12वां विश्व हिंदी सम्मेलन
मॉरीशस से फिजी तक भारतीय मजदूरों ने बिखेरा हिंदी का जलवा
हिंदी का वैश्विक तीन दिवसीय सम्मेलन फिजी में 15 फरवरी से शुरू होकर 17 फरवरी तक चलेगा। इस आलेख का आप के हाथों में पहुंचने तक इसका समापन हो जायेगा। इस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को फिजी सरकार तथा भारत का विदेश मंत्रालय मिलकर आयोजित कर रहे हैं। भारत के विदेश मंत्री श्री एस जयशंकर ने इस सम्मेलन का उद्घाटन किया। आयोजन फिजी के नाड शहर में संपन्न हो रहा है। यहां यह बताना भी बहुत प्रासंगिक होगा कि विश्व हिंदी सम्मेलन की शुरुआत करने का श्रेय श्रीमती इंदिरा गांधी को है जिन्होंने अपने प्रधानमंत्री काल में हिंदी को वैश्विक तौर पर स्थापित करने के लिए इस सम्मेलन की शुरुआत की। 1975 में आपातकाल की घोषणा की गई थी और यह संयोग है कि इसी साल 10 से 14 जनवरी को भारत सरकार ने वर्धा की राष्ट्रभाषा समिति से मिलकर विश्व हिंदू सम्मेलन आयोजित किया था। उस सम्मेलन का उद्देश्य हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाना था। तब से लेकर हर 4 वर्ष के अंतराल पर लगातार इसका आयोजन हो रहा है। यह सम्मेलन उन देशों में आयोजित हो रहे हैं जहां भारतवंशी बड़ी संख्या में बसे हुए हैं। भारत में तीन बार नागपुर में 1975 में, दिल्ली में 1983 में तथा भोपाल में 2015 में सम्मेलन आयोजित हो चुका है। इसी तरह तीन बार यह मॉरीशस में हो चुका है। इनके अलावा ब्रिटेन, दक्षिण, अफ्रीका, त्रिनिदाद और सूरीनाम में भी एक एक बार सम्मेलन किए जा चुके हैं।
तीन वर्ष पूर्व 2018 में मॉरीशस में आयोजित विश्व हिंदू सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि के रुप में भाग लेने का मुझे शुभ अवसर प्राप्त हुआ। हिंदी प्रेमियों लेखकों, साहित्यकारों, पत्रकारों का यह कुंभ होता है। विश्व सम्मेलन की एक दिलचस्प बात यह है कि मॉरीशस हो या फिजी, दोनों द्वीप में हिंदी का यह तीर्थ स्थल भारतीय मजदूरों के पसीने की बूंदों से सिंचित एवं पवित्र हुआ है। यहां बैठकर हिंदी मनीषी भाषा की उत्तरोत्तर प्रगति का विमर्श हुआ एवं विश्व स्तर पर हिंदी को आगे बढ़ाने पर गंभीर चर्चा हुई। वह पुण्यस्थली उन गिरमिटिया मजदूरों ने आबाद की है जिनकी कई पीढिय़ों ने गुलामी और साम्राज्यवादी विदेशी हुकूमत के आमानुषिक एवं बर्बर दमन को झेला है। गन्ने की फसल काटने बिहार के कई लाख श्रमिकों को पानी के रास्ते ले जाया जाता था। बिहार में गन्ने की खेती होती है, इसलिए यहां के किसान फसल काटने में सिद्धहस्त होते हैं। भारत और मॉरीशस दोनों में ब्रिटिश हुकूमत थी। कोलकाता के खिदिरपुर डॉक से पानी के जहाज में लाद कर मजदूरों का जत्था मॉरीशस भेजा जाता था। 5 महीने के समुद्री सफर में हजार में मात्र 700 या 800 मजदूर ही पोर्ट लुईस (मॉरीशस की राजधानी) पहुंच पाते थे। शेष रास्ते में ही समुद्री जल वायु, खाने का अभाव एवं बीमारियों की भेंट चढ़ जाते थे। पोर्ट लुईस में मैंने वे बैरक देखे हैं जहां इन मजदूरों को जानवरों की तरह ठंूस कर रखा जाता एवं उनसे गन्ने की खेती में काम लिया जाता था। एक सौ साल से अधिक की जहालत की जिंदगी के बाद उन्हीं मजदूरों ने मॉरीशस को एक उन्नत देश बनाया, जहां आज प्रवासी भारतीय मजदूरों की सरकार है। पोर्ट लुईस की सडक़ों पर लोग कम और गाडिय़ां अधिक दौड़ती हुई दिखती हैं इसका भी पूरा श्रेय भारतीय मजदूरों को है। यही नहीं 6 हजार किलोमीटर की दूरी पर बसा यह एक सूक्ष्म भारत है। मॉरिशस जहां मात्र 13 लाख की जनसंख्या वाले टापू में अधिकांश प्रवासी भारतीय श्रमिक हैं जिन्होंने भारतीय परंपराओं एवं संस्कारों की आज भी संजीदगी से अक्षुण्ण रखा है।
इस बार जिस फिजी टापूपर हिंदी का 12वां विश्व सम्मेलन संपन्न हो रहा है, उसकी कहानी भी मॉरीशस की तरह लोमहर्षक है। गरीबी की मार और पेट की आग से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से 1879 में एग्रीमेंट के तहत वे फिजी पहुंचे थे। गिरमिटिया लोगों ने शायद ही सोचा होगा कि एक दिन इसी देश में उस हिंदी की ऐसी गूंज सुनाई देगी, जिसे तब गुलामों की जुबान माना जाता था। लिखित रूप से रामचरित मानस का गुटका संस्करण और हनुमान चालीसा एवं स्मृति में अपने लोक गीतों व कथाओं को लेकर पहुंचे। उन उखड़े लोगों ने अपनी मेहनत के दम पर फिजी को खड़ा किया तो अपनी संस्कृति को भी बचाए रखा। उसी संस्कृति की वाहक हिंदी बनी। तीन दिवसीय वैश्विक सम्मेलन फिजी में हो रहा है, जहां भारत की आत्मा आज भी रची बसी है। विडंबना है कि उसी हिंदी को हम भारत में साम्राज्यवादी हुकूमत की भाषा अंग्रेजी से आज तक मुक्त नहीं करा सके। उपभोक्तावाद की संस्कृति हिंदी के ही देश में हर घर में घुस चुकी है। बाजारीकरण के माध्यम से अप संस्कृति और हिंदी समेत भारतीय भाषाओं का जो क्षय हो रहा है हम उसे रोकने में और अक्षम साबित हुए हैं।
कम पढ़े लिखे गंवार समझे जाने वाले इन भारतीयों के समक्ष गरीबी में एवं बेबसी के अतिरिक्त जो सबसे बड़ी समस्या थी, वह यह कि अपने विदेशी आकाओं की ज्यादतियों को सहते हुए अपनी सांस्कृतिक धार्मिक तथा भाषाई पहचान को अक्षुण्ण बनाकर रखा जाए। इस दृष्टि से इनकी अकथनी गाथा अत्यंत मर्मस्पर्शी है। अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु सतत् संघर्षशील भारतवंशियों के समक्ष अपनी भाषा एवं संस्कृति की रक्षा की समस्या थी। भारतीय किसान मजदूर जब भारत से मॉरीशस, त्रिनिदाद, दक्षिण, अफ्रीका गुयाना, सुरीनाम, फिजी आदि देशों में पहुंचते हैं तो कस्टम की चेकिंग में इन भारतीय किसान मजदूरों के पोटलियों में से फटी पुरानी रामचरितमानस, हनुमान चालिसा, गीता, निर्गुण देवी देवताओं की स्तुतियां, लोकगीत, कजरी, भाग, बिरहा चैती आदि गीतों की पोथियां मिलती थी। यही पुस्तकें सुदूर अफ्रीका में भारतवंशियों के लिए संजीवनी सिद्ध हुई तथा भारतीय संस्कृति को जीवंत बनाने में सहयोगी सिद्ध हुई।
हिंदी विश्व सम्मेलन सिर्फ हिंदी के प्रसार एवं उसे समृद्ध बनाने पर विचार तक सीमित ना रहे बल्कि भारतीय भाषाओं के साथ हिंदी को विदेशी भाषा के वर्चस्व से मुक्त करने पर भी विचार करें तभी संघर्ष का इतिहास रचने वाले मजदूरों के पसीने से सिंचित संस्कृति के प्रति हमारे कर्तव्य की इतिश्री होगी।


Comments
Post a Comment