिरों का ध्वस्त किया। पर कुल मिलाकर मुगल काल में हिन्दू धर्म संस्कृति और शास्त्रों का संरक्षण किया गया। मुगल शासन का संचालन फारस या किसी इतर देश से नहीं होता था और वे अंग्रेजों की तरह सबकुछ लेकर नहीं गये। कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि भले ही मुगलकाल हिंसा, दमन व लूटपाट का दौर रहा हो, लेकिन उस कालखंड की विसंगतियों से सबक जरूर लेना चाहिए। यह भी सम्प्रदाय विशेष की ²ष्टि से इतिहास को नहीं देखा जाना चाहिए। छात्रों को तर्कसंगत व न्यायसंगत ज्ञान ही दिया जाना चाहिए।

इतिहास बदलने की पृष्ठभूमि जो तैयार की जा रही है उसे समझने और आंकने की जरूरत है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का दावा है कि भारत 800 साल तक गुलामी में रहा और सन् 2014 (जब मोदी जी प्रधानमंत्री बने) में उसे गुलामी से मुक्ति मिली। भाजपा के स्थापना दिवस पर अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने नये इतिहास की भूमिका या प्रस्तावना का बयान कर दिया जिसके अनुसार 2014 में सिर्फ सरकार ही नहीं बदली भारत की जनता ने सरकार बदलकर भारत के पुनर्निर्माण का आगाज किया। केन्द्रीय पाठ्यक्रम से मुगल साम्राज्य के इतिहास को हटाने के फैसले पर देशभर में हलचल है। पीएम मोदी जी के बयान से यह साफ हो गया है कि इस फैसले पर पीएम की मुहर लगी है। देश में मुगल साम्राज्य 331 वर्षों तक रहा। इसके बाद गुलामी के 800 साल का हिसाब क्या होगा। मतलब सिर्फ मुगलकाल ही नहीं इसके पहले के इतिहास भी किताबों से हटाये जा सकते हैं। मतलब दास, खिलजी, तुगलक, लोदी या ब्रिटिश शासन किसी के अस्तित्व की संभावना नहीं होगी। प्रधानमंत्री केवल मुगल या ब्रिटिश युग को भारत की गुलामी के युग के नाम देने पर नहीं रुके, उनका मानना है कि 1947 के बाद भी भारत गुलामी से मुक्त नहीं हुआ। यह महज संयोग हो सकता है कि इसी दिन असम के एक विधायक रूपज्योति कुर्मी ने ताजमहल को गिराने की अपील प्रधानमंत्री से कर दी। उन्होंने कुतुबमीनार पर भी बुलडोजर चलाने की मांग की है। उनका वीडियो वायरल हो रहा है।

इतिहास लिखने से कोई किसी को रोक नहीं सकता। लेकिन इतिहास के नाम पर छात्रों को दिग्भ्रमित करने की कोशिश नहीं होनी चाहिये। आवश्यकता है कि हम भारतीय इतिहास के सभी पहलुओं से लोगों को अवगत करायें। मुगलकाल हो अथवा ब्रिटिशकाल, सही एवं तथ्यपरक जानकारी मिलनी चाहिये। वैसे दो सौ रामायण लिखी जा सकती है जिसमें राम की महिमा का अलग ढंग से बखान किया गया है तो किसी भी युग का इतिहास में विभिन्न मत एवं तथ्य उजागर हो सकते हैं बशर्ते कि उनके पीछे शोध एवं वैज्ञानिक कारण हों।


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