अंधविश्वास की विष बेल, बाबा से बेबी तक - एक ने दुनिया को ठगा दूसरी खुद से ठगा गई

अंधविश्वास की विष बेल, बाबा से बेबी तक

एक ने दुनिया को ठगा

दूसरी खुद से ठगा गई

आंख बंद कर भरोसा करना दीवानगी हो सकती है किंतु उसके नतीजे ''लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई '' की तरह कई पीढिय़ों को भोगना पड़ता है। इसी वेदना को महसूस कर समय-समय पर ऐसे महापुरुष पैदा हुए जिन्होंने समाज को अंधविश्वास से मुक्त कराने हेतु प्राण प्रण से चेष्टा की। बंगाल में राजा राममोहन राय ने सती प्रथा को बंद करवाया। आज बंगाली समाज उससे मुक्त होकर खुले में सांस ले रहा है जिसके फलस्वरूप बंगाल ने देश को महान कवि एवं वैज्ञानिक दिए जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। भारतीय समाज में सैकड़ों वर्ष की परतंत्रता एवं मूल शिक्षा के अभाव के परिणामस्वरुप अंधविश्वास की जड़ पड़ताल में पहुंची है। इनसे समाज को मुक्त करवाना ही शिक्षा का पावन उद्देश्य है। सामाजिक परिवर्तन हुए हैं पर आज भी गांवों में टोटका, जादू टोना का बोलबाला है इसलिए हमारे ग्रामीण समाज को गरीबी एवं बेबसी ने अपने आगोश में जकड़ रखा है। शहरों में यह विभीषिका कम है किंतु वे भी मुक्त नहीं है। इन सब का परिणाम यह है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था का जो सामाजिक लाभांश मिलना चाहिए, नहीं मिल पाता। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इन अंधविश्वासों को हमने धर्म से जोड़ रखा है। धर्म के नाम पर कुछ भी कर लें, कोई अंगुली उठाने की हिम्मत नहीं करता।

कभी बाल विवाह भी हमारे धार्मिक संस्कारों का अभिन्न अंग था। लड़कियों को पढऩे स्कूल नहीं भेजा जाता था क्योंकि इसे हमारे संस्कारों पर कुठाराघात समझा जाता था। समाज में ऐसे परोपकारी और योद्धा पैदा हुए जिन्होंने नारी शिक्षा हेतु सतत् प्रयास किया एवं इस प्रक्रिया में उन्हें लांछित और अपमानित भी होना पड़ा। आज जब नारी शिक्षा का प्रसार हो रहा है। समाज का चेहरा भी बदला है एवं अब जो परिवर्तन हो रहे हैं उनका एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारा नारी समाज शिक्षित एवं प्रशिक्षित हो गया है। महिलाएं उन क्षेत्रों में भी अग्रणी हैं जिन पर कभी पुरुष का एकाधिकार होता था।

भारत में ही नहीं विकसित अमेरिका व अन्य देशों में भी कुछ ऐसे संस्थान है जिन्होंने अपने अनुयायियों को अंधकार में धकेल रखा है। कुछ वर्ष पहले एक ऐसे ही पंथ के लोगों ने अपने ही मकान में आग लगाकर अग्नि समाधि ले ली। भारत में अंधविश्वास से भ्रमित एवं ग्रसित लोगों ने नरबलि, पशु बलि,बाल विवाह, सती जैसी कूप्रथाओं से निजात पाने के लिए संघर्ष किया। आज इन सब कुंठाओं एवं कठमुल्लापन से पूर्ण रूप से तो नहीं किंतु आंशिक रूप से भारतीय समाज मुक्त हो गया है। अंधविश्वास के विरुद्ध संघर्ष एक अंतहीन प्रक्रिया है क्योंकि सामाजिक विसंगतियों पर कभी पूर्ण विराम नहीं लगता है। एक बुराई समाप्त होती है तो दूसरी का प्रादुर्भाव हो जाता है।


चमत्कारी बाबा धीरेंद्र शास्त्री

इन दिनों एक बाबा बागेश्वर धाम सरकार का चमत्कार चर्चा में है। इनका नाम धीरेंद्र शास्त्री है। बाबा के दरबार में पीडि़त लोग अपने कष्ट को लेकर जाते हैं। बाबा मन की बातें पहले से जान लेते हैं ताकि भक्तों पर चमत्कार का जादू चल सके। महाराष्ट्र की एक संस्था ने बाबा को चुनौती दी है कि वे नागपुर आकर अपने चमत्कारों को दिखाएं। बाबा ने पोल खुलने के डर से नागपुर आने से इंकार कर दिया और उन को दी गई चुनौती निरस्त हो गई। अब बाबा के दरबार में लाचार और नाना प्रकार की समस्याओं से ग्रसित भीड़ बढ़ती जा रही है। कई साल पहले ऐसे ही एक निर्मल बाबा का दरबार लगता था और हजारों लोगों को उन्होंने अपने तथाकथित चमत्कार से ठगा।

जयपुर में एक टोटकेबाज ने बताया कि जेल की रोटी खाने से व्यक्ति उपकृत हो सकता है एवं उसको फिर कभी जेल का मुंह नहीं देखना पड़ेगा। बस क्या था, कई अपराधियों एवं अपराधी प्रवृत्ति के लोगों ने जेल से हमेशा के लिए निजात पाने खाना मंगवा कर खाना शुरु कर दिया। जेल के सुपरिटेंडेंट की चांदी हो गई और अब जयपुर जेल एक विराट भोजनालय में परिवर्तित हो गया है, जहां से लोग रोटियां खाने के लिए मंगाते हैं। इस प्रकार कोई प्रतापी तांत्रिक भूत भगाता है तो कोई औरत को पुत्र प्राप्ति का नुस्खा बता कर उनका आर्थिक एवं शारीरिक शोषण करता है। गांवों में ओझा झाड़ फंूक कर लाईलाज एवं असाध्य रोगों से लोगों को छुटकारा दिलाने के नाम पर अपना क्लिनिक चला रहे हैं।

राष्ट्र की प्रगति के लिए एक वैज्ञानिक सोच आवश्यक है। विज्ञान का आधार तर्क होता है। अंधविश्वास व्यक्ति की संगीन समस्याएं एवं जीवन की असीम चाहत पर आधारित होता है। वैज्ञानित प्रयोगशालाओं में जांच-पड़ताल एवं उपयोग के बाद किसी निर्णय पर पहुंचा जाता है। देखते-देखते मौसम विज्ञान एवं प्राकृतिक आपदाओं की सटीक भविष्यवाणी करने लगा है, जिससे बड़ी प्राकृतिक आपदाओं से पार पाने में सफलता से जानमाल की क्षति से उन्हें बचाया जाता है। 

सूरत में देवांशी जैन का संन्यास वरण।

अंधविश्वास के कई प्रकार के अवतार होते हैं। हाल ही में सूरत में एक अरबपति हीरा व्यापारी की आठ वर्षीय कन्या ने जैन साध्वी बनने के लिए आलीशान जिंदगी को त्याग करने का फैसला किया। हजारों लोगों की मौजूदगी में जैन आचार्य से दीक्षा ले ली। खेलने-कूदने की उम्र में देवांशी जैन संन्यासिनी बन गई। देवांशी ने अपने 8 वर्ष के जीवन में कभी टीवी नहीं देखा। ना ही कोई फिल्म देखी, न ही कभी किसी रेस्तरां में खाना खाया और ना ही किसी विवाह आयोजन में शामिल हुई। उसने अब तक 367 शिक्षा दीक्षा कार्यक्रमों में भाग लिया है। अपने परिवार के अन्य सदस्यों की तरह दिन में तीन बार प्रार्थना करते हुए एक साधारण जीवन व्यतीत किया था। अत: बच्ची के मन में सन्यास का जुनून पैदा होना अस्वाभाविक नहीं था। आठ वर्ष की बच्ची जिसे भौतिक आयामों से अलग रखा गया के जीवन में विरक्ति भाव पैदा होना स्वाभाविक था। अब उसको जीवन सुख, साधनों से वंचित रहना पड़ेगा। कुछ लोग इसे महान त्याग की संज्ञा दे सकते हैं। पर जिस बच्ची ने जीवन की अनुभूतियों से अपने को अलग रखा या अलग रखा गया उसे यह भी कैसे मालूम कि त्याग और तपस्या किसे कहते हैं। बहुत लोग कर्म से अपने जीवन को सार्थक करते हैं, इसका उसको आभास भी नहीं है। जीवन में आगे चलकर अगर त्याग करती तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी। वैसे इतिहास उन्हीं का लिखा जाता है जिसने समाज को कुछ दिया हो। लोगों के परोपकार एवं कल्याण के लिए त्याग के अनेकानेक उदाहरण हैं। कुछ उम्र बाद वह सक्षम होती, समाज और देश को अपने विशाल साधनों से उपकृत कर सकती थी। पर अब तो इसका प्रश्न ही नहीं उठता। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कविता की ये पंक्तियां शायद इसी दृष्टि से लिखी होंगे- 

धर्मराज संन्यास सोचना कायरता है मन की

है सच्चा मनुजत्व, ग्रंथियां सुलझाता जीवन की। 


Comments

  1. आऐ दिन इस तरह के बाबा लोग चमत्कार सुनते हैं पर यह चमत्कार कितने सच है इस पर सब चुप धारण कर लेते हैं और यह बढ़ते जाते हैं। बीमारी ठीक करना,मन‌की‌बात‌ पढ़ना आदि आदि सुनकर आश्चर्य होता है। इसे रोकने के उपाय होने चाहिए और जब तक लड़का और लड़की बालिग ना हो जाए उन्हें दिक्षार्थी ना बनाया जाए।

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