बुलेट एवं सुपर सोनिक के युग में चींटी की गति से चलती हमारी न्याय व्यवस्था

 बुलेट एवं सुपर सोनिक के युग में चींटी की गति से चलती हमारी न्याय व्यवस्था

अंग्रेजी में एक प्रसिद्ध कहावत है कि जिसके अनुसार न्याय करने में देर न्याय नहीं करने के समान ही घातक है। लेकिन हमारे देश की न्याय व्यवस्था को यह विडम्बना तेजी से घेरती जा रही है। देश के न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों का आंकड़ा चार करोड़ के आसपास पहुंच गया है। इनमें करीब एक लाख मामले निचली अदालतों में 30 सालों से ज्यादा समय से फैसले का इंतजार कर रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार इनमें से ज्यादातर केस उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से है जो राजनीतिक रूप से ज्यादा सक्रिय राज्य है। न्याय व्यवस्था की इस लचर स्थिति ने इन राज्यों में माफिया और अपराधियों को बढ़ावा दिया क्योंकि राजनीतिक दलों से संबंध होने के कारण पुलिस उनके खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं कर पाती। इनका प्रत्यक्ष उदाहरण बहुचर्चित निर्भया केस है। वर्ष 2012 में निर्भया के साथ हुए जघन्य अपराध के विचारण में सात वर्ष से अधिक समय लगा, जो न्याय व्यवस्था की लचर कार्यप्रणाली को उजागर करता है। भारतीय न्यायिक प्रणाली दुनिया की सबसे पुरानी न्याय प्रणालियों में से एक है। कई भारतीय राजा एवं शासकों का उनकी न्याय व्यवस्था एवं न्याय सजगता के कारण इतिहास में नाम है। राजा विक्रमादित्य, सम्राट अशोक, मुगल बादशाह अकबर आदि कई ऐसे नाम हैं जो अपनी न्याय निष्पक्षता एवं त्वरित न्याय प्रदान के लिए इतिहास में नाम कर गये।


भारत की न्याय व्यवस्था विश्वसनीय एवं निष्पक्षता के लिये जानी जाती है। आज का परि²श्य लेकिन ठीक उसके विपरीत है। ऐसे बहुत से उदाहरण है जब किसी ने न्याय की बेमियादी गुहार लगायी और पूरी उम्र बीतने के कगार पर कहीं जाकर उसे न्याय मिला। ऐसे कितने ही लोग होंगे जो सांस रोककर न्याय-साधना में अपनी उम्र गुजार देते हैं। अंतोतगत्वा मिले न्याय सेे न्याय प्रणाली के प्रति विश्वसनीयता बढ़ी है किन्तु दीर्घ समय और कई मामलों में पीढिडय़ां खप गयी तब जाकर न्याय मिला। अधिकांश मामलों में जीवनभर की कमाई और तरुणाई अदालतों के चक्कर काटने में गुजर जाती है। चम्बल घाटी में जब 1960-70 के दशक में डाकू-समस्या चरम पर थी, उस समय कई कुख्यात डाकुओं ने यह स्वीकार किया था कि उन्हें डकैत बनाने में उनके साथ होने वाला अन्याय बड़ा जिम्मेवार है। इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है। लेकिन साथ ही यह भी उतना ही जरूरी है कि न्याय की गति तेज हो और समय पर न्याय मिल सके। आजकल प्रयागराज में राजू पाल हत्याकांड चर्चा में है। 24 फरवरी को राजू पाल हत्याकांड के प्रत्यक्षदर्शी गवाह उमेश पाल की अतीक अहमद के गुर्गों द्वारा सरेआम दिन में हत्या कर दी गयी। इसके बाद इस हत्या की पूरी कहानी मीडिया पर प्रसारित की जा रही है और इसमें चैनल अपनी टीआरपी बढ़ा रहे हैं। दर्शकों का भरपूर मनोरंजन हो रहा है परन्तु किसी मीडिया ने यह नहीं दिखाया कि उमेश पाल जिस राजू पाल हत्याकांड में गवाह थे, वह हत्या 18 साल पहले जनवरी 2005 में की गयी थी। राजू पाल बहुजन समाज पार्टी से लोकसभा के सदस्य थे। फिर भी इस स्तर के व्यक्ति की हत्या का मुकदमा अभी तक जिला अदालत में केवल प्रारंभिक स्तर तक ही पहुंचा है और प्रत्यक्षदर्शी गवाह उमेश पाल को 10 साल बाद भी गवाही देने का मौका नहीं मिल पाया।

यदि उमेश पाल की गवाही हो गयी होती, तो अब तक इसमें शामिल हत्यारों को सजा मिल गयी होती। अभी एक और मामला चर्चा में है। जमीन के बदले नौकरी देने के मामले में लालू यादव और उनके परिवार तक जांच एजेंसियां 19 साल बाद पहुंची है। जबकि यह मामला 2004 का है, जब लालू जी रेलमंत्री थे। 1984 में दिल्ली में दंगे हुए जिनमें 2500 सिखों की बलि चढ़ी परन्तु 40 साल बाद भी दंगों की जांच प्रारम्भिक स्तर पर ही है। और इसमें लिप्त अपराधियों को अदालतों द्वारा कोई सजा नहीं दी गयी है। पूर्व रेलमंत्री ललित नारायण मिश्रा की 1975 में एक षडयंत्र में बम विस्फोट द्वारा हत्या कर दी गयी थी और इस मामले में भी पूरे 39 साल बाद 2014 में न्याय हो सका।

इसका प्रमुख कारण भारत में न्यायालयों की कमी, न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों का कम होना तथा पदों की रिक्तता का होना है। वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर देश में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 18 न्यायाधीश हैं। विधि आयोग की रिपोर्ट में सिफारिश की गयी थी कि प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या तकरीबन 50 होनी चाहिये। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए पदों की संख्या बढ़ाकर तीन गुना करनी होगी।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में जवाबदेहिता एक आवश्यक पक्ष होता है। इसको ध्यान में रखते हुए सभी सार्वजनिक पदों पर स्थित व्यक्तियों का उत्तरदायित्व निश्चित किया जाता है। भारत में भी विधायिका और कार्यपालिका का संबंध में कई कानूनों एवं चुनावी प्रक्रिया द्वारा उत्तरदायित्व सुनिश्चित किये गये हैं। लेकिन न्यायपालिका के संदर्भ में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। किसी न्यायाधीश को हटाने का एकमात्र उपाय सिर्फ महाभियोग ही होता है। ज्ञात हो कि अभी तक किसी न्यायाधीश पर महाभियोग की कार्यवाही नहीं की गयी है। हालांकि अभी कुछ समय पहले ही भारत के मुख्य न्यायाधीश ने एक न्यायाधीश को जांच में कदाचार का दोषी पाये जाने के बाद उसे पद से हटाने के लिए प्रधानमंत्री से अनुरोध करने संबंधी मामला चर्चा में रहा। न्यायालय में संबंध में ऐसी कोई माध्यमिक व्यवस्था नहीं, जिससे न्यायालय स्वयं ही न्यायाधीश से जुड़े कदाचार के मामले में उचित कार्यवाही हो सके।

भारतीय न्यायिक व्यवस्था में किसी वाद के सुलझाने की कोई नियत अवधि तय नहीं की गयी है, जबकि अमेरिका में यह तीन वर्ष निर्धारित है।

उच्च व निचली अदालतों में भी नियुक्ति में देरी होने के कारण न्यायिक अधिकारियों की कमी हो गयी है जो कि बहुत ही चिन्ताजनक है। इसी कारण मामलों में लंबित रहने का अनुपात बढ़ता जा रहा है और पूरे भारतीय न्यायिक तंत्र को जकड़ चुका है।

न्याय अभी भी देश के बहुसंख्यक नागरिकों की पहुंच के बाहर है, क्योंकि वे वकीलों के भारी खर्च वहन नहीं कर पाते हैं और उन्हें व्यवस्था की प्रक्रियात्मक जटिलता से होकर गुजरना पड़ता है।

उपर्युक्त सभी बातों को देखते हुए स्पष्ट है कि भारतीय न्याय तंत्र में विभिन्न स्तरों पर सुधार की दरकार है। यह सुधार न सिर्फ न्यायपालिका के बाहर से बल्कि न्यायपालिका के भीतर भी होने चाहिये। न्यायिक व्यवस्था में न्याय देने में विलम्ब न्याय के मूल सिद्धान्तों से विमुखता है, अत: न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिये बल्कि दिखना भी चाहिये।


Comments

  1. न्यायलयों में लंबित मामलों को गति देने के लिए पिछले कुछ वषोॅ में कुछ प्रक्रियाओं में बदलाव किए गए हैं निचले स्तर पर मामलों को निपटाया गया है. पंचायती स्तर पर पंचायतों को मामले निपटाने के लिए कहा गया है. कोर्ट रात्रि में भी सुनवाई कर सैकड़ों मामलों का जल्दी निपटान कर रही है । 40-50 वर्षों की जर्जर व्यवस्था ठीक करने में वक्त लगेगा लेकिन वर्तमान सरकार इसमें सुधार लाने की ओर अग्रसर है जो आशावादी है

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