कोविड की आहट के पहले ही सामाजिक उदासीनता की भेंट चढ़ गया आसाराम भिवानीवाला अस्पताल

कोविड की आहट के पहले ही सामाजिक उदासीनता की भेंट चढ़ गया  आसाराम भिवानीवाला अस्पताल

बड़ाबाजार क्षेत्र पुण्यभूमि है। इसलिये नहीं कि इस क्षेत्र में दो सौ से अधिक छोटे-बड़े मंदिर हैं बल्कि इसलिये कि लोक कल्याण के लिए भी बड़ाबाजार का दिल बड़ा है। सबसे पुरानी स्कूल, अस्पताल, बड़ाबाजार के लैंड मार्क माने जाते रहे हैं। कभी एशिया का प्रमुख व्यवसायिक केन्द्र था फिर सिकुड़ता सिकुड़ता बड़ाबाजार पूर्वी भारत का व्यस्त कारोबारी हब बन गया। दरिद्र नारायण की सेवा में भी एक मानक माना जाता था। व्यवसाय आज भी है, यह अलग बात है कि यहां हर दूसरे-तीसरे दिन करोड़ों का अवैध सोना पकड़ा जाता है। नकली इनकमटैक्स इन्सपेक्टर बनकर लाखों की ठगी की कहानी अखबारों में सुर्खियां बनती है। धार्मिक गतिविधियों में भी बड़ाबाजार का कोई सानी नहीं है। बाल हनुमान, बालाजी, जब्रेश्वर महादेव, पुटे काली, बैकुंठनाथ, लड्डू गोपाल यानि भगवान के भी हर रूप की पूजा करके बड़ाबाजार अपनी भक्ति के संस्कारों को बनाये रखने में अग्रणी है।

आशाराम भिवानीवाला अस्पताल

बड़ाबाजार या उसके राजनीतिक संस्करण जोड़ासांकू में पिछले कुछ वर्षों से ग्रहण लग गया है जिस पर समय रहते चिन्तन नहीं किया गया तो यह क्षेत्र बंगाल की सरजमीं पर धब्बा बन सकता है। सेवा संस्कारों की धरोहर को समय रहते नहीं सम्हाला गया तो मारवाड़ी समाज की सदियों पुरानी कृतियां सौदागरों की पट्टी के रूप में परिणित हो जायेगी।

लोक कल्याण के धरोहर पर नाज करने वाले मारवाड़ी समाज की नयी पीढ़ी अब इसके प्रति निर्लिप्त है। वैदेही जनक की तरह उनमें अपने पुरखों के द्वारा निर्मित गौरव के प्रति कोई मोह या आसक्ति नहीं है। ऐसी स्थिति में राजनीति भी स्थिति में सुधार लाने की बजाय लगता है अपनी दुकानदारी में लग गयी है। इसका ज्वलंत उदाहरण हाल ही में आशाराम भिवानीवाला अस्पताल है। सौ वर्ष पुराना यह अस्पताल वर्षों तक बुढ़ापे में लाठी का सहारा लेकर चलता रहा और अब वह भी चल बसा। दो सौ बेड का यह अस्पताल आलू पोस्ता में स्थित है जहां मुटिया-मजदूर एवं छोटे-बड़े दुकानदारों की रेलम पेल रहती है। इसी क्षेत्र का मेयो अस्पताल में ताला लगे जमाना हो गया। यहां नये अस्पताल की बात तो दूर एक अस्पताल जिसमें मध्यम एवं निम्न मध्यम श्रेणी के लोगों को बिना लूटे इलाज होता रहा है बिना किसी शोर-शराबे के गुमनानी में चला गया। प्राप्त सूचना के अनुसार भिवानीवाला परिवार अस्पताल भवन को बेचना चाहता है। लीज आदि के तकनीकी व्यवधान के खत्म होते ही इसका सौदा हो जायेगा। अस्पताल बंद होने पर हमारे संवेदनशील समाज के दर्दी लोगों ने उफ तक नहीं किया। क्षेत्र का दूसरा अस्पताल है जो दिवंगत हो गया। क्षेत्र के विधायक से लेकर समाज योद्धा सभी मौन है। मेयो अस्पताल के पश्चात् भिवानीवाला अस्पताल का बंद होना आज के मीडिया की भी सुर्खियां नहीं बनती। जब कोविड के पुन: आने की आशंका से लोक आतंकित है वहां एक अस्पताल का अवसाद घाव पर नमक छिड़कने जैसा है।

भिवानीवाला अस्पताल के कुछ कदम दूरी पर ही महानगर का सबसे पुराना विद्यालय माहेश्वरी विद्यालय अपने इतिहास को छिपाये हुए सिसक रहा है। हाल ही में माहेश्वरी सभा द्वारा जारी किये गये एक रंगीन मनमोहक हैंडबिल में संस्था के कर्णधारों ने इस बात का दबे स्वर में उल्लेख किय ाहै कि स्कूल में कभी दो हजार छात्र थे, अब मात्र आठ सौ रह गये हैं। आयोजकों ने इशारे में यह भी बताया कि स्थिति बदतर हो सकती है। इसी के बगल में लड़कियों कीस्कूल है उसके हालात भी माहेश्वरी विद्यालय की तरह ही है। माहेश्वरी समाज जिसने बिड़ला, बांगड़ जैसे दिग्गज औद्योगिक घराने दिये एवं जिसके दो घराने देश के दस सबसे बड़े धन कुबेरों में आज भी हैं की यह धरोहर निकट भविष्य में बंद तो शायद नहीं होगी किन्तु इसकी स्थिति भी वैसी ही हो जायेगी जैसी टैगोर कैसल के बालकृष्ण बि_लनाथ विद्यालय की है। यह स्कूल जिसमें कभी दो-ढाई हजार छात्र थे अब अपनी बदहाली की कहानी बयां कर रहा है। इसके पास ही लोहिया मातृ सेवा सदन जो कभी विख्यात जच्चाघर था, अब खुद बांझपन झेल रहा है। नवजात बच्चे की किलकारी गूंजे अर्सा हो गया। कहने को अस्पताल बंद नहीं है पर इसके मुख्य द्वार पर दिन भर खड़े रहिये कोई गर्भवती प्रवेश करती दिखाई नहीं देगी। अब यह भी विडम्बना है कि किसी समाज पुरोधा ने आवाज नहीं उठायी कि लोहिया मातृ सेवा सदन जो देखने में एक विशाल भवन है के अन्दर क्या हो रहा है। बहुत वर्ष पहले यहां भूत का डेरा बताकर आतंक फैलाया गया था ताकि अस्पताल को बंद करने में कोई मुश्किल न हो। पर अब तो भूत भी नहीं आते, उन्होंने भी अपना और कहीं डेरा बना लिया है।

मारवाड़ी समाज के पुराने संस्थान मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी अपनी चिकित्सा एवं विविध लोक कल्याण के लिए चर्चित था, उसकी स्थिति भी चिन्ताजनक है। औसत चालीस पचास बेड पर ही मरीज दिखाई देते हैं। कोविड काल को छोड़ दिया जाये तो अस्पताल की सेवा अब बड़ी सीमित हो गयी है। सोसाइटी की व्यवस्था को लेकर वहां के वर्तमान महासचिव श्री गोविन्दराम अगरवाल ने 31 दिसम्बर की डेडलाईन घोषित की है। इसके पश्चात् वे महासचिव का पद नहीं सम्हालेंगे। अन्दर की स्थिति यह है कि सोसाइटी की कार्यसमिति की बैठक अस्पताल भवन के सभा कक्ष की बजाय अध्यक्ष के कार्यालय में करनी पड़ती है ताकि कोई अनहोनी न घट जाये। सोसाइटी का प्रवेश द्वार पर पुरानी चन्दा दाताओं के नाम से पट गया है लेकिन नये नाम लिखे नहीं जा रहे हैं।

मैं किसी व्यक्ति की आलोचना का पक्षधर नहीं हूं पर समाज के कीर्तिमान धरोहरों की वर्तमान मायूसी से चिन्तित जरूर हूंम। बड़े लोगों के लिये लाईन से बाईपास में दस अन्तरराष्ट्रीय स्तर के अस्पताल हैं और नयी-नयी स्कूलें भी खुलरही है जहां महीने की फीस लाख-दो लाख है। मध्यम और निम्न मध्यम श्रेणी के लोगों को भगवान भरोसे छोड़कर हम किस समाज की रचना में अपनी आहूति दे रहे हैं? सर्वाधिक चिन्ता की बात तो यह है कि सार्वजनिक सेवाओं की बदहाली पर कोई चूं करने वाला भी नहीं है। वैसे हमारे जन प्रतिनिधि अस्यव्यस्त रहते हैं उन्हें इन बातों पर सोचने की फुर्सत नहीं है।


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