संकट में होती है सबकी परीक्षा

 संकट में होती है सबकी परीक्षा

आदमी के जीवन में कई बार परीक्षा की घड़ी आती है जब उसे ही परीक्षार्थी और परीक्षक दोनों बनना पड़ा है। कोविड काल में कुछ ऐसा ही हुआ इसकी काफी चर्चा हो चुकी है कि  महामारी के दौरान किस तरह बुरे वक्त में आदमी ने आदमी का साथ दिया और ठीक उसके उलट इंसानियत को ताक पर रखकर कुछ लोगों ने अपने को आत्म केन्द्रित बना लिया। हमारे लोकाचार, धार्मिक मान्यताआं एवं नीति वचन में परोपकार और परोपकारी की स्तुति की गई है। लेकिन यह भी कहा गया है कि-स्वार्थमय सबको बनाया है यहां करतार ने। दूसरी तरफ तुलसीदास जी ने तो धर्म को एक पंक्ति में परिभाषित कर दिया कि परहित सरिस धरम नहीं भाई।  समाज में सभी तरह के लोग हैं। एक लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठकर उसे रास्ता बताता है और दोनों मिलकर दुर्गम रास्ते भी पार कर लेते हैं। दूसरी तरफ बेसुमार धन दौलत के बाद भी व्यक्ति अपने को ही तुष्ट एवं संतुष्ट करने के नये नये साधन खोजने की जुगत में लगा हुआ है।


व्यास पीठ पर बैठकर पंडितजी लोगों को मोह माया से दूर रहने  का परामर्श देते हैं लेकिन ऐसे  कहने का भी जजमान से लाखों रुपये लेते हैं, चढ़ावा और दिखावा अलग।

सभी धर्मों में परोपकार, कमजोर या अभावग्रस्त लोगों की मदद करने का प्रावधान है। हमारे हिन्दू धर्म में भी इस पर कई चर्चाएं हैं एवं कथायें प्रचलित हैं जिसके माध्यम से मनुष्य को यह समझाया गया है कि,  ‘किसी का दर्द ले सको तो उधार, जीना इसी का नाम है’ वगैरह वगैरह। आम आदमी ने इसी भावना को जीवन में उतारा है लेकिन जैसे- जैसे हमारे साधन बढ़े उनपर कब्जा करने की होड़ मच गई। बुद्धि, बल, साधन, शौर्य पर एकाधिकार हेतु संस्थान बनाये गये। कालान्तर में इसी विचार प्रक्रिया की परिणति आज ‘आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स’ के रूप में सामने है जिसमें दिमाग एवं कौशल को रोबोर्ट की तरह बनाकर कौन व्यक्ति क्या चाहता है, उसके दिल ओर दिमाग में क्या दौड़ रहा है उसे आप उसी तरह समझ सकते हैं जैसे चिकित्सा विज्ञान की सफलता के चलते हम मरीज के शरीर के अन्दर हो रहे ऑपरेशन या शल्य चिकित्सा को एक कम्प्यूटर के स्क्रीन पर हू बहू ‘लाइव’ देख पाते हैं। आने वाले दिनों में आपके मन की हर बात का ब्यौरा एक चिप में कैद होगा। विज्ञान का रथ आगे बढ़ रहा है और बढ़ते रहना चाहिये किन्तु वह लोगों की शारीरिक एवं मानसिक क्षुधा के शमन की बजाय कुछ लोगों के ऐजेन्डा को अंजाम देने में जुटा है।

विगत सप्ताह कोलकाता एवं आसपास गर्मी के कहर ने कई सच्चाइयों से हमें रूबरू बराया है। और आप जानते हैं सच्चाई हमेशा कड़वी होती है। इस आलेख में हमने एक चित्र दिया है जिसमें कोलकाता का टैक्सी ड्राइवर एक गरीब बच्चे को बुलाकर पानी पिला रहा है। पानी की बोतल किसी कपड़े से ढकी हुई है जिससे अंदर का पानी की शीतलता बनी रहे। जाहिर है उसने अपने लिये यह व्यवस्था की है कि भीषण गर्मी में वह शीतल जल का सेवन कर सके। लेकिन उसने इस जतन से सुरक्षित जल को उस बच्चे के साथ साझा किया। बच्चे की जरूरत को अपनी तृष्णा से ज्यादा महत्व देकर टैक्सी चालक स्वप्न राय ने कहा कि बच्चे को पानी पिलाकर उसने कोई बड़ा काम नहीं किया। यह चित्र बंगाल  के सबसे पुराने एवं प्रमुख बांग्ला दैनिक आनन्द बाजार पत्रिका के 18 अप्रैल के अंक  के प्रहले पृष्ठ पर प्रमुखता के साथ प्रकाशित हुआ। यही नहीं अखबार में अगले  दिन उस ड्राइवर के साथ एक साक्षात्कार भी प्रकाशित किया गया जिसमें उसने बताया कि बच्चे के मुंह में बोतल लगाकर उसे पानी पिलाया क्योंकि दो लीटर की बोतल को बच्चा जिसके हाथ में में पहले से कुछ सामान था शायद सम्भाल नहीं पाये। ड्राइवर ने शादी नहीं की इसीलिए उसका अपना कोई सन्तान नहीं है। पर दूसरे बच्चों की मदद कर उसे सुख की अनुभूति होती है।

महानगर और उसके आसपास कुछ संस्थाओं ने प्याऊ बनाये हैं जिसमें ठंडा जल राहगीरों के लिए उपलब्ध है। कोलकाता की एक प्रमुख संस्था जो प्यासों को पानी पिलाने की सेवा हेतु जानी जाती है ने कई साल पहले ही अपनी कई सौ गुमटियां बन्द कर दी। पर उसके बाद कई निजी प्रतिष्ठान और संस्थायें आगे आईं और राहगीरों में पीने के पानी की सेवा कर रही है।  फिर भी ऐसा लगता है कि मानव सेवा के प्रति जो सम्मान एवं कर्तव्य निष्ठा पहले थी, अब काफी क्षीण हो गई है। मानव सेवा प्रवृति के अंकुर व्यक्तिगत स्वभाव में प्रस्फुटित होते हैं जिसे व्यक्ति सामुदायिक प्रकल्प के रूप में सजाता संवारता है। दुर्भाग्य की बात है कि वे बीज जो व्यक्ति के किशोरावस्था में प्रस्फुटित होते थे अब अंकुरित नहीं हो रहे हैं। अत: जैसे जैसे उम्र बढ़ती है व्यक्ति के दिल में सेवा की प्रवृति की प्राथमिकता अब बहुत कम या नगण्य सी रह गई है। इसके बहुत कारण हैं। इसका सीधा सम्बन्ध संस्कार एवं शिक्षा पद्धत्ति के मूल सिद्धांतों से है जो अब लगभग ओझल हो गया है। सेवा प्रवृत्ति पहले परिवार का एजेन्डा होती थी। परिवार की चौपाल अब वर्कशॉप बन गई है जिसमें वित्तीय साधनों को जुटाने और बढ़ाने पर चर्चा होती है। खैर, बदलते समय ने बहुत कुछ बदल दिया है फिर भी निराशा की कोई बात नहीं है। और कुछ नहीं तो टैक्सी ड्राइवर के इस छोटे से एजेन्डा  से ही लोग प्रेरणा लें। हमारी छत, हमारा आंगन जो पक्षियों के पानी के लिये आक्षित रहता था, वहीं से शुरूआत की जाये।

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