''मां बुलाता है''
अंग्रेजी परस्त हिंदी भाषियों के कुंठा की परिणति
मातृभाषा किसी व्यक्ति, समाज, संस्कृति या राष्ट्र की पहचान होती है। वास्तव में भाषा एक संस्कृति है, जिसके भीतर भावनाएं, विचार और सदियों की जीवन पद्धति समाहित होती है। मातृभाषा ही परंपराओं और संस्कृति से जोड़े रखने की एकमात्र कड़ी है। राम-राम या प्रणाम आदि संबोधन व्यक्ति को व्यक्ति से तथा समष्टि से जोडऩे वाली सांस्कृतिक अभिव्यक्तियंा हैं। उदाहरण के लिए प्रथम संबोधन के समय हम हाथ मिलाकर गुड मॉर्निंग नहीं करते हैं, बल्कि हाथों को जोड़कर राम या अन्य भगवान का नाम उच्चारण करते हैं। इन दिनों नई पीढ़ी ऐसे कुछ अवसरों पर 'ओह शीट' अर्थात मानव मल को याद करती है।
भारतीय परंपराओं के अनुसार तो ऐसे विकट या संकट की घड़ी में भगवान के नाम की तरह अशुभ वस्तु का स्मरण अनिष्ट को आमंत्रित करने जैसा माना जाता है। विदेशों में सुबह की नमस्कार के लिए गुड मॉर्निंग शब्द का उपयोग होता है। वास्तव में यह गुड मॉर्निंग शब्द एक तरह से शुभकामना है कि आपको आज सूर्य के दर्शन हो जाए क्योंकि कई पश्चिमी देशों में सूर्य भगवान साल में केवल 150 से 200 दिन ही दिखाई देते हैं। इस कारण वहां के लगभग 20 प्रतिशत नागरिक सर्दियों में सीजनल अफेक्टिव डिसऑर्डर (सेड) से ग्रस्त हो जाते हैं। हम पर तो सूर्य भगवान लगभग हर दिन ही कृपा करते हैं। हमारी मॉर्निंग तो उस दृष्टि से वैसे ही हर दिन गुड होती हैं। हाथ जोडऩे, नमन और झुकने की अपनी वैज्ञानिकता है अर्थात भाषा को नष्ट होने का अर्थ सांस्कृतिक विचार और जीवन पद्धति का मर जाना होता है। इसलिए भाषा को बचाना बहुत जरूरी है। इसे फौरी तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए।
बच्चों में भाषाई और व्याकरण संबंधित समझ जन्मजात होती है। वे शब्दों के अर्थ भी जानते हैं। अर्थात सहज और स्वाभाविक व्याकरण उनकी जन्मजात संवेदनशीलता का संकेत देती है। ठीक वैसे ही यदि विद्यार्थियों को ऐसी भाषा में निर्देश या उपदेश दिया जाए तो उनकी समझ में ना आती हो तो वे विषय को ठीक से समझ नहीं पाएंगे। भाषा शिक्षा वैज्ञानिकों का मत है कि इसलिए मातृभाषा में शिक्षा तथा उसका सम्मान संस्कृति की अस्मिता बचाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा से हमारी अंग्रेजी परिमार्जित हो वहां तक तो न्याय संगत है, लेकिन वह हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार और हमारी भाषा- विन्यास की कमर तोड़ दे तो हमारा सांस्कृतिक परिवेश प्रदूषित होता है। आज की नई पीढ़ी इस प्रदूषित परिवेश में अपना जीवन खपा रही है और वह समझ नहीं पा रही कि जिस भाषा का वह दैनंदिन व्यवहार करती है, वह उसके भविष्य को दिशहारा बना रही है। अब मध्यवर्गीय एवं उच्च मध्यवर्गीय में भाषा संस्कृति किस तरह चौपट हो रही है, उसका एक उदाहरण ही काफी है कि एक शिक्षित बालक अपने भाई को कहता है, ''मां बुलाता है ''। इस तरह के संबोधन हमारे तथाकथित शिक्षित समाज में घुसपैठ कर चुके हैं। इसीका दूरगामी परिणाम यह होता है कि हमारी अधकचरी किंतु पढ़ी-लिखी पीढ़ी, परिवार और समाज से कटती जा रही है। ऐसे किशोर हिंदी का उपहास करते हैं एवं बाद में वे स्वयं उपहास के पात्र बन जाते हैं। एक पीढ़ी हमारे बीच विकसित हो रही है जो भाषाई कॉकटेल का सेवन करते करते दिशाहीन हो गई है। माता-पिता के ममत्व से वंचित यह पीढ़ी शून्य मानसिकता का शिकार हो रही है। अपने कैरियर में सफल होकर भी हमारी युवा पीढ़ी पैकेज पाकर फास्ट फूड से क्षुधा तो शांत कर लेती है किंतु कभी तृप्त नहीं होती है। अपना दुरगामी भविष्य भी चौपट कर लेती है।
प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक श्याम चरण दुबे ने कहा था कि ''शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य परंपरा की धरोहर को एक पीढ़ी से दूसरी तक पहुंचाना है। इस प्रक्रिया में परंपरा का सृजनात्मक मूल्यांकन भी शामिल होता है।ÓÓ लेकिन क्या हमारी शिक्षण संस्थायें भारतीय परंपरा की तलाश कर रही है? साहित्यकार प्रभु जोशी का कहना है कि एक तरफ तो ताजमहल और लाल किले जैसी राष्ट्रीय धरोहर की एक भी ईंट तोडऩे पर अपराध कायम हो जाता है तो दूसरी तरफ भाषा जैसे राष्ट्रीय और सांस्कृतिक धरोहर को पूरी तरह नष्ट किया जा रहा है और हम चुप हैं। हम तटस्थ हैं । कभी-कभी हम उसमें शामिल भी हो जाते हैं। यह हमारी आत्महीनता की पराकाष्ठा है।
हमारे देश में हिंदी को येन केन प्रकारेण जबान और चलन से गायब करने की जोरदार साजिश चल रही है और हम पूरी तरह बेखबर हैं। हिंदी को राष्ट्र से निर्वासित कर कूड़ेदान में फेंकने का काम निर्बाध गति से चुपचाप चल रहा है। टीवी चैनल्स और अखबार बहुत तेज गति से पढऩे-लिखने और बोलचाल में हिंदी के सरल शब्दों को चुपचाप हाशिए पर डाल अंग्रेजी के शब्दों को भारत के आम नागरिक के दिलो-दिमाग में डालने में निरंतर सफल होते जा रहे हैं। यह बहुत ही गंभीर चिंतन मनन का विषय है और कुछ सार्थक तथा ठोस रणनीति की अनिवार्यता का स्पष्ट संदेश और संकेत देता है। सरकारों से लेकर कॉर्पोरेेट और कॉर्पोरेेट - हित - साधक अखबार उसके प्रवक्ता बनकर लिखने वाले सब के सब इस जुगात में है कि मातृ भाषा शब्द ही भारतीय समाज और बुद्धि से बाहर हो जाए।
दुनिया को ज्ञान-विज्ञान गणित, योगा, अध्यात्म देकर जगतगुरु कहलाने वाले देश के बुद्धि सम्पन्न नागरिक विदेशी भाषा पढ़कर कोई आविष्कार करना तो दूर की बात कालिदास की तरह से संस्कृति, सभ्यता का ही नष्ट करने में जुटे है। राष्ट्र, संस्कृति और अपनी अस्मिता के लिए कटिबध महानुभावों से करबद्ध निवेदन है कि आपसी मतभेदों को दरकिनार कर अपनी भाषा को बचाने के लिए जी जान से ठोस सार्थक और सफल प्रयास करें।
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