मारवाड़ी सम्मेलन का चुनाव
अश्वमेध के काले घोड़े को कौन रोकेगा?
अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन की स्थापना समाज के कुछ दूरदर्शी चिंतकों ने आज से 88 वर्ष पूर्व सन् 1935 में की थी। सम्मेलन का उद्देश्य मूलत: मारवाडिय़ों की सांस्कृतिक परंपराओं को सुदृढ़ करना और समाज सुधार के कार्यों को गतिश्ीील बनाना था। इसी नेक इरादे से सम्मेलन में सामाजिक सुधारों को केंद्र में रखकर आंदोलन किए गए। मारवाड़ी समाज के लिए इन सुधारों की आवश्यकता प्राण वायु की तरह थी क्योंकि यह मूलत: व्यवसायिक समाज है। अंतोतगत्वा धनोपार्जन व्यवसाय की परिणति मानी जाती है। राजस्थान की मरू भूमि प्राकृतिक रूप से इसके लिए उर्वरा नहीं थी इसलिए लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व राजस्थान के बणिकसमाज ने देश के अन्य हिस्सों की ओर अपना रुख किया। व्यापार के प्रति निष्ठा एवं कड़ी मेहनत से समाज पर लक्ष्मी की कृपा भी हुई। मारवाड़ी समाज के लोग दूर-दराज क्षेत्रों में विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अध्यव्यवसाय में जुटे एवं अपने को स्थापित कर प्रदेशों में परिवार ले गए। स्थानीय लोगों के साथ समरसता के हुनर से मारवाड़ी समाज जहां भी गया वहीं सम्मान के साथ बस गया। कालांतर में व्यापार के अलावा सांस्कृतिक सामाजिक शैक्षणिक दृष्टि से भी समाज के कुछ लोगों ने रुचि दिखाई। इस पृष्ठभूमि में व्यावसायिक घरानों ने धर्म के बाद शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपना अहम् योगदान दिया। अर्जित धन का एक हिस्सा लोगों के कल्याण में खर्च करने को अपना पुनीत कर्तव्य मानकर मारवाड़ी समाज के व्यवसायियों ने सुख्याति अर्जित की। मारवाड़ी सम्मेलन इसी मानसिक प्रवृत्ति का ही प्रतिफल था। लक्ष्मी की कृपा से धन बाहुल्य समाज में विकृतियों का प्रादुर्भाव स्वाभाविक था एवं शिक्षा अर्जित करने हेतु लोगों की मानसिकता में बदलाव अति आवश्यक मानकर समाज ने कुप्रथा एवं आर्थिक विकारों के खिलाफ आंदोलन स्वतंत्रता आंदोलन के साथ समाज सुधार को भी जोडक़र समाज ने देश में सामाजिक सुधारों के लिए फिजां तैयार की। महात्मा गांधी ने मारवाड़ी समाज के कुछ जागरूक लोगों को समाज सुधार में अग्रणी किया एवं इसे राष्ट्रीय आंदोलन का रूप दिया। विधवा विवाह, नारी शिक्षा, समरसता, सामाजिक विसंगतियों, जाति प्रथा, बाल विवाह, कुरीतियों आदि का उन्मूलन इसी की परिणति के रूप में मारवाड़ी सम्मेलन के आंदोलन का एजेंडा बने।
मारवाड़ी सम्मेलन ने सामाजिक सुधारों हेतु आंदोलन कर एक तरफ समाज को सुसंस्कारी एवं सुसांस्कृतिक समाज बनाने में आहुति दी दूसरी तरफ राष्ट्रीय मुक्तिआंदोलन में भी बढ़-चढक़र हिस्सा लिया। स्वनामधन्य बृजलाल बियानी, रामदेव चोखानी, सीताराम सेकसरिया, भागीरथ कनोडिय़ा, तुलसीराम सरावगी, सेठ गोविंद दास, प्रभु दयाल हिम्मतसिंहका, ईश्वरदास जालान, जैसे पुरोधाओं और बाद में रामकृष्ण सरावगी, नंद किशोर जालान, नंदलाल रुंगटा जैसी हस्तियों ने समाज को नेतृत्व प्रदान किया। इसी आंदोलन का हिस्सा बना विवाह-शादियों में फिजूलखर्ची, आडंबर, दिखावा, अप संस्कृति के विरुद्ध जन आंदोलन।
मारवाड़ी सम्मेलन समाज के एक सजग प्रहरी के रूप में काम कर रहा है। कुछ प्रबुद्ध लोगों का सम्मेलन से मतभेद भी हुआ किंतु समाज सुधारों का रथ कभी रुका नहीं। सम्मेलन को राजनीति से दूर रखा गया था ताकि सभी विचारों के लोगों को इसमें समावेश हो सके। सम्मेलन में राजनीतिक नेताओं की भागीदारी रही किंतु सम्मेलन के कार्यों में किसी पार्टी के वर्चस्व की बू से उसे दूर ही रखा गया। वैसे सम्मेलन में जो लोग आए उन्होंने राजनीति से ऊपर उठकर कार्य किया। यही वजह है कि सम्मेलन के संविधान में चुनाव की प्रक्रिया तय है किन्तु प्रयास किया जाता था कि सम्मेलन के पदाधिकारियों का चुनाव सर्वसम्मति से हो। ऐसा हुआ भी। जब भी चुनाव की नौबत आई कुछ वरिष्ठ लोगों ने सूझबूझ से संकट को टालने में सफलता प्राप्त की। विगत कुछ वर्षों से सम्मेलन एक ‘टॉकिंग क्लब’ बन गया जहां समाज सुधार एवं सामाजिक विसंगतियों की चर्चा तो होती रहती है किंतु सामाजिक बदलाव हेतु कोई ठोस कार्य नहीं किया जाता। सामाजिक कार्यक्रम को हाथ में लिया गया किंतु उसके लिए संघर्ष नदारद था। परिणामस्वरूप सम्मेलन एक ‘साइन बोर्ड’ बन गया। इस साइन बोर्ड के तले मीटिंग होती हैं। चर्चाएं भी की जाती हैं किंतु समाज की स्थिति पर चिंता प्रकट करने के प्रस्ताव पारित के सिवा कुछ काम होता दिखाई नहीं दिया। दूसरे शब्दों में मारवाड़ी सम्मेलन की गतिविधियों की चर्चा अब मारवाड़ी समाज के लोगों के बीच नगण्य सी हो गई है।
इन सब के बावजूद मारवाड़ी सम्मेलन संगठन की उपयोगिता आज भी बनी हुई है। समाज में चिंताशील लोग एवं सामाजिक कर्मी यह महसूस करते हैं कि मारवाड़ी सम्मेलन में जान फंूकी जाए पर उनके पास रास्ता नहीं है। सम्मेलन पर कुछ लोग सर्प कुंडली मारकर बैठ गये हैं। सम्मेलन के पास धन की कोई कमी नहीं। अपना भवन है, अपना फ्लैट है, पुराना कार्यालय है। यानी अथाह प्रॉपर्टी है, मोटा बैंक बैलेंस भी है पर कार्यक्रम के अभाव में सम्मेलन सिकुड़ता जा रहा है।
इसी परिपेक्ष में इस राष्ट्रीय संगठन में ऊर्जावान एवं ऐसे चिंतकों की जरूरत है जो सम्मेलन के साधनों का सदुपयोग कर सकेंं। कभी हिंदी के समाचार पत्रों में सम्मेलन की समालोचना इसी दृष्टि से होती रही है। किंतु अभी हिंदी मीडिया में सम्मेलन के व्यक्तियों को लेकर सुर्खियां बन रही हंै। कार्यों की विवेचना नदारद है। राजनीति से ऊपर उठकर सम्मेलन को चलाने की बजाय राजनीतिक अखाड़े में इसे धकेला जा रहा है। राजनीतिक महत्वाकांक्षा का शिकार बन रहा है सम्मेलन। समालोचना की बजाय इसके बल पर राजनीतिक लाभ उठाने और व्यक्तिगत कुंठाओं को साधने का प्रयास किया जा रहा है। पुराने समय में प्रतापी राजा राजसू यज्ञ के पश्चात अपने साम्राज्य की सीमा बढ़ाने के लिए अश्वमेध का घोड़ा छोड़ता था कि घोड़ा जहां जहां जाएगा वह राज्य मेरा। वैसे ही अश्वमेध का घोड़ा छोड़ दिया गया है जो कई संस्थाओं पर अपना आधिपत्य जमा चुका है। अब मारवाड़ी सम्मेलन की बारी है। इस घोड़े को कौन रोकेगा? जो रोकने की सोच रहे हैं, वह समाज का आवश्यक समर्थन नहीं जुटा पा रहे हैं। उनकी भी अपनी सीमायें हैं किंतु एक बात स्पष्ट है कि इस काले घोड़े को नहीं रोका गया तो सम्मेलन का रहा सहा साइन बोर्ड भी उतर जाएगा। इसलिए सम्मेलन के हितैषियों को यह गंभीरता से सोचना चाहिए कि समाज की यह पुरानी विरासत कहीं खड़ मंडेल का शिकार ना हो जाये। तटस्थ रहकर तमाशा देखना कायरता है। समय रहते ही समाज के इस संगठन को बचाने की जरूरत है वर्ना ‘परशुराम की वापसी’ में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियां साकार हो उठेंगी -
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी इतिहास।

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